Thursday, 1 September 2022

कनक तिवारी / उदार गांधी की नज़र में सावरकर-कथा (4)


(19)  गांधी की नज़र से हिन्दू महासभा और उसके नेताओं (जिनमें प्रमुख सावरकर ही थे) की गतिविधियां ओझल नहीं होती थीं। गांधी की कालजयी, वस्तुपरक और सयानी नस्ल की टिप्पणियां भारतीय इतिहास का अनिवार्य हिस्सा हैं। उन्हें उनके वक्त की घटनाओं के संदर्भ से अलग कर समझने की कोशिश इतिहास को ही समझने की कोशिश के साथ अन्याय होता है। इसलिए बीसवीं सदी के भारत के सबसे बड़े विचारक और मसीहा की राय को आज भी यदि तटस्थ लेकिन उर्वर समझ में लाना हो तो शब्दकृपण लेकिन भाव से भरपूर गांधी के लफ़्ज इतिहास के कूडे़दान पर जो लोग फेंकने की कोशिश करते हैं, वे अपने मुंह मिया मिट्ठू तो बन सकते हैं, लेकिन वक्त उनकी हैसियत को खुद ही समझा देता है। 

(20) ‘यंग इंडिया‘ के अपने लेख 26 मई, 1920 के बाद भी गांधी हिन्दू महासभा और सावरकर को लेकर आज़ादी के दौर में उनके लिए प्रशंसा के विशेषण इस्तेमाल करने में कई तरह के अलंकारों की भाषा में उनके यथार्थ को बूझते हैं। मसलन 4 मार्च, 1926 को गांधी ने अपने नोट्स में लिखा कि लंदन में श्याजीकृष्ण वर्मा और विनायक दामोदर सावरकर से मिले थे। तो वे दोनों गांधी को गीता और रामायण की समझ के उलट भावार्थ समझाना चाहते थे। अपने विनोद की अभिव्यक्ति में गांधी कहते हैं कि ऋषि वेदव्यास को चाहिए था कि वे युद्ध के बदले कोई और रूपक गढ़ते। उससे रामायण और गीता का जनोपयोगी भावार्थ और अभीष्ट संदेश पीढ़ि़यों को मिल सकता। व्यंग्य में गांधी कहते हैं जब इन जैसे पढे़ लिखे लोगों तक को रामायण और गीता का भाष्य उलट तरह समझ आता है। तब साधारण पाठकों के बारे में क्या कहा जाए। इसी तरह उनकी नज़र सभी शास्त्रों और उपनिषदों को खंगाल कर गलत हासिल ही निकालती रहेगी। 

(21)  गांधी ने अलबत्ता सावरकर द्वारा रत्नागिरि में किए गए समाजसेवा के काम की तारीफ की थी। यह अफवाह उड़ाई जाती है कि गांधी ने सावरकर की माफी के लिए हस्ताक्षर किए थे अथवा सावरकर ने गांधी के उकसावे पर माफीनामे लिखे थे। 20 जुलाई, 1937 को शंकरराव देव को लिखे पत्र में गांधी ने साफ लिखा कि मैंने सावरकर की रिहाई के संबंध में उनके पक्ष में किसी दस्तावेज पर दस्तखत नहीं किए क्योंकि सावरकर तो यूं ही छूटने वाले थे। इसी बीच नया अधिनियम लागू जो हो गया था और इसलिए वे छोड़ ही दिए गए। गांधी ने स्पष्ट किया कि सावरकर बंधुओं और मेरे बीच निश्चित रूप से मतभेद हैं लेकिन उनकी रिहाई में अनावश्यक विलंब संबंधी कानूनी रुकावटों को लेकर मेरी कानूनसम्मत राय रही है। 

(22) सियासत के छोटे छोटे सवाल भी गांधी के जेहन से बाहर नहीं होते थे। सावरकर और हिन्दू महासभा की गतिविधियों से आज़ादी के योद्धा गांधी का सरोकार होना स्वाभाविक था। 2 नवम्बर, 1939 को लंदन में हाउस आफ लाॅर्ड्स में लाॅर्ड जेटलैंड ने कांग्रेस को हिन्दुओं की संस्था कह दिया था। गलतबयानी के कटाक्ष से विचलित गांधी ने ‘मैंचेस्टर गार्जियन‘ के भारत स्थित सम्वाददाता को दी गई भेंट में कहा कि वे लाॅर्ड जेटलैण्ड के कथन से अचंभित रह गए हैं।....कांग्रेस में अलबत्ता अधिकतर हिन्दू हैं तो। फिर भी सभी वर्गों और धर्मों के बहुत सारे हिंदुस्तानी उसमें शामिल हैं।....कांग्रेस कभी भी मजहबी नस्ल की पार्टी नहीं रही। जेटलैंड ने हिन्दू महासभा को लेकर तो कुछ नहीं कहा। 

(23) गांधी कुटिल साम्राज्यवादी खतरा और साजिश सूंघ लेते हैं और दो टूक कहते हैं ‘‘हिन्दू महासभा एक साम्प्रदायिक संस्था है। इसकी स्थापना इसलिए की गई है कि भद्र कुलीन हिन्दुओं की भी यह धारणा थी कि कांग्रेस हिन्दुओं के विशेषाधिकारों की रक्षा नहीं करती और न कर सकती है।‘‘.              यह थी तीक्ष्ण बुद्धि गांधी की विस्फोटक लगते बयान पर तात्कालिक प्रतिक्रिया। इतिहास ने गांधी को बीज बुद्धि दी थी। उन्हें अहसास था हिन्दू महासभा और सावरकर से उनका क्या रिश्ता बनेगा।
(जारी)

कनक तिवारी
(Kanak Tiwari) 

उदार गांधी की नज़र में सावरकर-कथा (3) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/3.html 

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