मुद्राराक्षसम् का संक्षिप्त भावानुवाद: चतुर्थ अंक ~
मुद्राराक्षसम् के इस अंक की कथा-भूमि दूसरे अंक की तरह मलयकेतु की राजधानी है. इसका कथा-सूत्र भी दूसरे अंक से जुड़ा हुआ है. उस अंक के अंत में राक्षस ने सर्प-जीवी बने गुप्तचर विराधगुप्त के माध्यम से कुसुमपुर में चारण बनकर रह रहे अपने ख़ास व्यक्ति स्तनकलश को संदेश भेजा था कि चाणक्य द्वारा चंद्रगुप्त की आज्ञाओं के उल्लंघन के विषय में उत्तेजित करनेवाले श्लोकों से वह उसका स्तुतिगान करे. स्तनकलश को उसने यह भी कहलवाया था कि उसके प्रयास का जो परिणाम निकले, उसकी सूचना गुप्त रूप से गुप्तचर करभक के माध्यम से उसके पास भेजे. दूसरे अंक के अंत में ही उसने अपने स्वगत कथन में करभक को कुसुमपुर भेजने का ज़िक्र करते हुए अपनी इस भेद-नीति की संभावित सफलता के आधार का ख़ुलासा भी किया था. उसका आकलन था कि मगध-विजय के बाद चाणक्य और चंद्रगुप्त दोनों अपनी-अपनी सफलता के अहंकार में डूबे होंगे, ऐसे में जब चंद्रगुप्त के सहयोग से नंदों का विनाश करने की चाणक्य की प्रतिज्ञा पूरी हो गई है, वह चंद्रगुप्त का तेज बर्दाश्त नहीं कर पायेगा और अवसर मिलते ही दोनों की मित्रता टूट जाएगी. उसकी योजना इसी अवसर का सृजन करने की थी.
चौथे अंक की शुरुआत कुसुमपुर से राक्षस की भेद-नीति के हासिल की सूचना लेकर उसके पास आए गुप्तचर करभक के मंच-प्रवेश से होती है.
चिंतामग्न राक्षस रात भर सो नहीं पाया है. सिरदर्द से पीड़ित है. बाईं आँख फड़कने से अशुभ का संकेत मिलता है. पर वह सब कुछ भूलकर अपने उद्योग को आगे बढ़ाने के लिए कृतसंकल्प है. वह शयनकक्ष में ही अपने पहले के सचिव शकटदास (कायस्थ) के साथ पर बैठा हुआ है जब द्वारपाल से करभक के आने की सूचना मिलती है. उसे वहीं बुला लेता है. लेकिन करभक को देखकर उसे याद नहीं आता कि किस कार्य के लिए उसे नियुक्त किया था (चाणक्य की विलक्षण स्मृति और सतत चौकन्नेपन के बरअक्स राक्षस की कमज़ोरी एकाधिक बार सामने आती है).
तभी राजपुरुष द्वारा दर्शकों को सूचना मिलती है कि कुमार मलयकेतु शिर की व्यथा से पीड़ित अमात्य राक्षस को देखने इधर ही आ रहे हैं. मंत्री भागुरायण और कंचुकी जाजलि के साथ मलयकेतु का मंच पर (पृथक्, पार्श्व में) प्रवेश. ज्ञात होता है कि मलयकेतु के पीछे-पीछे पाँचों सहयोगी राजा भी आ रहे हैं किंतु वह कंचुकी को भेजकर उनसे निवेदन करता है कि वे कष्ट न उठाएँ, क्योंकि वह अचानक बिना सूचना दिए आया है और अकेला ही अमात्य राक्षस से मिलना चाहता है. वे लौट जाते हैं. अब मलयकेतु अनुचरों के साथ कंचुकी को भी लौटा देता है. मंच के पार्श्व में मलयकेतु और भागुरायण रह जाते हैं, जो परस्पर बातें कर रहे हैं.
भागुरायण, मगध की पैदल सेना के सेनापति का छोटा भाई. पहले अंक में वध-स्थल से भागते शकटदास और (गुप्तचर) सिद्धार्थक को पकड़ने भेजा गया था, लेकिन उनका पीछा करता हुआ वह स्वयं भी भाग निकला था. चंद्रगुप्त के उन आठ अधिकारियों में वह सबसे प्रमुख है जो कुसुमपुर से भागकर मलयकेतु के यहाँ शरण लिए हुए हैं. लेकिन दर्शक असलियत जानते हैं. ये सभी चाणक्य की गुप्त योजना के तहत मलयकेतु के यहाँ रहकर चाणक्य का ही काम कर रहे हैं. भागुरायण तो कुसुमपुर में ही मलयकेतु का विश्वासपात्र बन गया था और अब यहाँ उसका मंत्री बन गया है. उसकी भूमिका बेहद अहम पर बेहद नाज़ुक. उसका मक़सद है बाक़ी सातों अधिकारियों की मदद से मलयकेतु और राक्षस के बीच अविश्वास और विद्वेष का बीज बोना, लेकिन इतनी बारीकी से कि मलयकेतु को इसकी हवा तक न लगे और भागुरायण पर उसका विश्वास अडिग बना रहे. छुरी की धार पर चलना है. उसकी परीक्षा तो है ही, इस सूक्ष्म लक्ष्य की ओर उन्मुख त्रुटिहीन संवादों के सृजन में विशाखदत्त के नाटककार की परीक्षा भी है, जो पाँचवें और छठे अंकों में भी चलती रहेगी, बल्कि और भी दुस्तर होती जाएगी.
मलयकेतु: भद्रभट वगैरह (चंद्रगुप्त के सात अधिकारियों) ने आकर मुझसे कहा कि वे मेरे आश्रय में इसलिए नहीं आये कि अमात्य राक्षस ने उन्हें अपने आश्रय लायक समझा, बल्कि वे तो चाणक्य के चंगुल में फँसे चंद्रगुप्त से विरक्त होकर, मेरे प्रशस्त गुणों के चलते, मेरे सेनापति शिखरसेन के माध्यम से मेरे आश्रय में आए हैं. बहुत देर तक विचार करने के बाद भी इस वाक्य का अर्थ मुझे समझ में नहीं आया.
भागुरायण: समझना कठिन तो नहीं लगता, कुमार. आश्रय देने लायक व्यक्ति का आश्रय उसके प्रिय और हितैषी व्यक्तियों के माध्यम से ही लेना चाहिए.
मलयकेतु: किंतु मित्र भागुरायण, अमात्य राक्षस तो हमारे सर्वाधिक प्रिय और हितैषी हैं.
भागुरायण: इसमें कोई संदेह नहीं. लेकिन अमात्य राक्षस का वैर तो चाणक्य से है, चंद्रगुप्त से नहीं. यदि कभी चंद्रगुप्त सफलता से गर्वोन्नत हुए चाणक्य को बर्दाश्त न कर पाने के कारण अमात्य पद से हटा देता है और अमात्य राक्षस उससे संधि कर लेते हैं तो? भद्रभट वगैरह का आशय यही हो सकता है कि ऐसा होने पर कुमार उन पर अविश्वास न करें….और यह स्थिति कोई असंभव भी नहीं. चंद्रगुप्त आख़िर है तो नंदवंश का ही, जिस वंश के प्रति राक्षस की निष्ठा अटूट है, और तब चंद्रगुप्त के लिए भी वंश-परंपरा को क़ायम रखना सुविधाजनक होगा.
[मुद्राराक्षसम् में संकेत उपलब्ध है (2:8) कि चंद्रगुप्त अंतिम नंद राजा का दासी-पुत्र (इसलिए अकुलीन, वृषल) है, जिसे व्याघ्र-शावक की तरह पालकर वे वंश-सहित नष्ट हो गए. इतिहास भी इस प्रमेय को ख़ारिज नहीं कर पाया है, जब कि बौद्ध परंपरा उसे पिप्पलिवन का मोरिय (संस्कृत ‘मौर्य’ का पाली रूप) क्षत्रिय बताती है (पिप्पलिवन के मोरियों को महात्मा बुद्ध की अस्थियों का एक हिस्सा मिला था) और जैन परंपरा भी उसे क्षत्रिय-कुल का बताती है. जाति और वर्ण के आधारभूत निषेध के बावजूद बौद्ध और जैन परंपराएँ जाति-वर्णगत पूर्वाग्रह से मुक्त हो पाईं? ईश्वर जानें.]
चंद्रगुप्त के प्रति विशाखदत्त की इसी साफ़गोई के चलते विद्वान लोग मुद्राराक्षसम् के भरतवाक्य में ‘पार्थिवश्चंद्रगुप्त:’ को चंद्रगुप्त मौर्य के बजाए चंद्रगुप्त विक्रमादित्य से जोड़ते हैं, और विशाखदत्त को 700 साल बाद के समय में ढकेल देते हैं. मेरी विनीत राय में नाटक चाहे जिस युग में लिखा गया हो, भरतवाक्य में पूर्वविवादित अंश का सही पाठ ‘पार्थिवश्चंद्रगुप्त:’ तो होगा ही, इसमें चंद्रगुप्त का तात्पर्य चंद्रगुप्त मौर्य से ही होगा. जब पूरे नाटक की भावभूमि उस युग की है तो भरतवाक्य को समकालीन राजा से जोड़ने के लिए उसमें पैबंद लगाने की इस चाटुकारी नीयत का आरोपण क्यों? यह तो विशाखदत्त को मुद्राराक्षसम् की हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार करनेवाले उन महानुभावों की श्रेणी में ही रखना हुआ, जिनके द्वारा किए गए पाठभेद के चलते यह विवाद खड़ा हुआ. विवाद का आधार ही बेबुनियाद है. लेकिन ‘विद्वानों’ की महिमा! लगता है, वे ख़ुद नाटक लिखते तो अपने समकालीन शासकवर्ग की चाटुकारिता में ऐसा पैबंद ज़रूर लगा देते. यह तो भारतीय परंपरा की बहुत बचकानी समझ हुई. नाटक में डूबकर जो मिले उसे ग्रहण करें या अपनी ओर से नई उद्भावना दें, विशाखदत्त के पीछे डंडा लेकर क्यों पड़े हैं, उन्होंने अपने बारे में जितना बता दिया, बता दिया. आख़िर काल और स्थान तो अध्यासी ही हैं.]
राक्षस का घर आ जाता है. दोनों उसमें प्रवेश करने लगते हैं, तभी भीतर से राक्षस की आवाज़ सुनाई पड़ती है. अब तक गुप्तचर करभक का संदर्भ राक्षस को याद आ गया है और वह उससे पूछ रहा है—तुम कुसुमपुर में स्तनकलश से मिले थे? करभक हाँ कहकर आश्वस्त करता है.
मलयकेतु: (भीतर हो रही बात सुनकर) भागुरायण, कुसुमपुर का समाचार चल रहा है. यहीं से सुनते हैं. बात यह है कि राजा (यहाँ मलयकेतु) का उत्साह भंग न हो, इसलिए मंत्री लोग (यहाँ राक्षस) उसके सामने वह सब नहीं कहते जो स्वच्छंद बातचीत में कह देते हैं.
अब एक विडंबनात्मक नाट्य-तत्व का समावेश होता है. राक्षस और उसके मुलाक़ातियों के बीच चल रहे वार्तालाप के साथ-साथ मलयकेतु और भागुरायण का वार्तालाप भी एक-दूसरे से चलेगा, लेकिन पृथक्-पृथक्. मलयकेतु और भागुरायण तो राक्षस का वार्तालाप सुन रहे हैं, लेकिन राक्षस और उसके मुलाक़ाती मलयकेतु और भागुरायण का वार्तालाप नहीं सुन रहे. यह प्रयोग नया नहीं है लेकिन विशाखदत्त द्वारा इसका निर्वाह जिस कुशलता से और जिस सूक्ष्म अर्थ-व्यंजना के साथ किया गया है, वह नायाब है. पाठकों की सुविधा के लिए यहाँ रेखाएँ खींचकर पृथक्करण किया गया है.
(याद रहे, भागुरायण का लक्ष्य राक्षस और मलयकेतु के बीच संदेह और विच्छेद उत्पन्न करना है किंतु इतनी बारीकी से कि ख़ुद उस पर संदेह न हो जाए।]
राक्षस: (करभक से) भद्र, वह कार्य सिद्ध हुआ?
करभक: आपकी कृपा से अच्छी तरह सिद्ध हुआ.
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मलयकेतु: मित्र भागुरायण, वह कौन-सा कार्य है?
भागुरायण: यह वृतांत तो गूढ़ है. इतने भर से समझ में नहीं आ रहा. कुमार सावधान होकर सुनें.
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राक्षस: भद्र, विस्तार से सुनना चाहता हूँ.
करभक: अमात्य ने मुझे आदेश दिया था कि मैं कुसुमपुर जाकर चारण स्तनकलश से मिलूँ और आपकी ओर से उससे कहूँ कि चाणक्य द्वारा चंद्रगुप्त के आदेशों का उल्लंघन किए जाने पर वह चंद्रगुप्त को भड़काने वाले श्लोकों से उसका स्तुतिगान करे।
राक्षस: फिर क्या हुआ?
करभक: फिर राजा ने कौमुदी महोत्सव मनाए जाने की घोषणा कर दी, जिससे नंद-कुल के विनाश से दुखी पुरवासी बहुत प्रसन्न हुए.
राक्षस: उसके बाद?
करभक: उसके बाद दुष्ट चाणक्य ने उसे रोक दिया. फिर तो स्तनकलश द्वारा चंद्रगुप्त को उत्तेजित करनेवाला स्तुतिगान शुरू कर दिया गया।
राक्षस :किस तरह?
करभक: (अंक तीन में उद्धृत) स्तनकलश के स्तुतिगान वाले दोनों श्लोकों का पाठ करता है.
राक्षस: (प्रसन्नता से) वाह स्तनकलश, वाह! ठीक समय पर भेद का बीज बोया. साधारण जन भी आनंद के अकस्मात् व्याघात को सहन नहीं कर पाते, इतना तेज धारण करनेवाला राजा क्या कर पाएगा !
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मलयकेतु: अमात्य ने ठीक कहा. ऐसा ही होता है.
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राक्षस: उसके बाद, उसके बाद क्या हुआ ?
करभक: उसके बाद राजा ने आपके गुणों की प्रशंसा करते हुए दुष्ट चाणक्य को अमात्य पद से हटा दिया.
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मलयकेतु: मित्र भागुरायण, चंद्रगुप्त ने अमात्य के गुणों की प्रशंसा कर राक्षस के प्रति भक्ति दिखाई है.
भागुरायण: गुणों की प्रशंसा से उतनी नहीं, जितनी दुष्ट चाणक्य को हटाने से.
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राक्षस: करभक, कौमुदी महोत्सव रोके जाने से ही चंद्रगुप्त इतना नाराज़ हो गया या और भी कोई कारण है ?
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मलयकेतु: मित्र भागुरायण, अमात्य राक्षस चंद्रगुप्त के क्रोध का दूसरा कारण खोजने में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहे हैं?
भागुरारण: बुद्धिमान चाणक्य बिना किसी बड़े कारण के चंद्रगुप्त को क्रुद्ध नहीं करेगा, न चंद्रगुप्त उसके गौरव का उल्लंघन करेगा. कोई और बड़ा कारण होगा, जो भी हो, दोनों में विलगाव होगा तो वह स्थाई ही होगा.
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करभक: दूसरा कारण भी है. वह यह कि मलयकेतु और राक्षस वहाँ से भागते समय पकड़े क्यों नहीं गए?
राक्षस: (अति प्रसन्न होकर) मित्र शकटदास, अब आ गया चंद्रगुप्त हमारी मुट्ठी में. अब चंदनदास की मुक्ति और तुम्हारा अपने स्त्री-बच्चों से मिलना निश्चित है.
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मलयकेतु: मित्र भागुरायण, ‘मुट्ठी में आ गया’ का क्या मतलब?
भागुरायण: चंद्रगुप्त को उख़ाड़ फेंकना तो कतई नहीं. चाणक्य से अलग हुए चंद्रगुप्त को अमात्य द्वारा उखाड़ने का कोई मतलब भी नहीं. तो मुट्ठी में आने का एक ही मतलब हुआ...
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राक्षस: चाणक्य इस समय है कहाँ?
करभक: पाटलिपुत्र (कुसुमपुर) में ही.
राक्षस: वहीं रह रहा है? तपोवन नहीं गया ? फिर से (इस बार चंद्रगुप्त के) विनाश की प्रतिज्ञा नहीं की?
करभक: सुना है कि तपोवन जा सकता है.
राक्षस : यह तो ठीक नहीं लगता. जब पृथ्वीपति महाराज नंद का तिरस्कार उससे बर्दाश्त नहीं हुआ तो उसी के द्वारा राजा बनाए गए चंद्रगुप्त का कैसे होगा!
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मलयकेतु: मित्र भागुरायण, चाणक्य के तपोवन जाने या चंद्रगुप्त के विनाश की प्रतिज्ञा करने में इन्हें क्या स्वार्थ दिख रहा है?
भागुरायण: समझना बहुत कठिन नहीं है, कुमार. चंद्रगुप्त से चाणक्य जितनी दूर जाएगा, अमात्य राक्षस का स्वार्थ उतना ही पूरा होगा.
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शकटदास: (राक्षस से) छोड़िए अमात्य. जो भी हुआ, ठीक हुआ. पिछली बार प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए चाणक्य को मारणादि क्रिया में जो कष्ट हुआ था, उसके डर से अब दुबारा प्रतिज्ञा नहीं करेगा.
राक्षस: यह भी ठीक है, मित्र शकटदास.... तो जाओ, करभक के विश्राम की व्यवस्था करो....मैं अब कुमार (मलयकेतु) को देखना चाहता हूँ.
मलयकेतु: (आगे बढ़कर) मैं ही आर्य को देखने आ गया.
राक्षस: अरे...बैठिए-बैठिए.
मलयकेतु: आर्य आपके सिर की पीड़ा कैसी है ?
राक्षस: अब तो जब हम कुमार को अधिराज कहेंगे तभी यह पीड़ा दूर होगी.
मलयकेतु: आर्य ने मान लिया तो हो ही जाएगा...अब हम और कब तक आक्रमण के लिए शत्रु की विपत्ति की प्रतीक्षा करेंगे, आर्य?
राक्षस: अब समय गँवाने का अवसर नहीं है. विजय के लिए प्रस्थान कीजिए.
मलयकेतु: शत्रु के संकट का कोई समाचार मिला है क्या?
राक्षस: हाँ मिला है.
मलयकेतु: क्या है?
राक्षस: मंत्रिसंकट. चंद्रगुप्त चाणक्य से पृथक् हो गया.
मलयकेतु: आर्य, मंत्रिसंकट तो कोई बड़ा संकट नहीं है.
राक्षस: और राजाओं के लिए न होगा, चंद्रगुप्त के लिए है.
मलयकेतु: मुझे तो नहीं लगता आर्य. चंद्रगुप्त के प्रति प्रजाओं में जो असंतोष है, वह चाणक्य के ही कारण है. उसके निकाल दिए जाने के बाद अब वे चंद्रगुप्त पर अनुरक्त हो जाएँगी.
राक्षस: ऐसा नहीं है, कुमार. प्रजाएँ दो तरह की हैं. एक, जो नंद के विनाश से प्रसन्न हैं, दूसरी, जो नंद के प्रति अनुरक्त हैं. दूसरी तरह की प्रजाएँ अपने ही पितृकुल को नष्ट करनेवाले चंद्रगुप्त से बहुत रुष्ट हैं, लेकिन कोई विकल्प न होने से उसका अनुसरण कर रही हैं. वे चंद्रगुप्त को हराने की शक्ति से सम्पन्न आपको पाकर उसे छोड़कर आपका आश्रय ग्रहण कर लेंगी.
मलयकेतु: तो आर्य, एकमात्र मंत्रिसंकट ही आक्रमण के लिए यथेष्ट है या और भी कोई कारण है?
राक्षस: हैं तो और भी, लेकिन मुख्य वही है.
मलयकेतु: क्या चंद्रगुप्त यह (अमात्यप्रवर का) दायित्व किसी और को देकर या ख़ुद लेकर समाहार नहीं निकाल सकता?
राक्षस: नहीं. जो राजा अपने हाथ में अधिकार रखते हैं, या मंत्री का सहयोग लेकर काम करते हैं, उनसे संभव है. लेकिन जो चंद्रगुप्त की तरह मंत्री के हाथ में अधिकार समर्पित कर देते हैं, उनसे नहीं. राजशक्ति और मंत्रिशक्ति के दो पैरों पर खड़ी राजलक्ष्मी, राजा और मंत्री में परस्पर भेद होने पर, स्थिर न रह पाने के कारण, उनमें से एक को छोड़ देती है. मंत्री पर आश्रित होने से लोक-व्यवहार को न देख पाने के कारण मंदबुद्धि हुआ राजा उससे पृथक् होने पर माँ के स्तन से अलग किए गए दुधमुँहे बच्चे की तरह जीवित नहीं रह सकता.
[यह आज से दो हज़ार तीन सौ साल पहले की कथा है (चंद्रगुप्त मौर्य का शासनकाल 322-24—298-300 ई.पू.) और इसका स्वीकृत रचनाकाल चौथी-पांचवीं शताब्दी (चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का शासनकाल 375-413 ई.) है. राजतंत्र में शासन-परिवर्तन की सफलता को लेकर प्रजा की अनुरक्ति-विरक्ति पर इतना गहन चिंतन और राजशक्ति एवं मंत्रिशक्ति के सम्यक् संतुलन पर इतना समीचीन विचार उस युग के विश्व-साहित्य में अन्यत्र शायद ही मिले.]
इस तरह भागुरायण द्वारा मलयकेतु के दिमाग़ में संदेह का कीड़ा भर देने के कारण वह काफ़ी तर्क-वितर्क के बाद ही राक्षस की आक्रमण करने की मंत्रणा को स्वीकार करता है. स्वीकृति के बाद शीग्रातिशीघ्र प्रयाण का आदेश दे देता है—
उत्तुंङ्गास्तुङ्गकूलं स्रुतमदसलिला: प्रस्यन्दिसलिलं
श्यामा: श्यामोपकण्ठद्रुममलिमुखरा: कल्लोलमुखरम्।
स्रोत:खातावसीदत्तटमुरुदशनैरुत्सादिततटा:
शोणं सिंदूरशोणा मम गजपतयो पास्यंति शतश:॥4:16॥
गम्भीरगर्जितरवा: स्वमदाम्बुमिश्रम्
आसारवर्षमिव शीकरमुद्गिरन्त्य:।
विंध्यं विकीर्णसलिला इव मेघमाला
रुन्धन्तु वारणघटा नगरं मदीया:॥4:17॥
[ मेरे अतिविशालकाय सैकड़ों श्यामवर्ण किंतु सिंदूर से पुते होने से लाल, बड़े-बड़े दाँतों से नदी-तट तोड़ने में समर्थ, गजराज, जो मदजल बहानेवाले हैं और मदजल की सुगंध के कारण भौंरों से घिरे हुए गुंजायमान हैं, शोण नद (सोन नदी) के जल को पी डालें. शोण नद जो ऊँची उठती तरंगों से शब्दायमान जल-प्रवाह के आघात से खोखले किए गए और रह-रहकर गिरते ऊंचे तटों और किनारे की हरित वृक्ष-पंक्तियों से शोभायमान है {कुसुमपुर (बाद का पाटलिपुत्र) सोन और गंगा के संगम पर स्थित था, तब से सोन रास्ता बदलकर पटना से काफ़ी पहले गंगा में मिल जाती है; पश्चिमोत्तर से आनेवाली सेना को सोन पारकर ही कुसुमपुर पहुँचना होता}.
चिंघाडने की गम्भीर ध्वनि करते और अपने मदजल से मिश्रित जलकणों की बारिश करते मेरे हाथियों की घटाएँ कुसुमपुर नगर को वैसे ही घेर लें जैसे मूसलाधार बारिश करनेवाले बादलों की घटाएँ विंध्याचल को घेर लेती हैं.]
भागुरायण के साथ मलयकेतु के निकल जाने पर राक्षस आक्रमण की तिथि तय करने के लिए एक राजकर्मी को आसपास से कोई ज्योतिषी बुलाने का आदेश देता है। राजपुरुष जिसे साथ लेकर आता है वह और कोई नहीं, बौद्ध भिक्षु (क्षपणक) बनकर राक्षस का विश्वास जीतनेवाला चाणक्य का गुप्तचर जीवसिद्धि है, जो पहले अंक में (दिखावे के लिए) कुसुमपुर से निकाले जाने के बाद, यहीं आकर डट गया है. वस्तुत: वह चाणक्य का सहपाठी रह चुके होने से उसका अति विश्वासपात्र है. उसी ने राक्षस द्वारा चंद्रगुप्त की हत्या के लिए नियुक्त विषकन्या को गुमराहकर पर्वतक के पास पहुंचा दिया था. वह ज्योतिष का भी ज्ञाता है. उसे देखकर राक्षस को अपशकुन का आभास होता है—क्या क्षपणक ही मिला था! यह तत्कालीन समाज में बौद्ध भिक्षुओं के प्रति कुछ पूर्वाग्रह का सूचक हो सकता है। जीवसिद्धि द्वारा दिया गया आशीर्वचन भी उस युग में बौद्ध भिक्षुओं की सामाजिक स्थिति की एक झलक देता है—
‘अज्ञानरूपी रोगों के लिए वैद्यतुल्य बौद्ध भिक्षु की औषधि-रूपी शिक्षा स्वीकार करो, जो क्षण भर के लिए तो (प्रचलित रीतियों और पारंपरिक विश्वासों पर चोट करने के कारण) कटु लगती है किंतु बाद में हितकारी होती है.
वह अपने शोधे हुए मुहूर्त की जो गूढ़ व्याख्या करता है और उसका जो फल बताता है, ज्योतिष-सम्मत हैं, किंतु विचित्र रूप से द्विअर्थक है. एक अर्थ में वे मलयकेतु को विजय दिलानेवाले हैं तो दूसरे और अभिप्रेत अर्थ में चंद्रगुप्त को. लेकिन राक्षस का वास्तविक कल्याण दोनों ही स्थितियों में सुनिश्चित है, जो घटनाओं का पूर्वाकलन-जैसा है. राक्षस भी ज्योतिष का कुछ ज्ञान रखता है, उसे संदेह होता है तो वह दूसरे ज्योतिषी की राय लेने की बात करता है. इस पर जीवसिद्धि थोड़ा रुष्ट होकर कहता है--लग्न भले ही अशुभ हो, सौम्य ग्रह बुध के होने से वह शुभ हो जाता है। गूढार्थ—विद्वान चाणक्य के होने से तुम्हारा तो कल्याण ही होगा।
राक्षस सहायक से समय ज्ञात करने के लिए कहता है तो मालूम होता है कि भगवान सूर्य अस्त होनेवाले हैं. राक्षस बाहर निकलकर देखता है—क्षण भर के लिए अनुरागरूपी लालिमा दिखानेवाले उद्यान-वृक्षों के पत्तों की छाया ऊपर उठते सूरज के साथ दूर तक जाकर सूर्य के अस्तोन्मुख होने पर लौटकर सिमट गई है. जैसे सेवा करते हुए सेवक सम्पत्तिविहीन होने पर स्वामी को छोड़ जाते हैं. यह मलयकेतु के पतन की पूर्व-सूचना-जैसा है.
चौथा अंक इस दुविधाग्रस्त भाव में समाप्त होता है.
..............
(क्रमश:)
कमलाकांत त्रिपाठी
Kamlakant Tripathi
विशाखदत्त का प्रयोगधर्मी नाटक मुद्राराक्षसम् (4)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/4_30.html
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