Thursday, 1 September 2022

गंगोली, गाजीपुर के राही मासूम रजा / विजय शंकर सिंह

उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में एक जिला है ग़ाज़ीपुर। सोया हुआ, खामोश पर सरसब्ज़ और प्रतिभासंपन्न।  गंगा इस इस ज़िले को सींचती हुयी गुज़रती हैं। इसी ज़िले के एक गाँव गंगौली में राही मासूम रज़ा का जन्म 1 सितंबर 1925 को हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाजीपुर शहर के एक मुहल्ले में हुई थी। बचपन में पैर में पोलियो हो जाने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ सालों के लिए छूट गयी, लेकिन इंटरमीडियट करने के बाद वह अलीगढ़ आ गये और यहीं से एमए करने के बाद उर्दू में `तिलिस्म-ए-होशरुबा' पर पीएच.डी. की। इसके बाद राही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, के उर्दू विभाग में प्राध्यापक हो गये। अलीगढ़ में रहते हुए ही राही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी हो गए थे। अपने व्यक्तित्व के इस निर्माण-काल में वे बड़े ही उत्साह से साम्यवादी सिद्धान्तों के द्वारा समाज के पिछड़ेपन को दूर करना चाहते थे और इसके लिए वे सक्रिय प्रयत्न भी करते रहे थे। उनका देहांत, 15 मार्च 1992 को हुआ था। 

उन्होंने मूलतः  फिल्मों की पटकथाएं और संवाद लिखे हैं, पर उनकी प्रसिद्धि फ़िल्मी लेखन से अलग भी है। उनका लिखा एक उपन्यास है आधा गाँव। पूर्वाचल के किसी भी आम गांव जैसे, एक गांव की कहानी है आधा गांव। जब यह उपन्यास प्रकाशित हुआ था तो, शीघ्र ही चर्चित भी हो गया। उपन्यास की प्रशंसा तो हुई ही, आलोचना भी कम नहीं हुयी, कारण, .उपन्यास में कहीं कहीं गालियों का भी उल्लेख किया गया है। यह गालियां आम जन मानस में बैठी हुई गलियां है, जो जाने अनजाने और निष्काम भाव से जुबां से झरती रहती है। पर शुचिता और नैतिकता अक्सर मिथ्या और ओढ़े हुए नैतिकतावादियों को अधिक असहज करती है तो, इस उपन्यास को लेकर साहित्यिक आलोचना के केंद्र में गालियां ही रहीं और उपन्यास का शिल्प, कथानक, समाज का चित्रण आदि गौण हो गया। 

इस उपन्यास में गाँव और गाँव के जन, समाज , उनकी विसंगतियों और विडम्बनाओं का बहुत ही विषद ढंग से वर्णन किया गया है। यह उपन्यास उत्तर प्रदेश के एक नगर गाजीपुर से लगभग ग्यारह मील दूर बसे गांव गंगोली के शिक्षा समाज की कहानी कहता है। राही नें स्वयं अपने इस उपन्यास का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है कि 
“वह उपन्यास वास्तव में मेरा एक सफर था। मैं गाजीपुर की तलाश में निकला हूं लेकिन पहले मैं अपनी गंगोली में ठहरूंगा। अगर गंगोली की हकीकत पकड़ में आ गयी तो मैं गाजीपुर का एपिक लिखने का साहस करूंगा।"
पर महाभारत जैसे महान एपिक की पटकथा लिखने वाले राही साहब, गंगौली की हकीकत पकड़ पाए या नहीं, यह तो पता नहीं, पर वे गाजीपुर पर कोई एपिक नहीं लिख सकें। 

राही मासूम रजा का दूसरा उपन्यास “हिम्मत जौनपुरी” मार्च 1969 में प्रकाशित हुआ था। आधा गांव की तुलना में यह जीवन चरितात्मक उपन्यास बहुत ही छोटा है। हिम्मत जौनपुरी लेखक के बचपन का साथी था और लेखक का विचार है कि दोनों का जन्म एक ही दिन हुआ था।

उसी वर्ष राही का तीसरा उपन्यास “टोपी शुक्ला” प्रकाशित हुआ। इस महत्वपूर्ण राजनैतिक समस्या पर आधारित चरित्र प्रधान उपन्यास में भी, उसी गांव के निवासियों की जीवन गाथा का वर्णन किया गया है। राही साहब, इस उपन्यास के द्वारा यह बतलाते हैं कि सन्‌ 1947 में भारत-पाकिस्तान के विभाजन का ऐसा कुप्रभाव पड़ा कि अब हिन्दुओं और मुसलमानों का एक साथ मिलकर रहना अत्यन्त कठिन हो गया।

सन्‌ 1970 में प्रकाशित राही मासूम रजा के चौथे उपन्यास “ओस की बूंद” का आधार भी देश का नासूर बन चुकी, हिन्दू-मुस्लिम समस्या है। इस उपन्यास में पाकिस्तान के बनने के बाद जो सांप्रदायिक दंगे हुए, उन्हीं का जीता-जागता चित्रण एक मुसलमान परिवार की कथा द्वारा प्रस्तुत किया गया है।

सन्‌ 1973 में राही साहब का पांचवा उपन्यास “दिल एक सादा कागज” प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के रचना-काल तक सांप्रदायिक दंगे कम हो चुके थे। पाकिस्तान के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया था और भारत के हिन्दू तथा मुसलमान शान्तिपूर्वक जीवन बिताने लगे थे। इसलिए राही ने अपने उपन्यास का आधार बदल दिया। अब वे राजनैतिक समस्या प्रधान उपन्यासों को छोड़कर मूलतः सामाजिक विषयों की ओर उन्मुख हुए।

सन्‌ 1977 में प्रकाशित उपन्यास “सीन 75” का विषय भी फिल्मी संसार से लिया गया है। इस सामाजिक उपन्यास में बम्बई महानगर के उस बहुरंगी जीवन को विविध कोणों से देखने और उभारने का प्रयत्न किया गया है जिसका एक प्रमुख अंग फिल्मी जीवन भी है। विशेषकर इस उपन्यास में फिल्मी जगत से सम्बद्ध व्यक्तियों के जीवन की असफलताओं एवं उनके दुखमय अन्त का सजीव चित्रण किया गया है।

सन्‌ 1978 में प्रकाशित राही मासूम रजा के सातवें उपन्यास “कटरा बी आर्जू” का आधार फिर से राजनैतिक समस्या हो गया है। इस उपन्यास के द्वारा लेखक यह बतलाना चाहते हैं कि इमरजेंसी के समय सरकारी अधिकारियों ने जनता को बहुत कष्ट पहुंचाया था।

राही मासूम रजा की अन्य कृतियाँ है - मैं एक फेरी वाला, शीशे के मकां वाले, गरीबे शहर, क्रांति कथा (काव्य संग्रह), हिन्दी में सिनेमा और संस्कृति, लगता है बेकार गये हम, खुदा हाफिज कहने का मोड़ (निबन्ध संग्रह) साथ ही उनके उर्दू में सात कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। इन सबके अलावा राही ने फिल्मों के लिए लगभग तीन सौ पटकथा भी लिखी है। राही ने साहित्य की लगभग हर विधा पर कलम चलाया है और उन्होंने, दस-बारह कहानियां भी लिखी हैं। कहते हैं, जब वो इलाहाबाद में थे तो उर्दू रिसाला रूमानी दुनिया के लिए पन्द्रह-बीस उपन्यास उर्दू में, उन्होंने दूसरों के नाम से भी लिखा है। उनका लेखन विपुल है और वे हिंदी उर्दू के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। 

फिल्मों की बात करें तो, राही साहब को ' मैं तुलसी तेरे आँगन की ', के  सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखन के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार से नवाज़ा गया था और, बीआर चोपड़ा द्वारा निर्देशित महाभारत सीरियल का संवाद इन्होने ही लिखा था।   कट्टरता हर युग और धर्म में रही है पर तमाम शोर शराबे के बाद भी यह कुछ खास मस्तिष्कों तक ही सीमित रही है। राही साहब, महाभारत के सीरियल की पटकथा के संदर्भ में अपना एक रोचक संस्मरण बार बार सुनाते थे। 

वे बताते थे कि, जब महाभारत सीरियल की पटकथा लिखने का ऑफर उनके पास आया तो, उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया लेकिन जैसे ही यह बात सार्वजनिक हुई, हिंदू समाज के कुछ कट्टर धर्मांध लोगों ने इसका विरोध शुरू कर दिया और उन्हें अपशब्दों भरे पत्र लिखे गए। तब सोशल मीडिया नहीं था, अपनी बात कहने का प्रचलित माध्यम, या तो पत्र लेखन था या, अखबार थे। लेकिन यह विरोध इकतरफा नहीं रहा। राही साहब के समर्थन में भी पत्र लिखे गए और उन पत्रों की संख्या, उनके विरोध में लिखे पत्रों से कहीं अधिक थी। राही साहब भी ठहरे गाजीपुरी, उन्होंने जिद कर लिया कि, अब महाभारत सीरियल की पटकथा लिखेंगे तो वे ही लिखेंगे और उन्होंने उसे लिखा भी। 

लेकिन राही साहब अपने लिखने की मेज पर, अपशब्दों से भरे विरोध में लिखे गए पत्रों का बंडल भी सजा कर रखते थे और नीचे उन पत्रों के गट्ठर थे जो उनके समर्थन में लिखे गए थे। जब कोई राही साहब से पूछता था कि वे इतने गालियों भरे पत्रों के बाद भी क्यों महाभारत की पटकथा लिखने को राजी हुए, तो वे, मेज पर रखे बंडल और गट्ठर दोनो ही दिखाते थे और कहते थे कि, समर्थन में आए पत्रों की तुलना में गालियां बहुत कम हैं और इससे उन्हे हौसला मिला कि वे इस महान महाकाव्य पर बन रहे सीरियल की पटकथा लिखें।

राही साहब बिलकुल सही कह रहे थे, हिंदुस्तान की यही तासीर भी है कि, धर्मांधता और कट्टरता न तो इसका मूल स्वभाव है और न ही स्थाई भाव। देश को कट्टरता के झोंकने की सारी कोशिशों के बाद, आज भी धर्मांध संगठन अपना इच्छित एजेंडा पूरा नहीं कर पा रहे हैं। कमाल यह भी है कि, विरोध में पत्र लिखने वालों में, न केवल हिंदू कट्टरपंथी थे, बल्कि मुस्लिम धर्मांध भी थे। दरअसल, बेकरार रहने के लिए करार चाहिए तो एक की कट्टरता बनी रहे, इसके लिए दूसरे का कट्टर होना भी लाजिमी है। दोनो की धर्मांधता और कट्टरता, एक दूसरे के लिए, खाद पानी जैसा काम करती है। आइंस्टीन का सापेक्षतावाद यहां भी प्रासंगिक हो जाता है !

अब उनकी यह प्रसिद्ध कविता पढ़ें .....

मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला
लेकिन मेरा लावारिस दिल
अब जिस की जंबील में कोई ख्वाब
कोई ताबीर नहीं है
मुस्तकबिल की रोशन रोशन
एक भी तस्वीर नहीं है
बोल ए इंसान, ये दिल, ये मेरा दिल
ये लावारिस, ये शर्मिन्दा शर्मिन्दा दिल
आख़िर किसके नाम का निकला
मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला
बंदा किसके काम का निकला
ये मेरा दिल है
या मेरे ख़्वाबों का मकतल
चारों तरफ बस खून और आँसू, चीखें, शोले
घायल गुड़िया
खुली हुई मुर्दा आँखों से कुछ दरवाजे
खून में लिथड़े कमसिन कुरते
जगह जगह से मसकी साड़ी
शर्मिन्दा नंगी शलवारें
दीवारों से चिपकी बिंदी
सहमी चूड़ी
दरवाजों की ओट में आवेजों की कबरें
ए अल्लाह, ए रहीम, करीम, ये मेरी अमानत
ए श्रीराम, रघुपति राघव, ए मेरे मर्यादा पुरुषोत्तम
ये आपकी दौलत आप सम्हालें
मैं बेबस हूँ
आग और खून के इस दलदल में
मेरी तो आवाज़ के पाँव धँसे जाते हैं।

डॉ राही मासूम रज़ा साहब को उनके जन्मदिन पर उनका विनम्र स्मरण।

(विजय शंकर सिंह)


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