19. गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र ~
"अगर किसी पत्थर को उठा कर हम छोड़ देते हैं तो वह नीचे क्यों गिर जाता है?" इस प्रश्न का सामान्य उत्तर है, "क्योंकि पृथ्वी उसे अपनी ओर खीँचती है." आधुनिक भौतिकी इस का उत्तर कुछ अलग देगी. इसका कारण है कि इलेक्ट्रोमैग्नेटिक घटनाओं के अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पंहुचे हैं कि कुछ दूरी रहने पर कोई क्रिया असंभव हो जाती है यदि बीच में कोई माध्यम न रहे. एक उदाहरण लेते हैं. चुम्बक लोहे को अपनी ओर आकर्षित करता है. इस आकर्षण से हम यह नहीं समझते कि चुम्बक और लोहे के बीच की खाली जगह के बावजूद चुम्बक लोहे को अपनी ओर खींच पाता है. हम यह सोचते हैं, बतौर फैराडे, चुम्बक अपनी दिशा की चारो तरफ हमेशा, भौतिक रूप से वास्तविक, 'कुछ' बनाये रखता है जिसे हम चुम्बकीय क्षेत्र (मैग्नेटिक फील्ड) कहते हैं. और यह चुम्बकीय क्षेत्र लोहे पर अपना काम करता है जिससे लोहा चुम्बक की तरफ खिँचा चला आता है (या उसकी प्रवृत्ति खिंचे चले आने की होती है.)
इस चुम्बकीय क्षेत्र की अवधारणा के औचित्य पर हम चुप रहेंगे, मानते हुए कि यह धारणा कुछ मनमानी है. हम बस यह कहेंगे कि चुम्बकीय क्षेत्र मान लेने से एलेक्रोमॅग्नेटिक घटनाओं की, विशेषकर इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों के प्रसारण की सैद्धांतिक व्याख्या बेहतर ढंग से की जा सकती है. गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव भी इसके अनुरूप ढंग से समझे जा सकते हैं. तब हम कहेंगे कि पत्थर पर पृथ्वी की क्रिया सीधे नहीं होती. पृथ्वी अपनी चारो तरफ एक गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र बनाए
रखती है और यह क्षेत्र पत्थर को प्रभावित कर उसमें पृथ्वी की दिशा में गति पैदा करता है. हम अनुभव से जानते हैं कि जैसे जैसे हम पृथ्वी से दूर होते जाते हैं, इस क्रिया की तीव्रता एक सुनिश्चित नियम के अनुसार घटती जाती है. हमारे उद्देश्य के लिए इसका अर्थ है, पृथ्वी द्वारा अपनी चारो तरफ एक गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र बनाने के भी सुनिश्चित नियम होने चाहिए जिनसे वस्तु की पृथ्वी से दूरी बढ़ने पर यह गुरुत्वाकर्षण वैसे ही घटता दिखे जैसे हम यथार्थ में देखते हैं. दूसरे शब्दों में, कोई वस्तु (जैसे पृथ्वी) अपने निकट चारो तरफ एक क्षेत्र बनाती है; जैसे जैसे हम इस वस्तु से दूर जाते हैं, इस क्षेत्र की तीव्रता और दिशा उस नियम के अनुसार बदलते हैं जिस नियम के अनुसार वह आकाश / दिशा (स्पेस) स्वयं नियंत्रित होती है जहाँ गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र बना रहता है.
(नोट: इस पतली पुस्तिका में पहली बार आइंस्टीन ने इंगित किया है कि किसी वस्तु से बना गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र उसी नियम से नियंत्रित होता है जो नियम उस दिशा (स्पेस) को नियंत्रित करती है, जहाँ वस्तु स्थित है.)
विद्युत या चुम्बकीय क्षेत्रों के विपरीत, गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र में एक बहुत उल्लेखनीय गुण है; यह गुण उसके आधार में रहेगा जो बात आगे कही जाने वाली है. जो वस्तुएं बस गुरुत्वाकर्षण के चलते गतिमान हैं उनमे एक त्वरण (अक्सेलरेशन) आता है जो इस पर तनिक भी नहीं निर्भर करता है कि वह वस्तु किस चीज की बनी है. उदाहरण के लिए, सीसे का टुकड़ा और रूई का फाहा, यदि हवा का अवरोध न हो - जैसे शून्य में, बिलकुल एक समान त्वरण से गिरेंगे. (गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र चुम्बकीय या विद्युत् क्षेत्र से बिलकुल अलग है. चुम्बकीय क्षेत्र बस उन्ही वस्तुओं को प्रभावित करते हैं जो चुम्बक से आकर्षित होते हैं, विद्युत क्षेत्र बस उन कणों को प्रभावित करता है जिन पर कोई विद्युतीय आवेश - इलेक्ट्रिकल चार्ज - हो.)
इस नियम का पालन हम हमेशा देखते हैं. इसे एक दूसरे रूप में भी लिखा जा सकता है. न्यूटन के नियम से:
बल = जड़त्वीय द्रव्यमान (इनर्शिअल मास) x त्वरण (एक्सेलरेशन)
यहाँ जड़त्वीय द्रव्यमान उस त्वरित जा रही वस्तु का गुणविशेष है. यदि त्वरण का कारण गुरुत्वाकर्षण है तब बल का समीकरण होगा:
बल = गुरुत्वाकर्षी द्रव्यमान x गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र की तीव्रता
यहाँ गुरुत्वाकर्षी द्रव्यमान उस त्वरित जा रही वस्तु का गुणविशेष है. इन दो समीकरणों से:
त्वरण = (गुरुत्वाकर्षी द्रव्यमान / जड़त्वीय द्रव्यमान) x गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र की तीव्रता
लेकिन प्रयोगों से हम जानते हैं कि गुरुत्वाकर्षण के चलते होता त्वरण वस्तु के किसी गुणविशेष पर निर्भर नहीं करता, बल्कि यह बस गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र की तीव्रता पर निर्भर करता है. तब (गुरुत्वाकर्षी द्रव्यमान / जड़त्वीय द्रव्यमान) सभी वस्तुओं के लिए समान ही होगा. उचित इकाईयों को चुनकर इस अनुपात का मान एक किया जा सकता है और तब हमे यह नियम मिलता है: किसी वस्तु का गुरुत्वाकर्षी द्रव्यमान उसके जड़त्वीय द्रव्यमान के बराबर होती है!
इस महत्वपूर्ण नियम को मेकैनिक्स में पहले से जगह मिली हुई थी लेकिन इसकी व्याख्या सही ढंग से नहीं हुई थी. इसका संतोषप्रद निर्वचन (इंटरप्रिटेशन) तभी सम्भव है जब हम इस तथ्य को ध्यान में रखें: किसी वस्तु की जड़ता (इनर्शिआ) और उसकी गुरुता (वजन) उस वस्तु के एक ही गुणविशेष के दो रूप हैं.
आगे हम देखेंगे कि किस सीमा तक यह यथार्थ है और कैसे यह प्रश्न सामान्य साक्षेपता के सूत्रण से सम्बद्ध है.
(क्रमशः)
सच्चिदानंद सिंह
Sachidanand Singh
आइंस्टीन के शब्दों में सापेक्षता - रिलेटिविटी (9)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/9.html
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