इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के छात्र, अप्रत्याशित फीस वृद्धि के खिलाफ पिछले कई दिन से आंदोलन पर है और अब उनके खिलाफ थानों में मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं और आंदोलन खत्म करने के लिए उनके गांव घर पर दबाव डाला जा रहा है। वहां के वीसी का कहना है कि, एक बार जो निर्णय ले लिया गया उसे वे वापस नहीं लेती हैं। उनका कहना है कि, सरकार ने कहा है कि, यूनिवर्सिटी अपना खर्च खुद निकाले। पर कैसे निकाले, यह बात उन्हे सरकार से पूछनी चाहिए और सरकार को बताना चाहिए।
जाहिर है फीस वृद्धि, नए नए सुंदर और आकर्षक नामों से सजे कोर्स शुरू कर के, उनकी अनाप शनाप फीस रख कर ही यूनिवर्सिटी अपना खर्च निकाल सकती है। अब इन कोर्स में भारी भरकम फीस देकर पढ़ने वाले, लडको को कितने रुपए की तनख्वाह पर नौकरी मिलेगी, और उनके पढ़ने का खर्च वे निकाल पाएंगे, इस पर यदि आप अध्ययन करेंगे तो उसके बेहद दिलचस्प निष्कर्ध निकलेंगे।
शिक्षा और स्वास्थ्य, सरकार का दायित्व है, और सरकार इसके लिए जनता से टैक्स लेती है, और टैक्स कम होने पर, उस पर सेस भी लगाती है। न तो टैक्स कम हो रहा है और न ही सेस। फिर सरकार यूनिवर्सिटी का बजट क्यों कम कर रही है? यह तर्क दिया जा सकता है कि, महंगाई बढ़ रही है तो फीस वृद्धि लाजिमी है। यह तर्क दुरुस्त भी है। पर फीस वृद्धि का भी कोई न कोई तर्कपूर्ण आधार होना चाहिए।
इन विश्वविद्यालयों में, अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चे पढ़ने आते हैं और जिस आर्थिक समाज से वे आते हैं, उनकी आर्थिक स्थिति के अनुरूप फीस वृद्धि होनी चाहिए। खबर है कि, 400 गुनी फीस वृद्धि की गई है। यदि यह खबर गलत है तो वीसी इसे छात्रों से मिल कर उन्हे समझा सकती हैं। या न्यूनतम वृद्धि जैसी किसी बात पर सहमति बनाई जा सकती है। पर हर आंदोलन को जिद, अहंकार, दमन के बल पर तोड़ने और उसे तोड़ कर आत्ममुग्ध होने की यह आदत, न तो बेहतर गवर्नेंस का द्योतक है और न ही यह कोई तरीका है यूनिवर्सिटी को संचालित करने का।
शिक्षा और स्वास्थ्य, सरकार के लिए कमाई के स्रोत नहीं है और न ही यह कोई व्यावसायिक संस्थान हैं। यह लोककल्याणकारी राज्य के आधारभूत तत्व हैं। पर दिक्कत तब होती है जब लोककल्याण से जुड़ी योजनाओं को भी विशुद्ध व्यावसायिक दृष्टि से देखा जाने लगता है। यूनिवर्सिटी व्यापार का केंद्र नहीं है, कि, उसकी बैलेंस शीट बना कर, लाभ हानि पर खुश या चिंतित हुआ जाय। लेकिन शिक्षा संस्थाओं का योगदान देश और समाज की बैलेंसशीट पर पड़ता है।
(विजय शंकर सिंह)
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