Sunday, 25 September 2022

सच्चिदानंद सिंह / आइंस्टीन के शब्दों में सापेक्षता - रिलेटिविटी (7)


16. हमारे अनुभव और स्पेशल रिलेटिविटी थ्योरी ~
इलेक्ट्रोमैग्नेटिज़्म को समझने के लिए मैक्सवेल-लॉरेंज़ ने जिस इलेक्ट्रोमैग्नेटिक सिद्धांत को विकसित किया उन्ही से स्पेशल थ्योरी का उद्भव हुआ है. जो भी तथ्य या अनुभव इलेक्ट्रोमैग्नेटिक सिद्धांत को प्रमाणित करते हैं, वे सभी स्पेशल थ्योरी को भी प्रमाणित करते हैं. 

स्पेशल थ्योरी से हम सुदूर तारों से पृथ्वी पर आ रहे प्रकाश के विषय में बस सैद्धांतिक गणनाओं से कुछ पूर्वानुमान कर पाए थे जो बाद में प्रकाश की स्पेक्ट्रल लाइन्स में मिले. इसके अलावा मैक्सवेल-लॉरेंज़ के सिद्धांत को प्रमाणित करने वाले अनेक प्रयोगों से, दो हमारे उद्देश्य के लिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उन्हें मैक्सवेल-लॉरेंज सिद्धांत से समझने के लिए एक और मान्यता (अज़म्पशन) की जरूरत पड़ती है लेकिन स्पेशल थ्योरी से उन्हें समझने के लिए वैसी किसी मान्यता की जरूरत नहीं पड़ती.
 
कुछ रेडिओधर्मी पदार्थों से एक विशेष विकिरण निकलता है जिसे बीटा किरणें कहा जाता है. ये बीटा किरणें इलेक्ट्रॉन के प्रवाह हैं जिन पर ऋणात्मक विद्युत् 'चार्ज' रहता है. इलेक्ट्रॉन का द्रव्यमान (मास) बहुत कम होता है और उनकी गति बहुत तेज. इन इलेक्ट्रॉन की गति के लिए कोई नियम नहीं बन पा रहे थे जब लॉरेंज़ ने एक परिकल्पना का सहारा लिया. उन्होंने 'माना' कि प्रवाह में बहते दो इलेक्ट्रॉन के बीच की दूरी पहले जो दूरी उनके बीच थी उसका sqrt (1-v^2/c^2 ) रह जाती है. इसे मानने का कोई कारण नहीं था सिवा इसके कि इसे मानने पर बीटा किरणों में बहते एल्क्ट्रॉन की गति को समझने के लिए एक नियम मिल सका. यदि उन इलेक्ट्रॉन की गति को स्पेशल थ्योरी से समझने की कोशिश की जाए तो वही नियम मिल जाता है, बिना इस परिकल्पना के. 

दूसरा प्रयोग माइकेल्सन-मॉर्ले प्रयोग के नाम से विख्यात है. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में किये गए इस प्रयोग से यह जाँचने की कोशिश की गयी थी कि वास्तव में कोई 'ईथर' है या नहीं, जिसकी उपस्थिति उन दिनों प्रकाश की लहरों के चल सकने के लिए आवश्यक मानी जा रही थी. प्रयोग ने तो प्रमाणित किया की ईथर नहीं है लेकिन इस प्रयोग के नतीजे और अपेक्षित नतीजों में कुछ फर्क थे जिन्हे आइंस्टीन ने स्पेशल थ्योरी से स्पष्ट किया. 

नोट: आइंस्टीन की मृत्यु 1955 में हुई थी, 1962 में स्पेशल थ्योरी द्वारा प्रतिपादित समय का धीमा हो जाना प्रकृति में पाए जाने वाले एक बहुत छोटे कण म्युओंस की गणना के एक प्रयोग से सम्पुष्ट हुए थे. म्युओंस हमारे वातावरण की सबसे बाहरी सतह पर बनते हैं जहाँ कॉस्मिक किरणें हवा से पहली बार मिलतीं हैं. म्युओंस अस्थायी कण हैं, स्वतः नष्ट हो जाते हैं और उनकी "हाफ़-लाइफ़" 1.5 माइक्रोसेकण्ड (एक माइक्रोसेकंड = 1/1000,000 सेकण्ड) है. यानी यदि कहीं 1000  म्युओंस हों तो 1.5 माइक्रोसेकण्ड बाद बस 500 बचेंगे, उसके 1.5 माइक्रोसेकण्ड बाद 250 और तदनुसार. म्युओंस के द्रव्यमान (मास) बहुत कम होते हैं और उनकी गति बहुत तेज: 0.994 c  (c प्रकाश की गति है).
 
वैज्ञानिकों ने पाया कि 6000 फ़ीट ऊँची एक जगह, माउंट वाशिंगटन, पर घंटे में 570 म्युओंस गिरते हैं.   म्युओंस की गति 0.994 c है यानी 1 माइक्रोसेकण्ड में ये करीब 1000 फ़ीट चलते हैं. 1.5 माइक्रोसैकेण्ड में वे 1500 फ़ीट चलेंगे, यानी 1500 फ़ीट नीचे आने तक उनकी संख्या आधी हो जाएगी. यदि 6000 फ़ीट पर 570  म्युओंस प्रति घंटे गिर रहे थे तब 4500 फ़ीट पर 285  प्रति घंटे, 3000 फ़ीट पर 142  प्रति घंटे, 1500 फ़ीट पर 71 प्रति घंटे और सागर तल पर 35 प्रति घंटे गिरते मिलेंगे. 

लेकिन सागर तल पर नापने से देखा गया कि वहाँ करीब 400 म्युओंस प्रति घंटे गिर रहे थे. इसका कारण है कि उतनी तेजी से चल रहे म्युओंस के रिफरेन्स फ्रेम में बहुत कम समय बीता था. हमारे फ्रेम से हम देख रहे हैं म्युओंस को 6000 फ़ीट नीचे आने में 6 माइक्रो सेकंड लगेंगे. लेकिन उनके फ्रेम में t ' =  t *sqrt (1 -v^2 /c^2 ) = 6*sqrt (1 -0.994^2) माइक्रो सेकंड = 6*0.1094  = 0.66 माइक्रो सेकंड.       

जितनी देर में हमारे लिए 6 माइक्रोसेकन्ड बीते उतनी देर में म्युओंस के रिफरेन्स फ्रेम में बस 0.66 माइक्रोसेकण्ड बीते. इसी लिए म्युओंस की संख्या 570 से घट कर 35 नहीं बल्कि 400 रही.
(क्रमशः)

सच्चिदानंद सिंह
Sachidanand Singh 

आइंस्टीन के शब्दों में सापेक्षता - रिलेटिविटी (6) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/6.html 

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