बीजारोपण
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यूरोप में प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18) के पूर्व राष्ट्रवाद लगातार उग्र और युयुत्सु होता गया था. सबसे अधिक जर्मनी में. जर्मन राज्यों के एकीकरण में विलम्ब के चलते वह उपनिवेश स्थापित करने की दौड़ में पीछे रह गया था. अन्य यूरोपी राष्ट्रों की प्रतिस्पर्धा में वहाँ यह भावना ज़ोर मारने लगी थी कि धरती पर उसको बहुत कम जगह मिली है. बाद में यही भावना हिटलर के विस्तारवाद की मूल प्रेरक बनी.
जर्मन प्रोफ़ेसर हेमरिच वान त्रिट्स्के (Heinrich von Treitschke, 1834-1896) ने प्रतिपादित किया था कि युद्ध एक जैविक ज़रूरत है और जर्मनी का दैवी मिशन भी. सन् 1870-71 के फ़्रांस-प्रशा युद्ध (जिसमें प्रशा यानी जर्मनी विजयी हुआ था) के बाद से योरोप में कोई युद्ध नहीं हुआ था. निष्क्रिय नीरसता में डूबे सैन्य अधिकारी क्लबों, पबों और सामाजिक मिलन-केंद्रों में अलंकरणों से सजी, चुस्त-दुरुस्त वरदी पहने, ड्रिंक्स के साथ बहस करते, अपनी बहादुरी की नई गौरवगाथा रचने को आकुल थे. यह गुप्त संधियों, अनिवार्य सैन्य-भरती और उन्नत से उन्नत युद्ध के सरंजाम संचित करने की प्रतियोगिता का दौर था. ऐसे में जर्मनी के साथ संधि से जुड़े आस्ट्रो हंगेरियन साम्राज्य के युवराज आर्क ड्यूक फ़्रैंज़ फ़र्डिनैंड की एक सर्बियन क्रांतिकारी द्वारा 28 जून, 1914 को हत्या कर दी गई. साम्राज्य के बोस्निया-हर्ज़गोविना प्रांत की राजधानी सराजेवो में वे अपनी पत्नी के साथ वहाँ की स्लाव नस्लवाली अपनी असंतुष्ट प्रजा को समझाने गए थे, जो साम्राज्य से आज़ाद हो चुके हमनस्ल सर्बिया के साथ अपने प्रांत का विलय चाहती थी. आर्क ड्यूक की सपत्नीक हत्या ने सुलगते ढेर में चिनगारी का काम किया. एक बेहद सख़्त अल्टीमेटम के बाद 28.7.1914 को आस्ट्रो-हंगरी द्वारा सर्बिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा के साथ तब तक का सबसे भीषण युद्ध शुरू हो गया.
युद्ध में एक ओर था आस्ट्रो-हंगरी, जर्मनी और इटली (धुरी राष्ट्र) और दूसरी ओर सर्बिया व स्लाव नस्ल का सबसे बड़ा देश रूस. फिर रूस के साथ मित्र सम्बंध से बँधे फ़्रांस व इंग़्लैंड भी उसके पक्ष में आ खड़े हुए. अक्टूबर 1914 में टर्की भी जर्मनी की ओर से युद्ध में कूद पड़ा. मई, 1915 में इटली अपने दोस्तों का साथ छोड़कर मित्र राष्ट्रों के पाले में आ गया (इस बिना पर यूरोप का गीदड़ कहलाया). युद्ध के दरमियानी दौर में जर्मनी और उसके सहयोगी धुरी राष्ट्रों का पलड़ा निर्णायक रूप से भारी रहा और इटली तथा इंग्लैंड को छोड़कर पूरे पश्चिमी योरोप पर उनका क़ब्ज़ा हो गया.
बिसात का पलटना शुरू हुआ अप्रैल, 1917 से जब जर्मन पनडुब्बियों ने ब्रिटेन जा रहे अमेरिका के पाँच ‘तटस्थ’ मालवाहक जहाजों को अटलांटिक में डुबो दिया. इससे मजबूर होकर अमेरिका को अपनी पुरानी तटस्थता की नीति त्यागकर जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करनी पड़ी. अक्टूबर, 1917 में रूस में हुई सोवियत क्रांति के बाद लेनिन ने रूस के मित्रों का साथ छोड़कर जर्मनी से संधि कर ली (ब्रेस्ट लिटोव्स्क, 3. 3.18). इस संधि के तहत रूसी साम्राज्य के वे सारे हिस्से जर्मनी को सौंप देने पड़े जो पीटर महान के समय से रूस ने जीते थे. उस समय युद्ध की जैसी स्थिति थी, लेनिन को जर्मनी के अलावा किसी और राष्ट्र की चिंता करने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई. किंतु सर्वहारा की वैश्विक क्रांति की घोषणा से घबराकर अमेरिका ने मित्र राष्ट्रों के पक्ष में पूरी ताक़त झोंक दी, जो अंतत: उनकी विजय का मुख्य कारक बना.
1918 का साल बीतते-बीतते धुरी राष्ट्रों के साथ जर्मनी बुरी तरह परास्त हो गया. पेरिस शांति सम्मेलन (12 जनवरी,1919--20 जनवरी,1920) में प्रत्येक पराजित देश के साथ अलग-अलग संधि हुई. यूरोप का नया नक़्शा खींचा गया. आस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य को काटकर आस्ट्रिया और हंगरी अलग कर दिए गए और उसका शेष भूभाग लेकर दो और संप्रभु राज्य चेकोस्लोवाकिया व युगोस्लाविया बनाए गए. जर्मनी के साथ हुई वर्साई संधि के तहत फ़िनलैंड और तीनों बाल्टिक राज्य--एस्टोनिया, लटविआ और लिथुआनिआ--जो जर्मनी को सोवियत रूस के साथ हुई ब्रेस्ट लिटोव्स्क संधि से मिले थे, स्वतंत्र कर दिए गए. जर्मनी का एक प्रांत लेकर पुराने पोलैंड को पुन: जीवित किया गया. उसे बाल्टिक समुद्र तक पहुँचने के लिए जर्मन भूक्षेत्र से होकर एक गलियारा भी दिया गया जिससे जर्मनी का पूर्वी प्रशा प्रांत उसके मुख्य भूभाग से कट गया. फ़्रांस के दो प्रांत अल्सैस और लॉरेन, जिन्हें जर्मनी ने 1870-71 के युद्ध में उससे जीते थे, फ़्रांस को वापस कर दिए गए. इस दरमियान वहाँ से जो कोयला निकाला गया था, उसकी भरपाई के लिए जर्मनी की सार घाटी की कोयला खदानें और साथ में घाटी का पूरा भूक्षेत्र 15 साल के लिए फ़्रांस को दे दिया गया, जिसके बाद जनमत संग्रह से उस क्षेत्र का भविष्य तय होना था. बेल्जियम और डेनमार्क को भी कुछ जर्मन भूक्षेत्र मिले. इस तरह जर्मनी को अपना 13% यूरोपीय भूक्षेत्र गँवाना पड़ा. इसके अतिरिक्त चीन, अफ़्रीका और प्रशांत के द्वीपों में उसके जो भी उपनिवेश थे, सारे उसके हाथ से निकल गए. जर्मनी का काफ़ी हद तक निरस्त्रीकरण कर दिया गया. जर्मन नौसेना युद्धांत से पहले ही बग़ावत पर उतरकर आत्म-समर्पण कर चुकी थी, जर्मनी द्वारा नई नौसेना खड़ी करने पर रोक और थल सेना पर अधिकतम एक लाख की सीमा लगा दी गई. युद्ध शुरू करने की पूरी ज़िम्मेदारी जर्मनी पर (आस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य की साझेदारी में) डालते हुए उस पर एक बड़ा हरजाना लगाया गया जिसकी राशि कई बार बदलने के बाद अंत में 132 बिलियन मार्क (442 बिलियन डॉलर के समतुल्य) तय हुई. अन्य किसी कारण से अधिक इसी हरजाने की लगभग असम्भव अदायगी ने हिटलर को हिटलर बनाया.
यह संधि नहीं थी, जैसा कि बाद में हिटलर ने कहा, आदेश (diktat) था. ‘संधि’ की प्रक्रिया में पराजित राष्ट्रों, ख़ासकर जर्मनी, को जिस तरह अदबदाकर अपमानित किया गया, इतिहास में उसकी मिसाल नहीं. इन राष्ट्रों को संधि वार्ता में शामिल नहीं किया गया, बाहर रहकर इंतज़ार करने को कहा गया—जब संधि की धाराएँ तय हो जाएँगी, दस्तख़त के लिए बुला लिया जाएगा. जर्मनी से संधि के लिए वर्साई महल को ख़ास तौर पर चुना गया जहाँ 1871 में फ़्रांस को हराने के बाद बिस्मार्क ने ऐसी ही एक संधि उस पर थोपी थी, जिसमें फ़्रांस को अपने उपरोक्त अल्सैस और लॉरेन प्रांत गँवाने पड़े थे. इंतहा तो तब हो गई जब संधि पर जर्मनी के दस्तख़त के लिए वही तारीख़ (28.6.1919) मुक़र्रर की गई जिस पर पाँच साल पहले सराजेवो में आर्क ड्यूक फ़्रैंज़ फ़र्डिनैंड की हत्या हुई थी, जिससे युद्ध भड़का था. इंतक़ाम की आग में जलते व्यक्ति ही नहीं, राष्ट्र भी ऐसी तंगनज़री की गिरी हुई हरकतें करते हैं कि ताज्जुब होता है. लेकिन फ़्रांस के प्रधान ज्यॉर्ज क्लेमेंसो को, जो एक हज़ार साल पुराने दुश्मन जर्मनी को हमेशा के लिए कुचल देना चाहते थे और जिनके दबाव में यह सब हुआ, शायद यह भान नहीं रहा होगा कि अपनी हरकत से वे भविष्य में इससे ज़्यादा भयानक युद्ध का बीज बो रहे थे जिसमें फ़्रांस को और भी अपमानजनक पराजय से गुज़रना होगा, और पूरा विश्व तहस-नहस होने के कगार पर पहुँच जाएगा.
शांति वार्ता में शुरू में पाँच राज्य ( ब्रिटेन, फ़्रांस, इटली, जापान और अमेरिका) शामिल हुए. इटली कुछ नए इलाक़ों के लालच में ही युद्ध के दौरान मित्र राष्ट्रों के साथ आया था और भूमध्य सागर से लगे आस्ट्रो-हंगरी साम्राज्य का कुछ हिस्सा पाने की आस लगाए था. वहाँ युगोस्लाविया का नया राज्य बनाने की सहमति होने पर वह मायूस होकर शांति वार्ता छोड़ गया. जापान को भी योरोप के पचड़ों में कोई दिलचस्पी नहीं थी, तो वह भी अलग हट गया. रह गए तीन महारथी—ब्रिटेन के प्रधान मंत्री लायड ज्यॉर्ज, फ़्रांस के प्रधान ज्यॉर्ज क्लेमेंसो और अमेरिका के राष्ट्रपति वुडरो विल्सन. अपने देश में अत्यंत लोकप्रिय विल्सन आदर्शवादी और स्वप्नदर्शी थे. युद्ध के दौर में, जनवरी, 1918 में ही वे भविष्य के बेहतर विश्व के लिए अपने 14 सूत्रों की घोषणा कर चुके थे जिनके मूलाधार थे राष्ट्रों का आत्म-निर्णय का अधिकार, निरस्त्रीकरण, गुप्त राजनय व गुप्त संधियों का निषेध और विवादों के निपटारे के लिए राष्ट्रसंघ (League of Nations) की स्थापना. इन्हीं चौदह सूत्रों के वादे पर जर्मनी को अक्टूबर, 1918 में युद्ध विराम के लिए उत्प्रेरित किया गया था; उस समय विल्सन और जर्मनी दोनों ने मान लिया था कि सम्मानपूर्ण शर्तों पर जर्मनी को शांति मिल जाएगी और उसे किसी कठोर संधि से दबाया नहीं जाएगा. लेकिन यह नहीं होना था, जर्मनी को धोखा खाना था और युद्ध में कार्पोरल के रूप में भाग ले चुके हिटलर को हेर हिटलर बनना था.
शांति वार्ता में जब राष्ट्रपति विल्सन अपने उदार 14 सूत्रों का हवाला देते थे, विवेकशीलता, विशालहृदयता, स्थाई शांति और न्यायपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की बात करते थे, क्लेमेंसो नींद आने और जँभाई लेने का नाटक करते थे. क्लेमेंसो को अपने देश में ‘टाइगर’ कहा जाता था, उनके लिए पवित्र शब्दों और आदर्शों का कोई अर्थ नहीं था, उनका तो बस एक ही मक़सद था, जर्मनी को इतना दबा दिया जाए कि भविष्य में फिर कभी सर न उठा सके. लॉयड ज्यॉर्ज महीन शब्दजाल बुनने के साथ मौक़ापरस्ती के लिए भी मशहूर थे. अंतत: वे क्लेमेंसों की ओर झुक गए तो विल्सन को मजबूर हो जाना पड़ा. शांतिवार्ता के दौरान कई बार ‘यूरोपी राष्ट्रों के बर्बर रवैये’ से त्रस्त विल्सन को जुगुप्सा से कहना पड़ा था, इन राष्ट्रों को उनके करम पर छोड़कर वे अमेरिका की अलग-थलग रहने की नीति पर लौट जाना चाहते हैं. आख़िर उन्हें लीग ऑफ़ नेशन्स के अलावा कुछ नहीं मिला और उसमें भी अमेरिकी सदस्यता के प्रस्ताव को अमेरिकी सिनेट ने ठुकरा दिया. कुल मिलाकर स्थिति प्रथम विश्व युद्ध के पहले से ज़्यादा विस्फोटक हो गई.
जब जर्मन प्रतिनिधियों ने संधि पर दस्तख़त करने में आनाकानी की तो फ़्रांस ने धमकी दी कि यदि वर्साई में दस्तख़त नहीं होते तो मित्र सेनाएँ बर्लिन की ओर कूच करेंगी और अंतत: उन्हें बर्लिन में दस्तखत करने होंगे. इस तरह जर्मनी का गला दबाकर वर्साई संधि पर उसके दस्तख़त लिए गए.
हिटलर को पाल-पोसकर नाज़ी हिटलर बनाने में फ़्रांस और ब्रिटेन की भूमिका लगभग वैसी ही रही जैसी माँ-बाप की होती है.
(क्रमशः)
कमलकांत त्रिपाठी
Kamlakant tripathi
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