2014 का चुनाव भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लड़ा गया था क्योंकि इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन की जड़ में, तत्कालीन यूपीए सरकार पर, भ्रष्टाचार के विभिन्न आरोपों के धब्बे थे। गुजरात मॉडल, विकास, और भ्रष्टाचार मुक्त देश आदि शिगूफे हवा में उछाले जा रहे थे। स्विस बैंकों में जमा धन एक बड़ा मुद्दा बना हुआ था। साथ ही, पीएम का वह महत्वपूर्ण भाषण कि, 'यदि स्विस बैंक में जमा सारा काला पैसा, वापस आ जायेगा तो, हर नागरिक के खाते में पंद्रह पंद्रह लाख यूं ही आ जायेंगे।' यह बात भी सही है कि तब नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री नहीं बने थे, और वे गुजरात के विकास मॉडल को, जिसके तब वे लंबे समय से मुख्यमंत्री थे, के अग्रदूत के रूप में देखे जा रहे थे। तब न राममंदिर का प्रमुखता से जिक्र होता था, न ही हिंदू खतरे में आया था, न गौरक्षा एजेंडे में था, न घर वापसी का दीवानापन था, तब खूबसूरत सपनों का बाजार सजा था, टीवी 'हम मोदी जी को लाने वाले हैं, अच्छे दिन आने वाले हैं' जैसे विज्ञापनों से गुलजार था, मोदी जी एक त्राता के रूप में आकार ग्रहण कर रहे थे और डॉ मनमोहन सिंह, एक खलनायक के रूप में बदल रहे थे। 'सबका साथ, सबका विकास' का नशा तारी था और वक्त बदल रहा था।
लेकिन, जब सत्ता 2014 में बीजेपी को मिल गई तो उनके खूबसूरत संकल्पपत्र धरे के धरे रह गए, स्विस बैंक के काले धन पर, एक कमेटी तो बनी पर उसने क्या किया यह आज तक पता नहीं चला, रूपया 15 लाख सबके खाते में आने की बात जुमला कह दी गई, और जो वादे में नहीं था, वह लागू किया जाने लगा और वादे, जुमलों में तब्दील होने लगे, और अंत में शब्द जुमला भी असंसदीय मान कर चर्चा से हटा दिया गया। भ्रष्टाचार पर न तो बात हुई और न ही इस बात की पड़ताल की कोशिश ही हुई कि, आखिर राजनीतिक जीवन में भ्रष्टाचार का मूल कारण क्या है और उसका समाधान क्या हो।
राजनीतिक जीवन में जैसी चुनाव प्रक्रिया है, उसे देखते हुए भ्रष्टाचार एक बीमारी नहीं एक जरूरत का रूप ले चुका है। राजनीतिक दलों को मिलने वाला चंदा, राजनीतिक जीवन में संगठित भ्रष्टाचार का एक बड़ा कारण है। निर्वाचन आयोग द्वारा बार बार इस चेतावनी के बाद कि राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे को पारदर्शी बनाया जाय, संसद ने न तो इसे गंभीरता से लिया और न ही भ्रष्टाचार के इस मूल कारण को रोकने के लिए कोई जतन ही किए। और तो और इलेक्टोरल बॉन्ड के रूप के राजनैतिक चंदे की एक ऐसी अपारदर्शी योजना लाई गई जिसने कॉर्पोरेट और सत्तारूढ़ दल के बीच जो भ्रष्ट गठबंधन है उसे और मजबूत ही किया।
चुनाव आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, राजनीतिक दलों को मिलने वाले, ₹20 हजार, से ऊपर दिए जा रहे चंदे में 41.5 प्रतिशत की गिरावट आई है। यानी छोटे चंदे कम हुए हैं और बड़ी धनराशि जो अमूमन कॉर्पोरेट से मिलते हैं उनमें वृद्धि हुई है। आंकड़ों के अनुसार, वित्त वर्ष 2019-20 में, बीजेपी को, ₹785.7 करोड़, कांग्रेस को ₹139 करोड़, एनसीपी को, ₹59.9 करोड़, सीपीएम को, ₹19.7 करोड़, तृणमूल कांग्रेस को, ₹8.08 करोड़, और सीपीआई को, ₹1.29 करोड़ का चंदा मिला है।
वित्त वर्ष 2020-21 में, क्रमशः, बीजेपी को, ₹477.5 करोड़, (गिरावट 39% की), कांग्रेस को ₹74.5 करोड़ (46 % की गिरावट), एनसीपी को ₹26.2 करोड़, सीपीएम को ₹12.8 करोड़, तृणमूल कांग्रेस को, ₹42.5 लाख, सीपीआई को, ₹1.49 करोड़ का चंदा मिला। रिपोर्ट के मुताबिक बसपा ने हमेशा की तरह अपनी अनुदान रिपोर्ट में 20 हजार रुपये से अधिक का शून्य चंदा दिखाया है। ₹20 हजार से ऊपर के चंदे के संदर्भ में अधिकांश पार्टियों के चंदे 41.5% की गिरावट हुई है।
जो आंकड़े दिए गए हैं, वे राजनीतिक दलों को मिले चंदे का पूरा विवरण नहीं है। ₹20 हजार, या इससे कम राशि का चंदा भी लोग देते हैं। बीएसपी अपने आय के खाते में ऐसे ही चंदे का विवरण बताती है। 2014 के बाद, सरकार ने पॉलिटिकल फंडिंग के लिए, इलेक्टोरल बॉन्ड, यानी पार्टियों को चंदा देने का एक ऐसा तरीका लागू किया गया जो विशेषज्ञों की नजर में अपारदर्शी था। कहां तो जरूरत थी कि पॉलिटिकल फंडिंग को पारदर्शी बनाया जाय और आय व्यय का विवरण, राजनीतिक दलों की अधिकृत वेबसाइट पर नियमित रूप से डाली जाए, उसे अपडेट किया जाय, लेकिन एक ऐसी व्यवस्था लाई गई जिसने चुनाव सुधार के सबसे महत्वपूर्ण विंदु, पोलिटिकल फंडिंग को और भी जटिल बना दिया। इस प्रकार, पिछले कुछ सालों में, पॉलिटिकल पार्टियों को जिस माध्यम से सबसे अधिक चंदा मिल रहा है, वह, इलेक्टोरल बॉन्ड यानी चुनावी बॉन्ड है। यह मोदी सरकार द्वारा लाई गई एक गोपनीय पोलिटिकल फंडिंग व्यवस्था है, जो चंदा देने वालों को उनकी पहचान गोपनीय रखने की सुविधा प्रदान देता है। इसलिए, इलेक्टोरल बॉन्ड को चुनावी फंडिंग की पारदर्शिता में एक बड़ा रोड़ा बताया गया है। यह मामला, सुप्रीम कोर्ट में भी लंबित है, जिस पर सुनवाई होनी है।
अब सवाल उठता है कि इलेक्टोरल बंद की जरूरत क्यों पड़ी ? यह कोई मजबूरी थी या कुछ और ? हुआ यह कि, चुनाव आयोग के नियमों के अंतर्गत, सभी राजनीतिक दलों को 20 हजार रुपये से अधिक की धन राशि वाले चंदों का विवरण, निर्वाचन आयोग अनिवार्यतः देना होता है, जिसमें, चंदा देने वाले व्यक्ति, कंपनी या ट्रस्ट का नाम, उनके द्वारा दी गई चंदा की राशि, उसका पता, पैन नंबर, चेक/डीडी नंबर, बैंक का नाम और पता दर्ज करना होता है। लेकिन, इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये मिले चंदे में यह सब विवरण देने की जरूरत नहीं है। किस दल को कितना चंदा मिला यह तो राजनीतिक दलों की ऑडिट रिपोर्ट से पता चल जाता है पर वह चंदा किस व्यक्ति, कम्पनी या ट्रस्ट ने दिया है, इसकी जानकारी नहीं मिल पाती है। इस अपारदर्शी प्राविधान से सरकार पर, आरोप लगने लगा कि, इलेक्टोरल बॉन्ड आने के बाद से मोटी कमाई करने वाले लोग, कॉरपोरेट्स और कंपनियां चंदा देने के लिए इस गोपनीय रास्ते का इस्तेमाल कर रही हैं। चुनाव सुधार और चुनावी फंडिंग की पादर्शिता की दिशा में काम करने वाली गैर-सरकारी संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने इस मुद्दे पर आपत्ति की है एक बार फिर, पॉलिटिकल फंडिंग के इस संवेदनशील विंदु को उठाया है।
इस संस्था के प्रमुख मेजर जनरल अनिल वर्मा (रिटायर्ड) ने टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया,
"मैं ये कहता रहा हूं कि अब राजनीतिक दलों की कमाई का बड़ा जरिया इलेक्टोरल बॉन्ड है। यह राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों दोनों के साथ हो रहा है। यह राजनीतिक दलों और चंदा देने वालों दोनों के लिए सुविधाजनक है, ये उन्हें गोपनीयता भी देता है।"
वहीं एडीआर के संस्थापक जगदीप छोकर ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया,
"बिल्कुल सत्ताधारी पार्टी को ज्यादा चंदा मिला है। लेकिन जो चंदा मिला है, वह सिर्फ बहुत छोटा सा हिस्सा (टिप ऑफ आइसबर्ग) है। राजनीतिक दलों की असली कमाई इससे कहीं अधिक है।"
अब इलेक्टोरल बॉन्ड से किसको कितना चंदा मिला है, इस पर चर्चा करते हैं।
० वित्त वर्ष 2019-20 में बीजेपी को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये सर्वाधिक 2 हजार 555 करोड़ रुपये का चंदा मिला था।
० इससे पहले 2018-19 में पार्टी को 1450 करोड़ रुपये का चंदा इलेक्टोरल बांड से मिला था।
० वहीं कांग्रेस को 2019-20 में इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये 317.8 करोड़ रुपये का चंदा मिला था। हालांकि 2020-21 में ये काफी घटकर महज 10 करोड़ रुपये पर पहुंच गया.
० अगस्त 2021 में एडीआर ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि साल 2019-20 में राजनीतिक दलों ने कुल 3 हजार 429.56 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड को भुनाया था। इसमें से 76 फीसदी राशि अकेले बीजेपी के खाते में गई थी। वहीं कांग्रेस को सिर्फ 9 फीसदी राशि प्राप्त हुई थी।
० वर्ष 2019-20 में राष्ट्रीय पार्टियों (बीजेपी, कांग्रेस, एनसीपी, बीएसपी, टीएमसी और सीपीआई) ने अलग-अलग माध्यमों को मिलाकर कुल 4 हजार 758 करोड़ रुपये की कमाई की थी, जिसमें से 3 हजार 623.28 करोड़ रुपये (76.15%) की आय अकेले बीजेपी को हुई थी।
० इस दौरान कांग्रेस की कमाई 682.21 करोड़ रुपये और सीपीआई को सबसे कम 6.58 करोड़ रुपये थी.
० वित्त वर्ष 2018-19 से 2019-20 के बीच महज एक साल में भाजपा की आय में 50.34 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी. वहीं इस दौरान कांग्रेस की आय 25.69 फीसदी घट गई थी.
एडीआर के मुताबिक बीजेपी की 70 फीसदी से अधिक की कमाई इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये होती है. वहीं कांग्रेस की कमाई में 46.59 फीसदी, तृणमूल कांग्रेस की कमाई में 69.92 फीसदी और एनसीपी की कमाई में 23.95 फीसदी हिस्सा इलेक्टोरल बॉन्ड का है।
जैसे नोटबंदी और जीएसटी के भी नए नए नियम बनाए जाते रहे, कुछ वैसा ही प्रयोग इलेक्टोरल बांड के साथ भी होता रहा। कुछ उदाहरण देखें।
० 2017 में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने, जब पहली बार, इलेक्टोरल बॉन्ड का प्रस्ताव, संसद में रखा तब, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया आरबीआई ने चेतावनी दी थी कि, इस तरह के बॉन्ड का दुरुपयोग मनी लाउंड्रिंग के लिए हो सकता है। लेकिन देश के सबसे बड़े बैंक की यह चेतावनी अनसुनी कर दी गई।
० जब योजना की रूपरेखा पेश हुई तो वह कुछ इस प्रकार थी।
केवल स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, एसबीआई को इलेक्टोरल बॉन्ड बेचने का अधिकार दिया गया।
० इसे कोई भी व्यक्ति, कारपोरेशन, एनजीओ अथवा कानूनी रूप से वैध संस्था खरीद सकता है और अपनी पसंद के राजनीतिक दल को दान कर सकता है।
० पॉलिटिकल पार्टी चंदे में मिले, इस धनराशि को, एक तयशुदा बैंक एकाउंट में जमा कर देगी।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि, आरबीआई ने इस योजना के लागू होने तक, इसका विरोध किया और बार बार कहा कि, यह योजना मनी लांड्रिंग का एक नया रास्ता खोलेगी जिससे देश में काले धन की समस्या होगी। जब सरकार ने आरबीआई की नहीं सुनी तो, रिजर्व बैंक ने, दो महत्वपूर्ण सुझाव देकर, इस योजना में मनी लॉन्ड्रिंग की संभावना को सीमित करने की कोशिश की। वे है,
० बॉन्ड को साल में सिर्फ दो बार नियत समय के भीतर बेचा जाएगा। इसे विंडो कहा गया।
० खरीददार को इसे खरीदने के 15 दिन के भीतर अपनी पार्टी के खाते में जमा करवाना होगा।
० जनवरी 2018 में वित्त मंत्रालय ने इलेक्टोरल बॉन्ड के क्रय विक्रय से, संबंधित नियमावली जारी की। इस नियमावली में, यह प्राविधान रखा गया कि,
० इलेक्टोरल बॉन्ड साल में चार बार बेचे जाएंगे।
० बिक्री की तारीख से 15 दिनों के भीतर ही इन्हें भुना लेना होगा और फिर राजनीतिक दल इसका इस्तेमाल अपने चुनाव प्रचार में कर सकते हैं.
लेकिन कर्नाटक चुनाव से पहले मई 2018 में प्रधानमंत्री कार्यालय के निर्देश पर 10 दिन के लिए अतिरिक्त विंडो खोल कर, 1 से 10 मई, 2018 के बीच, इलेक्टोरल बॉन्ड बेचे गए।
इसी संदर्भ में एक रोचक घटना का उल्लेख करना उल्लेखनीय होगा। 24 मई 2018 को एसबीआई ने वित्त मंत्रालय को एक पत्र भेजकर बताया कि 'एक अज्ञात राजनीतिक दल के प्रतिनिधि, बैंक की दिल्ली स्थित मुख्य शाखा में 20 करोड़ कीमत के इलेक्टोरल बॉन्ड लेकर आए, इनमें से, आधे बॉन्ड, ₹10 करोड़ के, 3 मई और आधे 5 मई, 2018 को खरीदे गए थे। यह बॉन्ड जैसा कि, एसबीआई ने बिक्री के वक्त ही, बता दिया था, और बांड पर यह निर्देश लिखा भी था कि, 15 दिन के बाद ये इलेक्टोरल बांड, काल बाधित यानी, एक्सपायर हो जाएंगे। इसके बावजूद राजनीतिक दल के वे प्रतिनिधि बैंक की शाखा में उन्हें भुनाने के लिए अड़ गए। वित्त मंत्रालय को भेजी गई एसबीआई की रिपोर्ट में कहा गया कि, राजनीतिक दल के प्रतिनिधि का तर्क है कि, बॉन्ड को भुनाने के लिए जो 15 दिन दिए गए हैं वो 15 कार्य दिवस हैं न कि 15 कैलेंडर दिवस।'
नई दिल्ली स्थिति एसबीआई ब्रांच ने उसी दिन अपने कारपोरेट कार्यालय को इसकी सूचना दे दी। 24 मई, 2018 को एसबीआई के उप निदेशक ने वित्त मंत्रालय को पत्र लिखकर पूछा कि, 'क्या वो इस एक्सपायर बॉन्ड को भुनाने की इजाजत देंगे।'
बैंक ने सरकार को लिखा,
“कुछ खरीददार हमारे पास यह तर्क लेकर आए हैं कि ये बॉन्ड 15 वर्किंग दिवस तक वैध हैं। हमारा आग्रह है कि आप इस मामले को स्पष्ट करें कि क्या बॉन्ड को भुनाने के लिए तय 15 दिन की सीमा 15 कार्य दिवस है या 15 कैलेंडर दिवस की।”
वित्त मंत्रालय में उप निदेशक विजय कुमार ने कहा, “यह स्पष्ट है कि वर्णित तिथि का मतलब है कुल 15 दिन यानि इसमें गैरकामकाजी दिवस भी शामिल हैं।”
अतः बॉन्ड एक्सपायर हो चुके थे, और मौजूदा प्रवाधानों के तहत यह पैसा प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा कर देना था जो कि एक आधिकारिक फंड है और सामाजिक और आपदाग्रस्त कार्यों के लिए इस्तेमाल होता है।
लेकिन किस्सा यहीं खत्म नहीं हुआ। वित्त मंत्रालय ने, बाद में निर्देश भेजा कि,
"नियमों में पूरी स्पष्टता के अभाव में कुछ बॉन्ड जो पिछले विंडो से खरीदे गए है, उन बॉन्ड होल्डर्स को एसबीआई क्रेडिट कर सकती है, यदि ऐसे बॉन्ड जो 10 मई, 2018 के पहले खरीदे गए थे.” साथ ही यह भी जोड़ दिया कि,
"भविष्य में इस तरह की सुविधा नहीं मिलेगी।”
अक्सर हम राजनीतिक दलों के नेताओं को सार्वजानिक जीवन में शुचिता और भ्रष्टाचार पर भाषण देते, देखते सुनते रहते हैं, पर किसी भी राजनीतिक दल की सरकार ने लोकतंत्र के इस दीमक का पेस्ट कंट्रोल करने का कोई प्रयास करते नहीं देखा और देखा भी तो, उन्हे निर्वाचन आयोग, अदालत और अन्य एनजीओ के उन प्रयासो पर खामोशी ओढ़ते हुए देखा। आरटीआई के दायरे में राजनीतिक दल खुद को लाने के लिए भी तैयार नहीं हैं। यह तो टीएन शेषण, लिंगदोह, जैसे कुछ काबिल मुख्य निर्वाचन आयुक्तों की सजगता और दृढ़ता का परिणाम है कि, चुनाव में काफी हद तक काले धन पर रोक लगाने की कोशिश हुई लेकिन यह सारे प्रयास भी अभी तक चुनाव प्रक्रिया को, बहुत कुछ साफ सुथरा नहीं कर पाए हैं। सरकार और संसद को, पॉलिटिकल फंडिग को न केवल पारदर्शी बनाना होगा बल्कि उसे, राजनैतिक दलों को आरटीआई के दायरे में भी लाने पर विचार करना होगा। इससे पूंजी और सत्ता का गंदा गठजोड़ टूटेगा और उसका सीधा असर, सार्वजनिक जीवन पर पड़ेगा।
(विजय शंकर सिंह)
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