Friday, 23 September 2022

कमजोर होते बैंक, और आर्थिकी का एक नया संकट / विजय शंकर सिंह

एनडीटीवी की एक खबर के अनुसार, रिजर्व बैंक ने मंगलवार को, बैंकिंग सिस्‍टम में करीब 22 हजार करोड़ रुपये की पूंजी डाली है और इससे एक नया संकट भी उजागर हो गया है। आरबीआई ने कहा कि 40 महीने में पहली बार बैंकों के पास पूंजी की कमी आई है और उनका सरप्‍लस भी तेजी से घट रहा है। इसका कारण, कर्ज की बढ़ती मांग और विभिन्न जमाओ, (डिपॉजिट्स) में कमी आना है। 

बैंको की पूंजी या उनका डिपॉजिट्स घट क्यों रहा है और अचानक उससे कर्जों की मांग बढने कैसे लगी है इस पर अर्थशास्त्र के जानकर, नजर रख रहे होंगे, पर लगातार डिपॉजिट्स घटने का एक बड़ा कारण यह भी है, बचत के मनोविज्ञान से प्रभावित, भारतीय जन मानस के पास अब, पैसा बच नहीं रहा है, जिससे वह अपनी पूंजी, बैंको में जमा कर खुद, और बैंको के लिए भी धन एकत्र कर सके। निश्चित ही लोगों की आय कम हुई है, व्यय बढ़ा है और अंग्रेजी में कहें तो, हैंड टू माउथ की यह स्थिति धीरे धीरे पसर रही है। 

अगर एक सामान्य दृष्टिकोण से देखें तो पिछले 8 सालों में बैंको ने पूंजीपतियों के जितने कर्ज एनपीए किए हैं, उससे उनका न केवल खजाना खाली हो रहा है, बल्कि एनपीए करने और कर्ज वसूल न करने के कारण बैंकों की आय भी घट रही है। इसका सीधा असर, बैंको की सेहत पर पड़ रहा है, जिसे आरबीआई अब किसी तरह से बैंकों को संभालने में लगी है। 

अब एक नजर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री कार्यकाल में, बैंको द्वारा किए गए ऋणों पर आरबीआई की इस रिपोर्ट पर डालें। यह रिपोर्ट 2021 तक के बैंको के एनपीए के बारे में है। आरबीआई के अनुसार, 'नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए शासन के तहत सकल गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए), यूपीए के पिछले छह वर्षों के दौरान खराब ऋणों के कारण बैंकों की तुलना में लगभग 365 प्रतिशत अधिक है। 

बैंकिंग शब्दावली के अनुसार, 'सकल एनपीए बैंकों द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द है जो किसी भी अवैतनिक ऋण के योग को संदर्भित करता है, जिसे गैर-निष्पादित ऋण के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।' यह एक प्रकार से कर्ज माफी ही है क्योंकि जितना ऋण बैंक एनपीए करते हैं उसमे से बेहद कम धनराशि ही बैंक वसूल कर पाते हैं। बस उनका खाता साफ हो जाता है और धीरे धीरे बैंक उस ऋण को भुला देते हैं।। कभी कोई दबाव पड़ा तो वसूली की कार्यवाही शुरू होती है अन्यथा, जो डूब गया सो डूब गया। मैं सैद्धांतिक अर्थशास्त्र या बैंकिंग सिस्टम की बात नहीं बल्कि व्यवहारिक बैंकिंग की बात कर रहा हूं। वित्त राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर ने 2019 में संसद को सूचित किया था, "जैसा कि बट्टे खाते में डाले गए ऋणों के उधारकर्ता, पुनर्भुगतान के लिए उत्तरदायी हैं और बट्टे खाते में डाले गए ऋण खातों में बकाया राशि की वसूली की प्रक्रिया जारी है, राइट-ऑफ से उधारकर्ता को लाभ नहीं होता है।"

इस प्रकार आरबीआई द्वारा बैंको को दी गई यह धनराशि, मई, 2019 के बाद से बैंकों को दी गई सबसे बड़ी रकम है। मुश्किल ये भी है कि इस समय ओवरनाइट रेट्स लगातार बढ़ते जा रहे हैं, जबकि एक दिन का रेट बढ़कर 5.85 फीसदी पहुंच गया है, जो जुलाई 2019 के बाद सबसे ज्‍यादा है। ऐसे में बैंकों के पास फंड जुटाने के विकल्‍प भी महंगे होते जा रहे हैं। आरबीआई के आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि इस समय कर्ज की मांग जहां बढ़ती जा रही है, वहीं बैंक में जमा की दर काफी कम है। 26 अगस्‍त को समाप्‍त सप्‍ताह में बैंकों के कर्ज बांटने की ग्रोथ रेट 15.5 फीसदी थी, जबकि इसी अवधि में जमा की ग्रोथ रेट 9.5 फीसदी रही।

एनडीटीवी की ही खबर आगे कहती है, बैंक इस खाई को पाटने के लिए सरप्‍लस का इस्‍तेमाल करने लगे हैं और इसमें भी तेजी से गिरावट आ रही है। इस साल अप्रैल में जहां बैंकों के पास सरप्‍लस 4.57 लाख करोड़ रुपये का था, वहीं अब यह गिरकर 3.5 लाख करोड़ पर आ गया है। बैंकों में लिक्विडीटी की खपत कितनी तेजी से बढ़ रही है, इसका अंदाजा आरबीआई की ही एक रिपोर्ट से लगाया जा सकता है. इसमें बताया गया है कि जुलाई और अगस्‍त में बैंकों की ओर से आरबीआई के पास जमा की जाने वाली सरप्‍लस फंड की राशि 1 लाख करोड़ रुपये से भी कम हो गई।

सीधा मतलब है कि बैंकों को कर्ज बांटने के लिए और ज्‍यादा फंड चाहिए, जबकि उनके पास जमा के रूप में कम राशि आ रही है। ऐसे में आरबीआई के पास मौजूद फंड ही उनके लिए सहारा बन रहा है। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले दिनों कहा था कि, भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था का भविष्‍य अगले 25 साल के लिए बैंकों के हाथ में है और उन्‍हें बढ़ती कर्ज की मांग को पूरा करने के लिए तैयार रहना होगा। हालांकि, फंड की कमी होने पर बैंकों के पास इसे पूरा करने के लिए फिर सरकार के सामने हाथ फैलाना होगा। केंद्र ने महामारी से पहले सरकारी बैंकों को करीब ₹2 लाख करोड़ दिया था. हालांकि, वित्‍त राज्‍यमंत्री का कहना है कि बैंकों के पास कर्ज बांटने के लिए पर्याप्‍त पूंजी है, लेकिन रिजर्व बैंक की हालिया रिपोर्ट बताती है कि बैंकों के सामने एक बार फिर पूंजी का संकट जल्‍द खड़ा होने वाला है। 

प्रधानमंत्री ने आम जनता को दी जाने वाली सब्सिडी या राहत योजनाओं को रेवड़ी कह कर मजाक बनाया जबकि सरकार ने चिप लगाने के लिए, वेदांता ग्रुप के अनिल अग्रवाल को 76,000 करोड़ रुपए की सहायता दी है, तो क्या इसे रेवड़ी कल्चर नहीं माना जायेगा? मैं एक आसान सी चीज जानना चाहता हूं कि, सब्सिडी जो गरीबो को दी जाती थी या है क्या उसे रेवड़ी कह कर, समाज के आर्थिक रूप से कमज़ोर तबके का मज़ाक उड़ाना उचित है ? पूंजीपति को उद्योगों के लिये सस्ती ज़मीन, ऋण सब्सिडी आदि दी जाती रही है और ज़रूरत हो और राज्य आर्थिक रूप से सक्षम हो तो, दी भी जानी चाहिए। लेकिन क्या किसानों को सस्ते ऋण, खाद, बिजली, पानी, कृषि उपकरणों पर सब्सिडी नही दी जानी चाहिए ? नहीं तो, क्यों नहीं दी जानी चाहिए?

पूंजीवादी व्यवस्था के बारे में मेरा यह स्पष्ट मत है, कि, इस व्यवस्था से न केवल समाज मे आर्थिक विषमता बढ़ेगी बल्कि पूंजी का एक ऐसा, असमान वितरण तंत्र संक्रमित हो जाएगा जो देश  को भी बर्बाद कर के रख देगा। फिर हम पूजीवाद की जिस आर्थिक नीति पर चल रहे हैं वह पूंजीवाद का सबसे घृणित रूप है, गिरोहबंद पूंजीवाद यानी क्रोनी कैपिटलिज्म। सरकार के अर्थशास्त्र की क्या प्राथमिकता है, यह मैं नहीं जानता पर मैं एक लोककल्याणकारी राज्य में, राज्य की क्या प्राथमिकता होनी चाहिए, वह मैं जानता हूँ। समाज की अधिकांश आबादी को रोजी, रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य की सुविधा हो, खेती किसान और लोगों का जीवन खुशहाल हो, यह ज़रूरी है। उद्योगों का विकास क्यों होना चाहिए ? इसका सीधा उत्तर होगा, जनता की खुशहाली के लिए। खुशहाली का पैमाना, एक समृद्ध एंटीलिया नहीं देश में बसे वे लाखों गांव हैं जो आज भी शिक्षा स्वास्थ्य की मूलभूत सुविधाओं से महरूम हैं। 

यह पाखंड कि, गरीब तबके को, किसानों को, या तो सब्सिडी दी न जाय या दी भी जाय तो, उसका एहसान, उनपर लाद दिया जाय, और कहा जाय कि वे सरकार की पूजा करें। और सरकार, पूजा तो स्वीकार कर लें, पर, उन्हें मुफ्तखोर कह कर उनका मजाक भी उड़ाए। जैसे ही किसानों, गरीबों को राजकोष से कुछ देने की बात उठती है तो एलीट अर्थशास्त्रियों की भृकुटी उठ जाती है और वे कहते हैं, कर्ज डूब जायेगा, पैसा नहीं है, इंफ्लेशन बढ़ जायेगा और सामंती सोच तड़प उठती है कि, लोग काहिल हो जाएंगे। काम करने वाले नहीं मिलेंगे। 

पर यह भी एक तथ्य है कि, दुनिया के तमाम विकसित और लोकतांत्रिक देशों में सरकार अपने नागरिकों को शिक्षा स्वास्थ्य आदि की सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है। कोविड़ पर अमेरिका, यूरोप जैसे समृद्ध देशों ने अपने नागरिकों को धन दिया है, उन्हे संभाला है पर उन्होंने अपनी जनता को मुफ्तखोर कहा हो, यह कहीं पढ़ने सुनने को नहीं मिला। वे इसे रेवड़ी कल्चर नहीं कहते हैं। मेरी आपत्ति है, जब सरकार के पास पैसा नहीं है और वह टैक्स पर टैक्स लगा कर जनता को चूस रही है तो फिर वह, सब्सिडी इन्ही चहेते पूंजीपतियों को क्यों दे रही है ? 

गैस की एक छोटी सी सब्सिडी जिससे घरों में रोटी बनती थी वह सरकार छीन लेती है और इस अनिल अग्रवाल को 76000 करोड़ दे दे रही है जब कि मनरेगा का कुल बजट ही 73000 करोड़ रुपए हैं। क्यों ? एक बात स्पष्ट है कि हम जिस संवैधानिक व्यवस्था में हैं उसका आधार ही लोककल्याण राज्य है और उसकी योजनाएं, विकास की दिशा, आर्थिकी का मूल जनकल्याण की ओर जाता हुआ होना चाहिए और जनकल्याण की ओर जाते हुए दिखना भी चाहिए। 

(विजय शंकर सिंह)

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