Sunday, 5 December 2021

असग़र वजाहत - पाकिस्तान का मतलब क्या (7) मुल्तान में अंतिम दिन

रात होटल के डायनिंग हाल में खाना खाने गया तो वहाँ होटल के युवा मालिक इमरान मिल गये। उन्होंने कहा कि मैं तो आपको डिनर के लिए ‘इनवाइट’ करना चाहता था। चलिए मेरे साथ खाना खाइये। मैं उनके आॅफिस आ गया। यहाँ उनके बड़े भाई कम्प्युटर पर कुछ काम कर रहे थे। दोनों सामने सोफे पर आकर बैठ गये और इंडिया के बारे में सवालों की झड़ी लगा दी। एक बात मैं महसूस कर रहा था कि उन्हें भारत के बारे में अच्छी खासी जानकारी है। दूसरा यह पता चला कि वे पिछले पच्चीस साल के दौरान भारत में आयी आर्थिक प्रगति और खु़शहाली के समर्थक है। वे भारत की उपलब्धियों की प्रशंसा कर रहे थे। पाकिस्तान समाज के ‘तलेबानीकरण’ से बहुत चिन्तित थे। पूरी दुनिया घूमना चाहते थे। पैसा था। विदेश में पढ़ना चाहते थे। लेकिन मजबूरी ये थी कि वीजा नहीं मिलता था। उन्होंने बताया पाकिस्तानी युवाओं और छात्रों को योरोप और अमेरीका का वीजा बहुत मुश्किल से मिलता है। हद यह है कि टूरिस्ट वीजा भी आसानी से नहीं मिलता। 

मैंने काज़मी साहब से मैंने कई बार कहा था कि आप बुजु़र्ग आदमी हैं, तबीयत भी ठीक नहीं रहती। आप रोज़ मुझे घुमाने ले जाते हैं। आपको तकलीफ देना मुझे अच्छा नहीं लगता। आप किसी नौजवान आदमी की ये जिम्मेदारी सौंप दें। अगर वह चाहेगा तो मैं उसे कुछ मेहनताना भी दे सकता हूँ। मेरी इस बात के जवाब में वे हमेशा ‘नहीं’ के अलावा कुछ और नहीं कहते थे। यह निश्चित रूप से उनका प्यार और लगाव था। लेकिन मैं कुछ ज़्यादा आज़ाद होकर घूमना चाहता था जो काज़मी साहब की मोपेड और शहर में उनके सामाजिक संबंधों के चलते कुछ मुश्किल नज़र आता था। अक्सर कहीं जाते-जाते वे किसी दफ़्तर में बैठ जाते थे, परिचितों से गप मारने लगते थे। मैं बैठा कुड़ता रहता था कि मेरे पास टाइम कम है, बहुत देखना है। मैं गप्प में टाइम क्यों बर्बाद कर रहा हूँ। लेकिन काम़मी साहब शायद जल्दी थक जाते थे, या ये समझते थे कि मैं जल्दी थक जाता हूँ...बहरहाल यही सूरते हाल थी। मैंने सुना था पुराने शहर में कुछ मंदिर हैं। उन्हें मैं देखना चाहता था। पर काज़मी साहब अपने हिसाब से घुमाने पर यक़ीन करते थे। उन्होंने मुझे अपनी कई भूतपूर्व प्रेममिकाओं के घर दिखाये। कई ऐसी जगहें दिखायीं जो उनके लड़कपन के रोचक प्रसंगों से जुड़ी हुई थीं। बहरहाल वे मेरे लिए जो कर रहे थे वह बहुत था और मैं उनका आभारी था।

पाकिस्तान की सरकार को अगर इतिहास में रुचि होती तो मुल्तान महाभारत कालीन इतिहास का ख़ज़ाना साबित होता। शहर में परत-दर-परत इतिहास छिप हुआ है। मुल्तान का किला, जो अब एक विशाल टीला है और जिस पर मध्यकाल की विशाल इमारतें बनी हैं, पुरातत्त्वविदों के लिए दिलचस्पी का विषय है।

कहा जाता है मुल्तान का प्राचीन सूर्य मंदिर यही था। आठवीं-नवीं शताब्दी में इसे लूट कर ध्वस्त कर दिया गया था। उसके बाद प्राचीन सूर्य मंदिर के स्थान पर ही प्रह्लाद मंदिर बनाया गया था। इस मंदिर का संबंध होलिका से जोड़ा जाता है। यह मान्यता है कि यहीं होलिका जली थी।

प्रह्लाद का विशाल मंदिर मुल्तान किले में सूफी संत शेख बाहउद्दीन ज़करिया के मकबरे के बराबर खड़ा था। विभाजन के बाद भी इस मंदिर में पूजा आदि होती थी और श्रद्धालु दर्शन करने आते थे। लेकिन 1992 में बाबरी मस्जिद को तोड़े जाने की प्रतिक्रियास्वरूप मुल्तान का यह मंदिर ध्वस्त कर दिया गया था।

ध्वस्त मंदिर के अवशेष अब भी देखे जा सकते है। मुझे मालूम था कि विभाजन पूर्व मुल्तान हिन्दुओं और जैनियों का प्रमुख केन्द्र था। मैंने जिज्ञासावश काज़मी साहब से मुल्तान के हिन्दुओं के बारे में जानकारी चाही। 
मैंने पूछा, ”क्या मुल्तान में हिन्दू हैं?“
उन्होंने कहा, ”हाँ हैं।“
”कहाँ रहते हैं? कितने हैं?“
”यही कोई दस-पाँच होंगे।“ वे बोले।
”कहाँ रहते हैं?“
”मुझे मालूम नहीं...यहीं कहीं होंगे...।“
”क्या उनसे मिला जा सकता है?“
”मिला जा सकता है?“ उन्होंने आश्चर्य से कहा।
”हाँ...हाँ...।“
”पता नहीं कहाँ होंगे...सब...वो...क्या कहते हैं...सफाई वगै़रह का काम करते हैं।“

हम लोग प्रह्लाद मंदिर के पास आ गये। शेख बहाउद्दीन जकरिया के मक़बरे में बिलकुल पास विशाल मंदिर इस तरह टूटा-फूटा पड़ा था जैसे किसी महान आदर्श के टुकड़े कर दिये गये हों। काज़मी साहब बोले, मुल्तान में हम लोग इस बात पर गर्व करते थे कि यहाँ ‘रिलीजस टालरेंस’ की इतनी बड़ी मिसाल थी...एक तरफ इतना महान सूफी और दूसरी तरफ विशाल मंदिर...।
”ये टूटा कैस?“
”बस...उसी दिन जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़ी जा रही थी...यहाँ लोगों को जोश दिलाया गया...आप जानते हैं...मुफ़्त की नेतागिरी करने वाले कम नहीं होते...हज़ारों आदमियों का जुलूस रवाना हुआ।“
”पुजारी वगै़रह नहीं थे?“ मैंने पूछा।
”थे...वो बेचारे जान बचा कर, खु़दा जाने, भाग कर कहाँ चले गये। खै़र फिर क्या था लोगों ने मंदिर तोड़ना शुरू कर दिया...कहते हैं कुछ मलबे के नीचे दब कर मर भी गये थे।“
”यही अयोध्या में भी हुआ था। बाबरी मस्जिद तोड़ने वालों में कुछ मलबे में दब कर मरे थे।“

हम लोग टूटे हुए मंदिर के पास आ गये। मंदिर का कोई भी भाग सही सलामत नहीं था। बड़े-बड़े टुकड़े ढेर थे जिन्हें देख कर लगता था कि मंदिर काफ़ी बड़ा रहा होगा। मैं मलबे की तस्वीरें लेने लगा। ध्वस्त मंदिर के मलबे को कँटीले तारों से घेर दिया गया था। हमने एक पूरा चक्कर काटा कि कहीं से अंदर जा सकें पर हर तरफ़ तार थे, ऊँची दीवार उठा दी गयी थी। मैं हर ऐंगिल से तस्वीरें लेता रहा।

काज़मी साहब ने कहा, ”मेरे पास इस मंदिर की एक पुरानी तस्वीर है, मैं आपको दूँगा।“ 
”हाँ ये तो बहुत अच्छा होगा।“ मैंने कहा। 
मंदिर के मलबे की तस्वीरें लेते हुए मैंने काज़मी साहब से कहा, ”आपको याद होगा कु़रान शरीफ की एक आयत है, तुम दूसरे के खु़दाओं को बुरा न कहो, ताकि वे तुम्हारे खु़दा को बुरा न कहें।“ 
”हाँ...हाँ...याद है।“ काज़मी साहब ने आयत अरबी में सुना दी। और बोले, ”ये भी साफ़ कहा गया है कि मजहब में ज़ोर ज़बरदस्ती मत करो।“ 
हाँ...काश पाकिस्तान इस्लामी देश ही होता। मैं सोचने लगा। इतने महान सूफियों के शहर में मंदिर को तोड़ना अजीब लगता है। 

मध्यकाल में मुल्तान आध्यात्मिक पुरुषों का इतना बड़ा गढ़ बन गया था कि फारसी का शेर है-
‘मुल्तान मा बा जन्नत बराबर अस्त
आहिस्ता पा बा-नाह के मलिक सज्दा मी कुनद’
मतलब यह कि मुल्तान उच्च स्तरीय स्वर्ग के बराबर है, आहिस्ता चलो कि फरिश्ते यहाँ सज्दा करते हैं।

मुल्तान के आध्यात्मिक पुरुषों में बहाउद्दीन ज़करिया का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। वे 1170 में बग़दाद से पंजाब आये थे। पंजाब, बिलोचिस्तान, सिंध आदि की लम्बी यात्रा के बाद वे मुल्तान में ठहर गये थे। उनका संबंध सुहरावर्दी सूफी सिलसिले से था। उनके गुरु दिया-उल-दीन अबू नजीब सुहरावर्दी (1097-1168) ने उन्हें मुल्तान जाने का आदेश दिया था। सुहरावर्दी अपना सिलसिला हज़रत अली, जुनैद बगदादी, अल ग़ज़ाली आदि से जुड़ा मानते हैं। सुहरावर्दी संसार को तज कर नहीं; बल्कि संसार में रहकर तपस्या (इबादत) करने, साधना करने को श्रेष्ठ समझते हैं। 
शेख बहाउद्दीन जकरिया के पोते रुक-ने-आलम का मक़बरा पूर्वमुगल काल का ताजमहल कहा जाए तो बेजा न होगा। जिस तरह ताजमहल की सुन्दरता का वर्णन नहीं किया जा सकता, उसी तरह रुक-नेआलम के मक़बरे का ज़िक्र हमेशा अधूरा रहेगा।

आप मुल्तान शहर के किसी भी कोने में चले जाइये आपको रुक-ने-आलम का मक़बरा दिखाई देगा क्योंकि यह प्राचीन किले के खंडहरों के ऊपर बना है। पच्चीस फीट ऊँचे और पाँच हज़ार गज़ स्क्वायर चबूतरे पर इमारत बनायी गयी है। चबूतरे के कारण मकबरे को देखने का ‘स्पेस’ मिलता है। मध्यकाल की इमारतों के कुशल कारीगर यह जानते थे कि ‘देखने वाले’ और इमारत का एक गहरा रिश्ता दोनों के बीच के फासले से निर्मित होता है। उदाहरण के लिए अगर किसी को ताजमहल की मुख्य इमारत से दस फीट दूर खड़ा करके उसकी आँखें खोल दी जायें तो वह ताज को देख ही नहीं पाएगा, एप्रीशियेट करना तो बाद की बात है।

इस मक़बरे को आप दूर से देखते हैं तो इसकी सुन्दरता की केवल एक ‘परत’ खुलती दिखाई देती है। इस मक़बरे का गुम्बद विश्व का दूसरा सबसे विशाल गुम्बद है। संसार का सबसे बड़ा गुम्बद बीजापुर में है। 
मैं और काज़मी साहब साथ-साथ रुक-ने-आलम के मक़बरे (1320-1324) की तरफ जा रहे थे। वे मक़बरे के बारे में बता रहे थे। मैं देख रहा था कि विज्ञापनों के बड़े-बड़े बोर्ड इस तरह लगाये गये थे कि मकबरे का ‘व्यू’ नहीं आ पाता था। मैंने काज़मी साहब से कहा कि विज्ञापन के ये बड़े बोर्ड यहाँ क्यों लगने दिये गये?
उन्होंने कहा, ”क्यों, क्या भारत में ऐसा नहीं होता?“
मैं उनका मुँह देखने लगा, मैंने कहा, ”काज़मी साहब...भारत में ऐसा होना नामुमकिन है...हम सोच भी नहीं सकते कि लाल किले के सामने विज्ञापन के बड़े-बड़े बोर्ड लगे हों।“ मैंने उन्हें यह बताया कि भारत में पुरातत्त्व और ऐतिहासिक विरासत के प्रति लोग और सरकार बहुत संवेदनशील हैं।

जब ‘व्यू’ से विज्ञापन बोर्ड हट गये तो मैं रुक-ने-आलम के मकबरे के चित्र लेने शुरू किये। मकबरे के ऊँचे चबूतरे पर जाने के लिए जो सीढ़ियाँ बनी थीं उनके पास एक अजीब तरह का, काफी पुराना-सा लगने वाला, लेकिन बहुत ऊँचा नहीं, पेड़ लगा था जिसकी पत्तियाँ बिल्कुल सीधे तार जैसी लम्बी और पतली थीं। मैं पेड़ देखने लगा। काज़मी साहब ने बताया कि इस तरह के यहाँ चार पेड़े हैं... कोई सूफी इन्हें मध्य-एशिया से लाया था। 

हम सीढ़ियाँ चढ़ कर विशाल चबूतरे पर पहुँचे। अब यहाँ से, मकबरे के पास आकार उसकी वह सुन्दरता जो नीचे से नहीं नज़र आती थी, दिखाई पड़ने लगी। अष्टकोणीय इमारत-ऊपर जाते-जाते कुछ अंदर की तरफ झुकती जाती है। एक तरफ तो आठ कोणों का अपना समीकरण आकर्षित करता है तो दूसरी तरफ ऊपर जाते हुए आकार का छोटा होते जाना इस समीकरण में एक नया आयाम जोड़ देता है। मकबरे का डायमीटर 51 फीट 9 इंच है ।दीवारों पर मध्य एशिया और ईरान के टाइल्स वाली शैली का काम है। मेरे विचार से ईरान के कलात्मक टाइल्स की कला की तुलना में इस मकबरे की कलात्मकता काफी ऊंचे दर्जे की है।

अंदर जाने का दरवाजा शीशम की लकड़ी का है जिस पर खूबसूरत जालियां बनी है। शताब्दियों की सर्दी गर्मी सहकर लकड़ी का रंग काला हो गया है इसलिए लिए पहली नजर में दरवाजा काले पत्थर का मालूम होता है।
(जारी)

© असग़र वजाहत 

पाकिस्तान का मतलब क्या (6)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/12/6.html 
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