Thursday, 22 September 2022

कमलाकांत त्रिपाठी / हिंदू धर्म में अवतारवाद (5)

ज्योतिबा फुले: अवतारवाद के आवरण में ‘ईरानी आर्य भटों’ का क्रमिक आक्रमण (4) से जारी ~

फुले ने पौराणिक अवतारवाद के अपने प्रत्याख्यान का अंत परशुराम से किया है। उनके अनुसार ‘ब्रह्मा’ की मृत्यु के बाद परशुराम ब्राह्मणों के मुखिया बने। नि:संतान बाणासुर की पहले ही मृत्यु हो चुकी थी। इसलिए ब्राह्मणों के प्रतिरोध का पूरा ज़िम्मा मूल निवासियों के लड़ाकू दस्तों या क्षत्रियों (महा+अरि = महारों) पर आ पड़ा। महाअरियों ने अपने शूद्र भाइयों को ब्राह्मणों के आधिपत्य से मुक्त कराने के लिए परशुराम से 21 बार युद्ध किया। उनके इस दृढ़ प्रतिरोध के चलते उनका नाम द्वैती (मराठी शब्द; हिंदी में: दुराग्रही) पड़ गया। बाद में द्वैती ही दैत्य बन गए--फुले के अनुसार ‘दैत्य’ शब्द द्वैती का अपभ्रंश है। [फुले क्षत्रियों को आर्य न मानकर मूल निवासी मानते थे जिन्हें ब्राह्मणों ने क्षुद्र (शूद्र) की संज्ञा दी थी। स्पष्ट है कि फुले का मत महाराष्ट्र की सामाजिक संरचना के विशिष्ट संदर्भ में ही संगत है। वहाँ केवल ब्राह्मण सवर्ण माने जाते हैं, शेष सभी शूद्र या अतिशूद्र हैं। शिवाजी को छत्रपति के रूप में अपना राजतिलक कराने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़े थे। इसी आधार पर आरक्षण के लिए मराठों की अन्य पिछड़ों में शामिल किए जाने की माँग है जो वर्तमान में कुनबी-जैसी कुछ मराठा जातियों को ही प्राप्त है।] 

फुले के अनुसार, 'परशुराम स्वभाव से ही उत्पाती, साहसी, विध्वंसक, क्रूर, मूर्ख और दुष्ट थे। वे शरीर से शक्तिशाली और अच्छे तीरन्दाज़ थे। अपने पिता के आदेश पर उन्होंने माँ रेणुका की हत्या कर दी थी। [पुराण इस घटना के चमत्कारिक  समाहार में जोड़ देते हैं कि परशुराम की आज्ञाकारिता पर प्रसन्न होकर उनके पिता जमदग्नि ने उनसे वर माँगने को कहा। परशुराम ने माँ का पुनर्जीवन माँग लिया और रेणुका फिर से जीवित हो गईं।] 

अंतत: मूल निवासियों के इन लडाकू दस्तों का प्रतिरोध परशुराम द्वारा पूरी तरह कुचल दिया गया। उनमें से कई निराश होकर कोंकण के निचले भूभागों में चले गए और वहीं अपने जीवन के अंतिम दिन काट दिए। जो पकड़े गए उन्हें शपथ दिलाई गई कि ब्राह्मणों के विरुद्ध वे फिर कभी विद्रोह नहीं करेंगे। उनकी पहचान के लिए उनके गले में काले धागे पहना दिए गए। अन्य शूद्रों को भी, जिनकी मुक्ति के लिए वे लड़े थे, उन्हें छूने से मना कर दिया गया। इस तरह अस्पृश्यों या अतिशूद्रों का पंचम वर्ण अस्तित्व में आ गया।'

इस दीर्घकालिक युद्ध में परशुराम के पक्ष के भी इतने सारे लोग मारे गए कि ब्राह्मण उनसे नाराज़ हो गए। इसके अतिरिक्त ‘वहाँ के’ एक क्षेत्रपति के पुत्र राम ने राजा जनक के दरबार की भरी सभा में परशुराम का धनुष तोड़ दिया। इससे कुपित परशुराम ने राम के साथ, जनक-पुत्री सीता को ब्याह कर ले जाते समय, रास्ते में ही युद्ध छेड़ दिया, जिसमें परशुराम बुरी तरह परास्त हुए। इससे लज्जित होकर वे अपने सभी राज्य छोड़कर कोंकण के निचले भाग में चले गए। वहाँ उन्हें अपने दुष्कर्मों पर ग्लानि हुई। इसी ग्लानि की अवस्था में कब और कहाँ उन्होंने प्राण त्याग दिए,  किसी को पता नहीं चला। इसी के चलते ब्राह्मणों ने उन्हें अमर मान लिया और आदिनारायण का अवतार घोषित कर दिया। 

ज्योतिबा फुले का अवतारवाद: एक समीक्षा ~ 

स्पष्ट है कि ज्योतिबा फुले के आख्यान का कोई ऐतिहासिक, तथ्यात्मक और तार्किक आधार नहीं है। महाराष्ट्र में प्रचलित कुछ रीति-रिवाजों, लोककथाओं, त्योहारों, स्थानीय देवताओं और एक कहावत के रूप में जो कुछ है भी, बेहद भुरभुरा है। लेकिन पहले तो ज्योतिबा फुले के परिप्रेक्ष्य को समझना ज़रूरी है। 

ज्योतिबा फुले एक विवेकवादी (rationalist) विचारक, अस्पृश्यता-विरोधी और जाति-विरोधी समाजसुधारक तथा ऐक्टिविस्ट के रूप में जाने जाते हैं। अस्पृश्यता और जाति-व्यवस्था का उनका विरोध शुद्ध सैद्धांतिक था, वर्तमान आरक्षण के रंग से बदरंग और धूमिल नहीं हुआ था, उनके समय में आरक्षण जैसी कोई चीज़ ही नहीं थी। अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर स्त्री-शिक्षा और अस्पृश्य बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने अग्रदूत का काम किया। सावित्रीबाई फुले देश की पहली शिक्षिका थीं। उनके सहयोग से ज्योतिबा फुले ने अगस्त 1848 में देश का पहला बालिका-विद्यालय खोला। इसके बाद उन्होंने महाराष्ट्र के (महार और माँग जैसे) अस्पृश्य बच्चों के लिए विद्यालय खोले। एक विधवा ब्राह्मणी  के (अवैध) संतान होने पर उसके जीवन में आई भयंकर त्रासदी से द्रवित फुले ने विधवा-विवाह को भी सामाजिक सुधार कार्यक्रम में शामिल कर लिया। इन कामों में वे अपने समय से बहुत आगे, एक अग्रदर्शी विचारक और एक्टिविस्ट के रूप में सामने आते हैं। 

फुले का जन्म माली जाति में हुआ था जो (महाराष्ट्र के कुनबियों की तरह) अब अन्य पिछड़ों में आती है। वे एक सम्पन्न किसान परिवार में पैदा हुए थे और समय की सीमा के अनुरूप उनकी समुचित शिक्षा-दीक्षा हुई थी। वे स्वभाव से संवेदनशील और अपनी प्रतीतियों के लिए संघर्ष करनेवाले इंसान थे। अपनी पारिवारिक समृद्धि और शिक्षा का व्यक्तिगत लाभ न उठाकर उन्होंने समाजोपकार के लिए सब कुछ न्योछावर कर दिया। वे कोई इतिहासकार या इतिहास एवं प्राचीन भारतीय विद्या के अध्येता नहीं थे। अपने समाज-सुधार कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लक्ष्य से उन्होंने कुछ नाटक और कविताएँ ज़रूर लिखीं जिनमें शिवाजी के ऊपर एक पोवाडा (ballad) भी शामिल है। उनकी लिखी तीनों सुधारात्मक पुस्तकें ‘ग़ुलामगीरी’, ‘सेत्कर्याचा असुद’ (किसानों का उत्पीड़न) और ‘सत्य धर्म’ कोई शोध-ग्रंथ नहीं हैं, उस समय के ज्वलंत प्रश्नों पर प्रचारात्मक सामग्री के रूप में हैं। उनकी संस्था सत्यशोधक समाज, मानव मात्र के समान अधिकारों और सामाजिक न्याय के लिए कार्यरत रही।                                    
  
इसमें दो राय नहीं कि जाति प्रथा हिंदू समाज का कोढ़ है। उसमें भी अस्पृश्यों के साथ उन दिनों जैसा क्रूर, अमानवीय व्यवहार प्रचलित था, उसकी कल्पना करना भी आज कठिन है। अस्पृश्यता हिंदू धर्म के पाखंड का आईना है। स्वामी विवेकानंद ने बहुत सटीक कहा था कि "हिंदू धर्म वैचारिक-दार्शनिक स्तर पर अतिशय उदार और सामाजिक व्यवहार के स्तर पर अतिशय संकीर्ण है। इस तरह के विलोमों का संयोग बिना दोहरेपन और पाखंड के संभव नहीं।" 

किंतु ज्योतिबा फुले ने पौराणिक अवतारवाद का जो प्रत्याख्यान रचा वह शक्तिशाली ब्राह्मण समुदाय द्वारा सहस्राब्दियों से दबाए गए शूद्रों-अतिशूद्रों में प्रतिकार का कुछ साहस भले पैदा कर सकता था, तथ्य और तर्क के स्तर पर पूर्णत: शून्य था। फुले ने आँख मूँदकर जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति के नस्ली सिद्धांत को मान लिया, जिसको डॉ. अम्बेडकर ने पर्याप्त अंत:साक्ष्य के आधार पर ख़ारिज कर दिया है (संदर्भ—वर्णव्यवस्था और जाति व्यवस्था की उत्पत्ति पर पहले पोस्ट हुआ आलेख)। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि डॉ. अम्बेडकर ने इस विषय पर लिखी अपनी पुस्तक—WHO WERE THE SHUDRAS (1946) ‘महात्मा ज्योतिबा फुले’ को ही समर्पित की है। किंतु डॉ. अम्बेडकर के अप्रतिम अध्यवसाय, वैदग्ध्य और अभिज्ञा की आशा ज्योतिबा फुले के काल और परिस्थितियों में करना नितांत असंगत होगा। 

नस्ली सिद्धांत में भी आर्यों के ईरान से भारत आने का कोई मत नहीं है। वह भी फुले द्वारा परिकल्पित समुद्र मार्ग से सीधे महाराष्ट्र पहुँचने का तो कोई आधार ही नहीं बनता। इस सिद्धांत में आर्यों को एक नस्ली और भाषाई समूह माना गया है जो पहले मध्य एशिया में कैस्पियन सागर के उत्तर या काकेसस पर्वत के पास रहते थे। भारतीय आर्य और ईरानी आर्य एक ही भाषा समूह के थे किंतु भारत और ईरान आने के पहले वे परस्पर बँट चुके थे। भारतीय आर्य खैबर दर्रे से होकर पंजाब पहुँचे जब कि ईरानी आर्य कैस्पियन सागर के ऊपर से घूमकर पश्चिमी ईरान पहुँचे। एक बार ईरानी आर्यों के ईरान पहुँच जाने के बाद समुद्र मार्ग से उनके भारत के महाराष्ट्र क्षेत्र में आने का कोई प्रमेय नहीं है। फुले, इन विजेताओं को कभी ईरानी आर्य भट कहते हैं तो कभी, ब्राह्मण। नस्ली सिद्धांत के अनुसार आर्यों के बाहर से आने के काफ़ी समय बाद वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति होती है जिस दौरान मूल निवासियों से संघर्ष और उन्हें वर्ण-व्यवस्था में निचली सीढ़ी पर समंजित करने का काम होता है। फुले में तो ‘ईरानी आर्य भट’ और ‘ब्राह्मण’ एक-दूसरे के पर्याय की तरह इस्तेमाल होते हैं। फिर वे ईरानी आर्य भट को ईरान का मूल निवासी बताते हैं (पृ.46) जिससे यह ध्वनि निकलती है कि ये लोग बाहर से ईरान आए आर्य नहीं थे जिनका नस्ली सिद्धांत में पूर्व-सम्बंध भारतीय आर्यों से माना जाता है बल्कि ईरान के मूल निवासी थे और ईरान आर्यों का मूल स्थान था।  

फुले ने केवल मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन और परशुराम—छ: अवतारों का प्रतिपाठ रचा है। पुराणों में आये इन अवतारों की लोकोत्तर कथाएँ कम तर्कहीन नहीं हैं, किंतु फुले में कथाओं के इहलौकिक होने के बावजूद, वे भी तर्कहीन हैं। तेज़ चलने वाली छोटी नावों के आधार पर मत्स्य और अधिक संख्या में सवार लोगों की बड़ी नावों के धीमी गति से चलने के आधार पर कच्छप तर्कातीत हैं। वराह से समांतरता के लिए सम्बंधित क़बीले के मुखिया का गंदा दिखना और फूहड़ आदतों का होना और उसकी वजह से उसे सूकर बुलाना निरी कल्पना लगता है। 

सत्य इतना ही है कि महाराष्ट्र और केरल में भी प्रचलित रिवाजों, त्योहारों और लोककथाओं के आधार पर बलि नाम के एक ऐसे राजा का सुराग़ मिलता है जो ब्राह्मणेतर जातियों में लोकप्रिय था पर ब्राह्मणों में नहीं। किंतु यह आर्य और अनार्य संघर्ष की परिकल्पना के लिए पर्याप्त नहीं है। फिर फुले जी, राम को अयोध्या से उठाकर महाराष्ट्र के स्थानीय ‘क्षेत्रपति’ का पुत्र बना देते हैं। और ब्रह्मा (जो पुराणों की अवतार-सूची में नहीं हैं) और उनकी सेना का बाणासुर महाराष्ट्र से हिमालय की ‘पहाड़ी’ तक पीछा करता है और वहाँ पहाड़ी के प्रवेशमार्ग की नाकेबंदी कर उन्हें भूखों मरने की स्थिति में डाल देता है। इतिहास ही नहीं, भूगोल के साथ भी न्याय हुआ नहीं लगता।  

जैसे अवतार की पौराणिक कथाओं का कोई गम्य आधार नहीं है, वैसे ही फुले की कथाओं का भी। एक ओर तो फुले कहते हैं कि ब्राह्मण-पुरोहितों ने मूल निवासियों पर अपना वर्चस्व क़ायम करने के लिए अनेक बनावटी ग्रंथ लिखे जो झूठ के पुलिंदे हैं (प्राक्कथन, पृ. 27, टेक्स्ट, पृ.31), ये फ़रेबी ग्रंथ हैं (प्राक्कथन, पृ.28), , ये पाखंड से भरे हैं (वही), ग्रंथकार गपाड़िया हैं (पृ.53)। फिर इन्हीं ग्रंथों में वर्णित उन्हीं उन्हीं अवतारों और उनके उसी-उसी नामकरण का वैकल्पिक पाठ भी रचते हैं। यह उसी तरह का अर्थहीन उपक्रम है जैसे आजकल कुछ अस्मितावादी बौद्धिकों में पुराण-कथाओं को ऊलजलूल मानने के बावजूद उन्हीं के विवरण को आधार बनाकर दुर्गा और महिषासुर की कथा का उलट पाठ रचा जा रहा है। यदि पुराणों की सामग्री ऊलजलूल है तो ये दोनों पात्र ऊलजलूल उद्भावना हैं, इनका एक रूप जितना ऊलजुलूल है, दूसरा भी उतना ही ऊलजुलूल है। जब इन कथाओं का ही कोई आधार नहीं तो मनुष्य-मनुष्य के सब्जेक्टिव अस्मिता-बोध और तदनुरूप आकांक्षा के सिवा वैकल्पिक पाठ का क्या आधार हो सकता है?

यहाँ कुछ लोगों की नाराज़गी के मूल्य पर यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि अवतारों से सम्बंधित अलौकिक कथाओं की कोई विवेकपूर्ण और गम्य व्याख्या संभव ही नहीं, सिवा इसके कि उत्कृष्ट कोटि के चरित्र और चरित के लोगों को शुभ और शिव के उच्चतम मानदंड माने गए ईश्वर के अपेक्षाकृत अधिक निकट माना जाए। जो अवतारों के लिए प्रासंगिक है वही मसीहाओं के लिए भी। बाक़ी तो आस्था का विषय है और मनुष्य की संरचना में आस्था एक अपरिहार्य तत्व है जो स्वत:सिद्ध है।

ज्योतिबा फुले और अंग्रेजी शासन ~

ज्योतिबा फुले में अंग्रेजी शासन के प्रति उत्साह और संतुष्टि के भाव पर सवाल उठाए गए हैं। उसका एकमात्र कारण वही है जो दलितों और शूद्रों की सामाजिक स्थिति में सुधार की फुले की आकांक्षा से जुड़ा है। फुले ने तथाकथित आर्यों के आक्रमण एवं मुसलमानों के आक्रमण को एक ही धरातल पर रखा है क्योंकि दोनों के द्वारा शूद्रों और अतिशूद्रों की स्थिति में सुधार के लिए कुछ नहीं किया गया। अंग्रेजी शासन ने तमाम तरह के शोषण और बदनीयती के बावजूद, जैसा भी रहा हो, क़ानून का शासन लागू किया। उनके अधिकारियों और न्यायालयों में ब्राह्मण और दलित के बीच अमूमन कोई भेद नहीं किया जाता था। यह भी ध्यातव्य है कि ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा बंगाल में कारीगरों और किसानों के साथ जो ज़्यादतियाँ हुई थीं, महाराष्ट्र में अंग्रेजी शासन शुरू होने तक उनका समय निकल चुका था। अंतिम ब्रिटिश-मराठा युद्ध 1818 में हुआ जिसमें मराठों की पराजय के बाद ब्राह्मण पेशवाओं के हाथ से सत्ता कम्पनी के हाथ में चली गई। पेशवा शासन में ब्राह्मणों की वर्णव्यवस्था में विशिष्ट स्थिति के अतिरिक्त अनेक ब्राह्मणों को जागीरें और शासन में उच्च पद भी मिले थे। ऐसे में शूद्रों और अतिशूद्रों की क्या स्थिति रही होगी, इसके तसव्वुर के लिए ऐतिहासिक साक्ष्य की ज़रूरत नहीं है। अंग्रेजों ने मराठों की अंतिम रूप से पराजय के पहले ही महारों को मार्शल जाति मानकर अपनी सेनाओं में भरती किया था। अँग्रेजी शासन में ब्राह्मणों की विशिष्ट स्थिति समाप्त होने से शूद्रों और अतिशूद्रों का भला ही हुआ होगा और उन्हें आगे और भला होने की संभावना नज़र आई होगी। ज्योतिबा फुले ने जब 1848 में पहला बालिका विद्यालय खोला और उसके बाद महारों और माँगों के बच्चों के लिए विद्यालय खोले, रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने स्वाभाविक रूप से विरोध किया था। इस सम्बंध में फुले के रुख़ को समझने के लिए स्व से ऊपर उठकर अपने पुरखों के इतिहास पर एक वस्तुपरक नज़र डाल लेना ही पर्याप्त होगा। 
(समाप्त)

कमलाकांत त्रिपाठी
Kamlakant Tripathi

हिंदू धर्म में अवतारवाद (4)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/4_21.html 

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