जर्मन ज़मीन और हिटलर का उत्थान—वाम दलों का ह्रास और घोर आर्थिक संकट ~
नाज़ी पार्टी पर पूर्ण वर्चस्व क़ायम करने के बाद हिटलर ने पार्टी का एक जिम्नास्टिक और खेल प्रखंड खोला जिसे जल्दी ही स्टॉर्म ट्रुपर या एस ए कहा जाने लगा. यह मुसोलिनी के काली कमीज़ दस्ते के समांतर हिटलर का भूरी कमीज़ दस्ता था जो शीघ्र ही विरोधियों में आतंक और भय की और भी तेज़ लहर पैदा करनेवाला था. ‘एस ए’ के अतिरिक्त 1922-23 में हिटलर ने Stabswache (Staff Guard) के नाम से एक अंगरक्षक दस्ते का भी गठन किया जिसे बाद में Schutzstaffel (SS) का नाम दिया गया; एस एस भी एसए जैसा ही बदनाम हुआ.
जर्मनी द्वारा वर्साई में तय हुए युद्ध हरजाने का भुगतान न होने पर जनवरी 1923 में फ़्रांस और बेल्जियम ने मिलकर 60,000 सैनिकों की फ़ौज़ राइनलैंड के रूहर इलाक़े में स्थित जर्मनी के औद्योगिक प्रखंड में उतारकर उस पर क़ब्ज़ा कर लिया. वह क्षेत्र कोयला खदानों, धातुओं, भारी मशीनरी और रक्षा संयंत्रों के निर्माण का सबसे बड़ा शहरी सेटेलमेंट होने से जर्मनी की जीवन रेखा जैसा था. इस आक्रमण के साथ ही फ़्रांस ने राइनलैंड को जर्मनी से स्वतंत्र एक अलग राज्य बनने के उत्प्रेरण में जबर्दस्त प्रचार अभियान शुरू किया और इसके लिए भाड़े के आंदोलनकारियों को मुक्त आर्थिक सहायता देने लगा. उसी समय फ़्रांस के आर्थिक सहयोग से बावेरिया प्रांत में भी जर्मनी से पृथक् होने का आंदोलन शुरू हो गया. मुसोलिनी के रोम मार्च (आ चुका है) से प्रेरित हिटलर ने इसके विरुद्ध राष्ट्रीय एकता के समर्थन में विद्रोह की योजना बनाई. म्यूनिच के जिस हॉल में बावेरिया के प्रधान मंत्री को पृथक् राज्य का पक्ष आधिकारिक रूप से रखना था, हिटलर ने वहाँ पहुँचकर प्रधान मंत्री के भाषण के बीच में ही आयोजन को ध्वस्त कर दिया. अगले दिन, 9 नवम्बर 1923 को नाज़ी विध्वंसक दस्तों के साथ उसने एक मार्च निकाला. मार्च में अपने साथ रहने के लिए सेवामुक्त जनरल लुडेनड्रॉफ को भी राज़ी कर लिया. जुलूस जब म्यूनिच के एक चौराहे पर पहुँचा, सेना ने गोलीबारी शुरू कर दी. मार्च करनेवालों में 16 लोग तत्काल मारे गए, कई घायल हुए जिनमें से दो की बाद में मृत्यु हो गई. हिटलर सड़क की पटरी पर गिर गया और उसकी गले की हड्डी टूट गई. अपने कई सहयोगियों के साथ वह गिरफ़्तार हुआ और उसे पाँच साल की सज़ा हुई किंतु 13 महीने बाद ही उसे छोड़ दिया गया. इस 13 महीने के दौरान ही उसने अपनी पुस्तक ‘मेरा संघर्ष’ (Mein Kampf) के दो खंडों में से पहला खंड लिखा. पुस्तक का यह खंड उस दिन गोलीबारी में मारे गए उन्हीं 16 साथियों को समर्पित है. समर्पण पृष्ठ पर हिटलर ने लिखा—
“9 नवम्बर 1923 को अपराह्न साढ़े बारह बजे निम्नलिखित... म्यूनिच के पूर्व युद्ध मंत्रालय के फ़ोरकोर्ट में जनता के पुनर्जीवन के प्रति अपनी निष्ठावान आस्था के लिए शहीद हो गए:
सोलह व्यक्तियों के नाम, उनका पद / पेशा और जन्मतिथि
तथाकथित राष्ट्रीय अधिकारियों ने मृतकों के अंतिम संस्कार की अनुमति देने से इन्कार कर दिया. इसलिए मैं इस पुस्तक का पहला खंड उनके साझा स्मारक के तौर पर समर्पित करता हूँ ताकि इन शहीदों की स्मृति आंदोलन के अनुयायियों के लिए स्थाई प्रकाश स्तम्भ का काम कर सके.”
यह विद्रोह हिटलर के उत्थान में मील का पत्थर साबित हुआ.
जेल से रिहा होने से लेकर 30 जनवरी 1933 को जर्मनी का चांसलर बनने तक का हिटलर का इतिहास चुनावी राजनीति में हिटलर-पद्धति का इतिहास है जो जनतांत्रिक विमर्श का एक काला अध्याय है. जनतंत्रवादियों के लिए शाश्वत चेतावनी भी. चांसलर बनने के बाद हिटलर के सर्वशक्तिमान अधिनायक बनने (24 मार्च 1933) में बस दो महीने लगे.
उन्नीसवीं शताब्दी जनतंत्र का स्वर्णकाल था. बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति तक यूरोप में जनतंत्रातिक पद्धति की कोख से ही अतिशय उग्र और युयुत्सु राष्ट्रवाद का उदय और उत्थान हुआ था. वर्साई में जिस बदनीयती और प्रतिशोध की भावना से उग्र राष्ट्रवाद से निपटा गया उसने कालांतर में उसके ख़तरे को और भी धारदार बनाने का काम किया.
जिस तरह जनतांत्रिक पद्धति के अमल में निहित अतिचार ने इटली में मुसोलिनी के फ़ासीवाद को जन्म दिया था उसी तरह जर्मनी में हिटलर के नाज़ीवाद को. यह ज़रूर है कि मुसोलिनी को जनतंत्र का विध्वंसकर शीर्ष पर पहुँचने में बहुत कम समय लगा था जब कि हिटलर को अपना लक्ष्य पाने के लिए एक लंबे, टेढ़े-मेढ़े और जटिल रास्ते से गुज़रना पड़ा. लिहाज़ा हिटलर का नाज़ीवाद अपनी निर्मिति में नस्लवाद, उग्र राष्ट्रवाद और जिऑपॉलिटिक्स का अधिक सांद्र और अधिक मादक कॉकटेल बनकर सामने आया. जर्मन परंपरा, मुख्यत: कला और साहित्य की परंपरा में कारलाइल, शॉपेनहावर, नीत्शे, वैगनर, स्टीफ़न ज्यॉर्ज, बर्गसाँ और सोरेल से होती हुई, ‘बाँझ’ बुद्धिवाद के विरुद्ध नायक-पूजा की एक क्षीण-सी रोमानी धारा प्रवाहित होती आ रही थी. उसी को काट-छाँटकर दो जर्मन विचारकों--अल्फ़्रेड रोजेनबर्ग और कार्ल हासफ़र--ने तीक्ष्ण बनाया और उसी से नाज़ीवाद का एक तदर्थ और फ़ौरी दर्शन गढ़ लिया. तथापि मुसोलिनी के हिटलर का अग्रदूत होने और जर्मनी व इटली की धारा में व्यावहारिक साम्य होने से सामान्य बोलचाल की भाषा में नाज़ीवाद को भी फ़ासीवाद कह दिया जाता है.
मुसोलिनी ने कहा था, यूरोप के हर देश में एक ख़ाली सिंहासन है जो किसी समर्थ व्यक्ति का इंतज़ार कर रहा है. उसका कथन मसीहाई सच साबित हुआ. जर्मनी के अलावा आगे-पीछे स्पेन, पोलैंड, युगोस्लाविया, यूनान, बल्गारिया, पुर्तगाल, हंगरी और आस्ट्रिया—ये सभी देश किसी न किसी रंगत के निरंकुश शासन की गिरफ़्त में आ गए. वैसे तो रूसी ज़ार साम्राज्य में भी सर्वहारा की तानाशाही के नाम पर कम्यूनिस्ट पार्टी की, और तत्वत: उसके पोलित ब्यूरो की तानाशाही स्थापित हो चुकी थी जो शीघ्र ही एक व्यक्ति की आजीवन तानाशाही में अंतरित होनेवाली थी और कालांतर में मानव-स्वभाव की विषमताओं से टकराकर अव्यवहार्य सिद्ध होनेवाली थी, किंतु उसके पीछे दो पीढ़ियों का सदाशयी और समग्र चिंतन तथा हज़ारों प्रतिबद्ध लोगों द्वारा समतामूलक समाज के स्वप्न के लिए किए गए संघर्ष और बलिदान की विरासत थी. तो जर्मनी की ही इकलौती ज़मीन थी जिसने इतिहास की धारा को आमूल बदल देने की पूरी संभावना लिए हुए हिटलर की अनन्य निर्मिति--नाज़ी निरंकुशवाद--को मूर्तिमान किया.
असफल म्युनिच विद्रोह के नतीजे में 13 महीने की जेल काटकर 20 दिसम्बर, 1924 को हिटलर बाहर आया. उसकी पुस्तक ‘मेरा संघर्ष’ का पहला खंड प्रकाशित होने से जर्मनी में वह एक परिचित हस्ती बन चुका था. काफ़ी चिंतन-मनन के बाद उसने तय किया कि हिंसक विद्रोह से नहीं, क़ानूनी प्रक्रिया से चुनाव में भाग लेकर ही सत्ता में आने का विकल्प है.
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद, 1919 में लागू हुए जर्मनी के वाइमर (गणतांत्रिक) संविधान में आनुपातिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था होने से किसी दल को बहुमत मिलना बहुत कठिन था और गठजोड़ की सरकारों, जल्दी-जल्दी होनेवाले चुनावों तथा राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियों के प्रयोग से अतिशय राजनीतिक अस्थिरता का माहौल था. गणतांत्रिक संविधान लागू होने के शुरुआती वर्षों में जनतांत्रिक समाजवादी (Social Democratic) दल के, जो दरअसल श्रमिक संघों पर एकछत्र वर्चस्व रखनेवाला एक मार्क्सवादी दल था, नियंत्रणवाली सरकारों की स्थिरता का सीमित कालखंड समाप्त हो चुका था. शुरू में जनतांत्रिक समाजवादी दल की सदस्यता बहुत व्यापक थी किंतु पुरानी व्यवस्था के प्रतिक्रियावादी तत्वों और उनके प्रतिष्ठानों के प्रति जनतांत्रिक समाजवादी दल द्वारा नरम और सहिष्णु रुख़ अपनाने की नीति के चलते श्रमिकों का रुझान उत्तरोत्तर साम्यवादी दल की ओर बढ़ता गया. श्रमिक-संघों के नियंत्रण को लेकर जनतांत्रिक समाजवादियों और साम्यवादियों में जबर्दस्त प्रतिद्वंद्विता थी जिसने दोनों को कमज़ोर किया और हिटलर के नाज़ी दल के लिए स्पेस बनाया. इनमें से जनतांत्रिक समाजवादियों में हिंसा का जवाब हिंसा से देने की न तो प्रवृत्ति थी, न सामार्थ्य, किंतु सोवियत रूस द्वारा निर्देशित-नियमित साम्यवादी दल हिंसा के सरंजाम से पूरी तरह लैस था और अपने लक्ष्य के लिए इसका उपयोग करने से उसे कतई गुरेज़ नहीं था. ऐसे सरंजाम की एक सीमा यह होती है कि इसमें निर्णायक विजय और पूरी तरह ख़त्म हो जाने के बीच कोई तीसरा विकल्प नहीं होता. लिहाज़ा, नाज़ी पार्टी के सत्ता संघर्ष का दौर उसके विध्वंसक दस्तों और साम्यवादियों के बीच लगातार चलनेवाली हिंसक झड़पों का दौर बन गया, जिसके हासिल में नाज़ी दस्ते उत्तरोत्तर अधिक आक्रामक और उनकी कार्रवाइयाँ आधिक हिंसक होती गईं. विध्वंसक दस्तों की कार्रवाइयाँ, अतिशय भावप्रवणता से अपने साथ बहा ले जानेवाले हिटलर के बड़बोले भाषण और संसदीय राजनीति में बेहिचक जोड़-तोड़ जनतंत्र की नाज़ी पद्धति के तीन प्रमुख स्तम्भ हैं.
फ़्रांसीसी सेनाएँ 1924 में रुहर से लौट गई थीं किंतु जर्मनी का औद्योगिक ढाँचा जर्जर करने में अपना योगदान देने के बाद. उसके उपरांत ही हिटलर की पुस्तक ‘मेरा संघर्ष’ का दूसरा खंड प्रकाशित हुआ. देश के आर्थिक परिदृश्य में जबर्दस्त निराशा थी. हर्जाने की राशि चुकाने का दबाव और अभूतपूर्व मँहगाई व मुद्रा-स्फीति का विकट दौर. 1914 में मार्क और शिलिंग का मूल्य बराबर था किंतु सितम्बर, 1923 तक आते-आते एक शिलिंग दस लाख मार्क के बराबर (एक अमेरिकी डॉलर =130 बिलियन मार्क!) होकर फालतू काग़ज़ बन गया था. 1923 के एक फ़ोटो में एक जर्मन महिला मार्क के काग़ज़ी नोटों का इस्तेमाल अपनी अँगीठी जलाने के लिए कर रही है. जर्मनी में श्रमिक-संगठनों के काफ़ी सशक्त होने और श्रमिक-हितों की रक्षा में पूरी तरह सन्नद्ध होने से श्रमिक इस स्थिति से ज़्यादा प्रभावित नहीं हुए. इसकी सबसे बड़ी गाज गिरी निम्न मध्यवर्ग और मध्यवर्ग पर जिसकी सारी कमाई और बचत हवा में उड़ गई. यही संत्रस्त मध्यवर्ग था जो सबसे पहले नाज़ी दल की ओर आकृष्ट हुआ.
देश में बेरोज़गारी चरम पर थी. एक ओर बेसहारा हुई युद्ध-विधवाएँ तो दूसरी ओर युद्ध से लौटे और निरस्त्रीकरण से बेरोज़गार हुए सैनिक, जिनमें बड़ी संख्या में अपंग भी शामिल थे. बेरोज़गारों के लिए न खाने का ठिकाना, न रहने का. ठंडी रातों में ऐसे आश्रय के लिए भी, जहाँ उन्हें तनी हुई रस्सियों के सहारे कतारों में तिरछे खड़े होकर सोना पड़ता था (एक फ़ोटो इस दृश्य का भी उपलब्ध है), कुछ भुगतान करना होता था. जर्मनी के ऐसे विकट समय में सम्पन्नता की नई ऊँचाइयाँ छूता अमेरिका हर्जाने के भुगतान के लिए क़र्ज़ देने के लिए आगे आया. क़र्ज़ की राशि हर्जाने की क़िस्तों से काफ़ी बढ़कर थी. खदानों और कारख़ानों में इस राशि का समुचित इस्तेमाल कर जर्मनी ने कच्चे और तैयार माल के रूप में हर्जाने का भुगतान शुरू किया. इससे जर्मन अर्थ-व्यवस्था में दृढ़ता और गतिशीलता आई और 1926 में जर्मनी लीग ऑफ़ नेशन्स में शामिल हो गया. समाजवादी राष्ट्रपति एबर्ट तथा जर्मन पीपल्स पार्टी के स्ट्रेसमैन के कुशल प्रशासनिक नेतृत्व (1923-29) में जर्मनी के शांति और जनतंत्र के मार्ग पर आगे बढ़ने की आशा बँधी.
किंतु सन् 1929 में स्ट्रेसमैन की मृत्यु हो गई और उनका काम अधूरा रह गया. और उसी के साथ इतिहास की सबसे भयानक वैश्विक मंदी का दौर शुरू हो गया। उसी साल वॉल स्ट्रीट (अमेरिकी स्टॉक एक्चेंज) के लुढ़कने से अमेरिका ने जर्मनी सहित सभी योरोपी देशों को दिए जानेवाले क़र्ज़ों की क़िस्त बंद कर दी जिससे मंदी का दौर दुनिया भर में फैल गया. जर्मनी में बैंकों के असफल होने से उत्पादन ठप हो गया और फिर से बेरोज़गारों की बाढ़ आ गई. मंदी के कठिन दौर के इन असंतुष्टों को हिटलर के भाषणों में आशा की एक किरण दिखी और वे भी नाज़ी पार्टी की ओर उन्मुख हो गए. कम्यूनिस्ट-विरोध के कारण नाज़ियों को पूँजीपतियों से आर्थिक सहयोग मिलना ही था जिससे उसके प्रचार-तंत्र को मज़बूती मिली और उसकी मारफ़त अधिक से अधिक लोगों को अपनी ओर खींचने का मार्ग प्रशस्त हुआ.
(क्रमश:)
कमलकांत त्रिपाठी
Kamlakant Tripathi
फ़ासीवाद और नाज़ीवाद का उदय: ऐतिहासिक परिस्थितियाँ (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/3_12.html
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