खंड-एक: मुद्राराक्षम् का वैशिष्ट्य—उसका राष्ट्रीय संदर्भ ~
“राज्यं हि नाम राजधर्मानुवृत्तिपरस्य नृपतेर्महदप्रीतिस्थानम्. कुत:?
परार्थानुष्ठाने रहयति नृपं स्वार्थपरता
परित्यक्तस्वार्थो नियतमयथार्थ: क्षितिपति:।
परार्थस्चेत्स्वार्थादभिमततरो हन्त परवान्
परायत्त: प्रीते: कथमिव रसं वेत्ति पुरुष:”॥मुद्राराक्षसम्--3:4॥
[राजधर्म का पालन करने में तत्पर राजा के लिए राज्यकर्म निश्चय ही बेहद कष्ट का विषय है. कैसे?
दूसरों का हित साधने के लिए राजा को अपना हित छोड़ना पड़ता है. अपने इच्छित आमोद-प्रमोद का त्याग करने के लिए विवश राजा किस बात का ‘राजा’ ! यदि उसके लिए दूसरों का प्रयोजन अपने प्रयोजन से अधिक अभीष्ट है, तो वह पराधीन हुआ. और पराधीन व्यक्ति कैसे जान सकता है कि आनंदानुभूति का सुख क्या चीज़ है!]
विशाखदत्त संस्कृत के ऐसे नाटककार हैं जिन्होंने भारतीय नाट्य-परंपरा से हटकर अपना रास्ता ख़ुद बनाया. उनके लिखे तीन नाटकों का संदर्भ मिलता है, लेकिन इनमें से उनका अंतिम और सबसे परिपक्व नाटक ‘मुद्राराक्षसम्’ ही संपूर्ण उपलब्ध है; ‘देवीचंद्रगुप्तम्’ और ‘अभिसारिकवञ्चितकम्’ का अन्य ग्रंथों में ज़िक्र भर आता है, जहाँ इनके अंश उद्धृत हैं. तीनों में से कोई संस्कृत नाट्य-परंपरा के अनुकूल पूर्णत: काल्पनिक चरित्र लेकर लिखे गए प्रकरण (रूपक के दस भेदों में एक) की श्रेणी में नहीं आता। न ही अधिकांश नाट्य रचनाओं की तरह किसी पौराणिक प्रसंग पर लिखे गए ‘नाटक’ की श्रेणी में आता है। तीनों ऐतिहासिक घटना-क्रम पर आधारित हैं और ये तीनों घटना-क्रम ऐसे हैं जो बहुत उदात्त क़िस्म की राष्ट्रीय भावना को पुष्ट करते हैं. इसलिए संस्कृत का एक ‘प्रयोगधर्मी’ नाटककार होने के साथ-साथ विशाखदत्त को इसालिए भी याद किया जाना चाहिए कि उनका एक स्पष्ट राष्ट्रीय क्षितिज है.
मुद्राराक्षसम् चाणक्य और चंद्रगुप्त मौर्य (शा.का. 322-298 ई. पू.) को केंद्र में रखकर लिखा गया उस कालखंड का रूपक है जब चंद्रगुप्त ने चाणक्य के पथ-प्रदर्शन में अत्याचारी और अलोकप्रिय किंतु संयोग से योग्य और कर्तव्यपरायण मंत्रियों एवं सेनानायकों के चलते अत्यंत शक्तिशाली नंदों का विनाशकर अभी-अभी मगध का साम्राज्य हासिल किया है. लेकिन पुराने राजवंश के प्रति स्वामिभक्त समर्थक अभी असंतुष्ट हैं, वे येन-केन-प्रकारेण चन्द्रगुप्त को दृश्य से हटाने, नहीं तो उसका तख़्ता पलटने के लिए प्रयत्नशील हैं. इस संक्रमण के दौर में भीषण षड्यंत्रों और कुचक्रों से नये शासन की स्थिति डाँवाडोल है. असंतुष्टों का नेतृत्व कर रहा है, नंदों का अमात्य-प्रवर और प्रधान सेनापति राक्षस, जो अपने पूर्व-स्वामी के शत्रु का विनाश करने के लिए कुछ भी करने, जान तक देने, को तैयार है. और चाणक्य की एक ही चिंता--जब तक राक्षस-जैसे अखंड स्वामिभक्ति, चारित्रिक दृढ़ता और प्रशासनिक दक्षतावाले व्यक्ति को चंद्रगुप्त का अमात्य-प्रवर नहीं बना दिया जाता, उसकी राजलक्ष्मी स्थिर नहीं हो सकती. उधर राक्षस आर-पार के युद्ध के लिए आमादा है. इसके लिए वह नंदों के विनाश में चंद्रगुप्त का साथ देनेवाले पश्चिमोत्तर के मृत राजा पर्वतक (सिकंदर का पोरस?) के पुत्र मलयकेतु और उसके राज्य के निकटवर्ती पाँच अन्य राज्यों {कुलूत (कलात: बलूचिस्तान), कश्मीर, सिंध, पारसीक (फ़ारस: ईरान) और मलय(?)} के विजातीय राजाओं को मिलाकर मगध पर दुर्धर्ष आक्रमण करने की तैयारी में है. चंद्रगुप्त प्रतियुद्ध के लिए छटपटा रहा है. किंतु चाणक्य युद्ध नहीं चाहता. उसे मालूम है, राक्षस के मार्गदर्शन में मलयकेतु और इन पाँचों राजाओं की सम्मिलित शक्ति चंद्रगुप्त की सेना को कितनी अपूरणीय क्षति पहुँचा सकती है. उससे भी बड़ा कारण यह है कि यदि युद्ध निर्णायक हुआ तो साहसी और निडर योद्धा राक्षस के मारे जाने की पूरी संभावना है. और तब उसे चंद्रगुप्त का अमात्य-प्रवर बनाने की योजना धरी की धरी रह जाएगी, और अमोघ निष्ठा एवं विरल प्रशासनिक गुणोंवाले राक्षस की सेवाओं से राष्ट्र वंचित हो जाएगा. वह तो राक्षस को बुद्धि के प्रयोग से चद्रगुप्त के और उसके माध्यम से राष्ट्र के काम में लगाना चाहता है, जैसे बलशाली जंगली हाथी को बल से नहीं, युक्ति से पकड़कर भार ढोने के काम में लगा दिया जाता है. इसी कठिन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए घात-प्रतिघात का जो लंबा सिलसिला चलता है और दोनों ओर के गुप्तचरों की जो विलक्षण टक्कर होती है, वही इस नाटक की कथावस्तु है. व्यक्तिगत स्वामिभक्ति और स्वामी के शत्रु के प्रति जाग्रत उत्कट द्वेष-भाव के उद्वेग में राष्ट्र के प्रति सुषुप्त पड़ी राक्षस की निष्ठा को जगाने में चाणक्य की सफलता ही नाटक का सुखांत है.
घटना-क्रम के इसी सीमित फलक से उस रीति-नीति का भी ख़ुलासा हो जाता है, जिसके चलते मौर्य सामाज्य थोड़े ही अंतराल में इतना सुदृढ़ और सुशासित बन जाता है कि कुछ ही दिनों बाद सिकंदर के सेनानायकों में से एक, यूनानी आक्रमणकारी सेल्यूकस को हराकर उसे संधि के लिए विवश कर देता है, जिसके तहत आज के बलूचिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान तक का सारा पश्चिमोत्तर भूभाग मौर्य साम्राज्य में शामिल हो जाता है. सेल्यूकस के साथ वैवाहिक एवं दौत्य सम्बन्ध स्थापितकर उधर की सीमा पर स्थाई शांति भी सुनिश्चित कर ली जाती है—यह इतिहास है.
काफ़ी विवादों के बाद अब यह मान लिया गया है कि, विशाखदत्त ईसवी की चौथी-पाँचवीं शताब्दी के प्रतापी, न्यायप्रिय और जनप्रिय शासक चंद्रगुप्त विक्रमादित्य (शा. का. 375-413 ई.) के संरक्षण में लेखन कर रहे थे. मुद्राराक्षसम् के भरतवाक्य (नाटक के अंत में मंगल-पाठ) में जिस पाठभेद ने इस विवाद को जन्म दिया था, उसका सही पाठ अब ‘पार्थिवश्चंद्रगुप्त:’ [(पृथ्वी का) पालन करनेवाला चंद्रगुप्त] सिद्ध हो चुका है, जहां ‘चन्द्रगुप्त’ का अभिप्राय चंद्रगुप्त मौर्य नहीं, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य है. नाटक चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के लिए ही लिखा गया था और उसी की सभा में इसका पहला मंचन हुआ था. तो यह भारत के राष्ट्रीय गौरव के एक युग की कथा है जो राष्ट्रीय गौरव के दूसरे युग में नाट्य-विधा में लिखी गई और अभिनीत हुई. अकारण नहीं कि भारतीय नवजागरण के अग्रदूत भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी अनुवाद और मंचन के लिए संस्कृत के इसी नाटक को चुना था.
मुद्राराक्षसम् के दोनों प्रमुख ऐतिहासिक पात्रों ने मिलकर अपने समय में इस देश को वह बनाने में महती भूमिका अदा की जो यह आज है. चंद्रगुप्त मौर्य, भारतीय इतिहास का पहला ज्ञात सम्राट है, जिसके साम्राज्य में पश्चिमोत्तर के उपरोक्त भूभाग के अलावा उत्तर से दक्षिण तक भारत के अधिसंख्य घटक राज्य (पश्चिम में कलिंग और धुर दक्षिण में चोल, पांड्य और केरल राज्यों को छोड़कर) शामिल थे (अशोक के समय में कलिंग भी शामिल हो गया था). और इस साम्राज्य को खड़ा करने, सुगठित और सुशासित बनाने में यदि किसी एक व्यक्ति का हाथ था तो वह था चाणक्य, जो नाटक का नायक है. चाणक्य के बिना एक राष्ट्र और एक अविच्छिन्न प्राचीन संस्कृति के रूप में भारत का चित्र मुकम्मल नहीं होता. चाणक्य, कौटिल्य, विष्णुगुप्त--जो किसी राजकीय पद के गौरव से दूर, राजकीय सुख-सुविधा से दूर, पारिवारिक या रागात्मक ऊष्मा से दूर, निरंतर, आजीवन इस विशाल भूक्षेत्र की बेहतरी के एकमात्र लक्ष्य के लिए मनसा-वाचा-कर्मणा जूझता रहा--उसके लिए यही गति थी, यही जीवन था और यही मोक्ष था.
और नैतिकता? अंग्रेजी की कहावत ‘End justifies the means’ का इससे उत्कृष्ट उदाहरण नहीं मिलेगा। एक बृहत्तर, दूरगामी लक्ष्य की अपनी नैतिकता होती है, जो नैतिकता के सामान्य मानदंडों को आत्मसात् कर लेती है, नहीं तो ख़ारिज कर देती है. चाणक्य न होता तो चंद्रगुप्त मौर्य न होता और चंद्रगुप्त मौर्य न होता तो उसका पौत्र अशोक न होता. अशोक न होता तो पूरे एशिया में बौद्ध धर्म का विस्तार न होता, एक जनोन्मुख, कल्याणकारी, धर्म-निरपेक्ष राज्य की विशुद्ध भारतीय अवधारणा न होती....नेहरू...विचित्र बात है, मुद्राराक्षसम् पढ़ते हुए नेहरू की याद आती है.
विंसेंट स्मिथ ने भारत के दो महान शासकों—चंद्रगुप्त मौर्य (शा.का. 324-300 ई.पू.) और अकबर (शा.का.1556-1605 ई.)-- की प्रशासनिक उपलब्धियों की तुलना की है:
“The Maurya State (of Chandragupta) was organized elaborately with a full supply of departments and carefully graded officials with well-defined duties. The accounts leave on my mind the impression that it was much better organized than was the Mugul Empire under Akbar, as described in Abul Fazl’s survey. Akbar’s officials, except certain judicial functionaries, all ranked as military officials. Even the underlings in the imperial kitchen were rated and paid as foot soldiers. The bulk of the army was composed of irregular contingents supplied either by subordinate ruling chiefs or by officials with territorial jurisdiction, and the standing army was quite small. The Mauryas, on the contrary, had a regular civil administration and maintained a huge standing army paid directly by the Crown—an instrument of power infinitely more efficient than Akbar’s militia, which failed miserably when confronted with small Portuguese forces, whereas the Maurya was more than a match for Seleukos. The control of the Mauryan central government over distant provinces and subordinate officials appears to have been far more extensive than that exercised by Akbar, who did not possess the terrible secret service of his early predecessor. The Maurya government, in short, was a highly organized and thoroughly efficient autocracy, capable of controlling an empire more extensive than that of Akbar, as long as the sovereign possessed the necessary personal ability.”
(The Oxford History of India, fourth edition, p.100).
यहाँ स्मिथ से एक ही चीज़ छूट गई है. यद्यपि अकबर के नौरत्नों में भी उस समय की विलक्षण प्रतिभाओं का समागम था, उनमें चाणक्य की सूझ-बूझ, त्याग और तेजस्विता वाला कोई नहीं था. राष्ट्र के प्रति इस तरह की एकात्म निष्ठावाला व्यक्तित्व हर युग में पैदा भी नहीं होता. इसमें दो राय नहीं कि चंद्रगुप्त मौर्य की असाधारण प्रशासनिक, कूटनीतिक और राजनयिक उपलब्धियों के पीछे चाणक्य की विलक्षण प्रतिभा, सूझबूझ, त्याग और राष्ट्र के प्रति एकात्म निष्ठा का अनन्य योगदन था।
[कम लोगों को ज्ञात होगा कि अपने देश से अधिक पड़ोसी देश पाकिस्तान के राजनयिक चाणक्य के अर्थशास्त्र, ख़ासकर विदेश नीति पर उसके ‘मंडल सिद्धांत’ (पड़ोसी शत्रु का पड़ोसी या शत्रु हमारा मित्र, वगैरह), का ख़ूब घोंटा लगाते रहे हैं. यही नहीं, वहाँ का पढ़ा-लिखा तबका हिंदू-मानसिकता समझने के लिए दो ही प्रतीक पकड़ता है—चाणक्य और ‘बनिया’ (उनकी निगाह में बनिया माने क्षुद्र, फ़रेबी और अविश्वसनीय, जिसमें वे सारे हिंदुओं को समेट लेते हैं; हाँ, कभी-कभी अनुसूचित जातियों की स्थिति जितनी शोचनीय है उससे कई गुना ज़्यादा शोचनीय बताकर उन्हें पृथक् करने और शायद फोड़ने की कोशिश ज़रूर करते हैं). तो, और चाहे जो हो, चाणक्य का लोहा हमारे दोस्त-दुश्मन सभी मानते हैं.]
जैसा कि पहले कहा गया, मुद्राराक्षसम् लीक से हटकर, अपने-आप में एक अनोखा नाटक है. इसमें कोई नायिका नहीं, कोई धीरोद्दात्त नायक नहीं, नायक का मित्र विदूषक नहीं, प्रेमोपाख्यान नहीं, कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) के शारदीय कौमुदी महोत्सव के प्रसंग में शरद ऋतु-वर्णन को छोड़कर प्रकृति का विस्तृत मनोरम वर्णन नहीं, ललित पदावली नहीं, कविता-कामिनी का उन्मुक्त विलास नहीं, शृंगार रस की मोहक छटा नहीं, वीर रस का गर्जन-तर्जन भी नहीं, लेकिन अर्थ-गर्भित संवाद और विस्मयकारी घटनाचक्र ही इतने रोचक हैं कि आद्यंत बाँधे रखते हैं. राजनीति के कठोर दाँव-पेंच और नायक चाणक्य तथा प्रतिनायक राक्षस (जो अंतत: दूसरे नायक-जैसा ही बन जाता है) के बीच चलता विकट स्नायु-युद्ध (war of nerves) ख़त्म होता है तो एक उदात्त राष्ट्रीय और मानवीय लक्ष्य पूरा हो चुका होता है. राक्षस ने विकटतम प्रतिरोध का जो सरंजाम खड़ा कर रखा है, उसे तार-तार कर दिया जाता है. एक ऐसी मानवीय विडंबना का कृत्रिम सृजन होता है कि दृढ़ चारित्रिक निष्ठा से सम्पन्न राक्षस अपने सच्चे मित्र (चंदनदास) की रक्षा में अपने को उत्सर्ग करने के लिए स्वयं प्रकट हो जाता है और वस्तु-स्थिति से अवगत कराए जाने पर आत्मसमर्पण करके चाणक्य की इच्छानुसार चंद्रगुप्त का अमात्य बनना स्वीकार कर लेता है. इस तरह वह चाणक्य को बृहत्तर फलक पर ज़्यादा व्यापक परामर्श और देश के लिए ज़्यादा सार्थक चिंतन-मनन-लेखन के लिए मुक्त कर देता है. और यह संभव होता है बिना किसी वास्तविक युद्ध या अर्थहीन मारकाट के, मात्र चाणक्य के बुद्धि-कौशल और गुप्तचर-व्यवस्था के सुचारु संचालन से. कुशाग्र बुद्धि को भी छका देनेवाले गुप्तचर-व्यापार से असंभव को संभव बनानेवाली राजनीतिक रणनीति जिस चाक्षुष घटना-क्रम और मानव-व्यवहार के जिस यथार्थपरक किंतु नाटकीय और विडंबनापूर्ण घात-प्रतिघात को जन्म देती है, उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति किसी भी प्रेमोपाख्यान पर भारी पडेगी. राजनीतिक-प्रशासनिक जीवन के यथार्थ में लेखक की गहरी पैठ के बिना यह संभव नहीं हो सकता था.
जैसा कि प्रो. Weber ने उल्लेख किया है, नाट्य-साहित्य में कथा-सूत्र की मुद्राराक्षम् से बेहतर अन्विति का उदाहरण नहीं मिलेगा. नाटक के शुरू में जैसे कोई मछुआरा धीरे-धीरे एक विशाल जाल फैला रहा हो, उसके एक-एक तंतु खोल रहा हो. फिर वह जाल खींचता है तो सारे तंतु सिमटकर एक होने लगते हैं और असाध्य-सा लगता केंद्रीय लक्ष्य अंतत: मूर्तिमान होकर सामने खड़ा है. पानी में डूबे जाल-तंतुओं की तरह ही कथा-सूत्रों का परस्पर अंतर्सम्बंध पहले नहीं दिखता, लेकिन जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ता है, ये अदृश्य और विशृंखलित सूत्र एक समेकित धारा में बहने लगते हैं और कथा-चक्र एक निश्चित दिशा की ओर बढ़ने लगता है. हर घटित के स्वतंत्र अस्तित्व का लोप हो जाता है और अंतिम अंक तक आते-आते सारे सूत्र मिलकर अभीष्ट को प्रस्तुत कर देते हैं.
पहले सोचा, मुद्राराक्षम् का सार-संक्षेप देकर इसका आस्वाद करा दें. लेकिन सार-संक्षेप और मुद्राराक्षसम् का!जिसने भी कोशिश की है, बस बरगलाया है, इस विकट जंगल में वह ख़ुद ही भ्रमित हो गया तो अन्य को क्या मार्ग दिखाएगा ! विशाखदत्त ही जानते हैं कि इस भूलभुलैयावाले सात खंड (नाटक के सात अंक हैं) के महल का कौन-सा दरवाज़ा पहले खोलना है और कितना खोलकर बंद कर देना है और फिर कौन-सा, कितना खोलना है.
फिर जिन लोगों ने संक्षेप किया है अंग्रेजी अनुवाद पढ़कर. और अनुवाद ऐसे कि संस्कृत के अद्भुत् अर्थ-गाम्भीर्य और द्विअर्थक उपमाओं और रूपकों को पकड़ने की कोशिश में अनूदित भाषा की टाँग ही तोड़ देते हैं; लगता है, किसी और ग्रह से उतरी विचित्र वस्त्रालंकारों से लदी एक नई भाषा से साबका पड़ा हो. इस दृष्टि से भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा किया गया मुद्राराक्षसम् का हिंदी अनुवाद कालातीत महत्व का है.
अबसे सार-संक्षेप के लिए या तो ऊबड़-खाबड, दुर्बोध भाषा में किए गए अनुवाद पढ़ो, नहीं तो अपनी भाषा के परिचित मुहावरे में भाव को इस तरह उतारो कि बात भी आ जाए और भाषा भी सहज और सुबोध बनी रहे....कठिन कार्य है.
मुद्राराक्षसम् एक पात्र-बहुल नाटक है. ऐसा नाटक मंच पर देखना एक बात है, पढ़कर, उसके विस्तार में जाकर, उसके ताने-बाने को समझना दूसरी. देखते समय पात्रों के चेहरे, वेश-भूषा, आवाज़ और बोलने के अंदाज़ से उनकी पहचान हो जाती है और दुबारा उनके मंच पर दाख़िल होते ही उनका पहले का किया-धरा याद आ जाता है. पढ़ते समय तो सिर्फ़ नाम का सहारा…..तो सब गड्डमड्ड हो जाता है. उसमें भी मुद्राराक्षसम् की जटिलतम कथा! पहले तो पता करो कि पात्र जिस रूप में सामने है—मंत्री, श्रमण, संन्यासी, राजपुरुष, आम नागरिक--वह वही है या कोई गुप्तचर है. और गुप्तचर है तो किसका--चाणक्य का या राक्षस का. इतने से भी काम नहीं चलनेवाला, गुप्तचर के भीतर भी गुप्तचर हो सकता है, ऊपर से तो वह राक्षस का काम कर रहा है, लेकिन हो सकता है, चाणक्य का आदमी हो. फिर चाणक्य की अपने सभी गुप्तचरों को हिदायत—जो भी संभव हो, करो किंतु राक्षस की जान नहीं जानी चाहिए. तो विस्फोटक बिंदु तक पहुँचने से ठीक पहले वह पैतरा बदल देगा और दूसरी दिशा में काम करने लगेगा. विशाखदत्त जी महाराज ! शिव की इस बारात को आप ही सँभाल सकते थे....
बहुत सोचने-विचारने के बाद एहसास हुआ, औपचारिक फ़ॉर्मेट में अनुवाद करने से बात नहीं बनेगी. तो अपनी समझ से जैसे भी हो, नाटक की आत्मा का, उसमें निहित दृष्टि का, उसकी निर्मिति में अनुस्यूत प्रतिभा का, कुछ दीदार करा सकूँ, बस. नाटक के घटना-काल और रचनाकाल-में इस देश की मनीषा क्या थी, इसकी सोच क्या थी, इसका रहन-सहन कैसा था, जिसे आज idea of India कहते हैं उस वक़्त उसका तसव्वुर क्या था ? इधर कुछ बहुत प्रखर बौद्धिक इस मुद्दे पर एकमत हो गए हैं कि भारतीय इतिहास के मध्ययुग से पहले महात्मा बुद्ध के अलावा जो कुछ भी था, मानव-विरोधी कूड़ा-करकट था जिसे शोषण और उत्पीड़न के लिए बहुत चालाकी से सँजोया गया था. अस्तु, पूरे नाटक का, कुछ काट-छाँट के साथ, (अपनी समझ से) किया गया मंतव्यानुवाद या भावानुवाद ही (इच्छुक पाठकों के लिए) क्रमवार उपलब्ध कराने का लक्ष्य है।
(क्रमश:)
कमलाकांत त्रिपाठी
Kamala kant Tripathi
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