ज्योतिबा फुले: अवतारवाद के आवरण में ‘ईरानी आर्य भटों’ का क्रमिक आक्रमण ~
प्राच्यविद्या-विशारदों द्वारा हिंदू अवतारों में डार्विन का विकासवाद देखने के ठीक विपरीत ज्योतिबा फुले (1826-1890) पौराणिक अवतारवाद में ईरानी आर्य भटों द्वारा देश के मूलनिवासियों पर क्रमिक आक्रमण को मिथकीय आवरण से ढकने का प्रयास मानते हैं। सत्यशोधक समाज के संस्थापक फुले दलितवाद के प्रतीक-पुरुष हैं। उन्होंने (अंग्रेजी में लिखी 10 पृष्ठों की प्रस्तावना के साथ) मराठी में लिखी अपनी पुस्तक ‘ग़ुलामगीरी’ (1885) में अवतारवाद को शूद्रों-अतिशूद्रों के हित में ब्राह्मणों की ‘पोल खोलने’ के प्रकट मक़सद से व्याख्यायित किया है। उनके मतानुसार ईरान के आर्य भटों (ब्राह्मणों) के हिंसक आक्रमण के पूर्व भारतीय समाज एक समृद्ध, समतामूलक और ख़ुशहाल समाज था। यहाँ के मूल निवासियों को ईरानी आर्य भटों ने शूद्र (क्षुद्र) का नाम दिया। और जिन्हें अतिशूद्र का दर्जा देकर राक्षस या असुर कहा, वे वस्तुत: ब्राह्मणी आक्रमण के विरुद्ध अधिक वीरता से लड़नेवाले लोग थे। इन ईरानी आर्य भटों के लिए रक्षक राक्षस हो गए और शूर (सूरमा) असुर। चूँकि राक्षस और असुर शूद्रों के नायक के रूप में, उनकी अपेक्षा अधिक उग्रता से लड़े थे, ब्राह्मणों ने प्रतिशोध में उन्हें अधिक क्रूरता से दबाया और जातीय सोपान में सबसे नीचे, अस्पृश्य बनाकर रख दिया। फुले के अनुसार विजेताओं ने अपनी भटशाही के पुष्टीकरण और स्थायित्व के लिए एक धार्मिक विचारधारा गढ़ी जो ब्राह्मण-वर्चस्व पर आधारित थी, जिसमें जन्म से असमानता और निरंतर शोषण तथा उत्पीड़न की सुदृढ़ व्यवस्था थी। पुराणों का अवतारवाद उसी गढंत का एक हिस्सा था।
विष्णु के विभिन्न अवतारों को फुले ईरानी आर्यों द्वारा आक्रमण करके मूल निवासियों को जीतने और अधीन बनाने के भिन्न-भिन्न चरण मानते हैं। उनके अनुसार ये आक्रमण समुद्र-मार्ग से हुए थे। पहला आक्रमण छोटी-छोटी नावों में हुआ, जिन्होंने मछली की तरह तेज़ी से आगे बढ़ते हुए, समुद्र को पार किया, जिसके चलते आक्रमण के नेता को ‘मत्स्य’ का उपनाम दे दिया गया। आक्रमणकारी पश्चिमी समुद्र-तट पर उतरे और स्थानीय क्षेत्रपति शंखासुर को मारकर उसका क्षेत्र छीन लिया। मत्स्य की मृत्यु तक वह क्षेत्र आर्यों के अधिकार में रहा किंतु उसके बाद शंखासुर के लोगों ने मत्स्य के क़बीले पर भयंकर आक्रमण कर उसे परास्त कर दिया। वे मैदान से भाग निकले। शंखासुर के लोगों ने उनका पीछा किया। वे एक पहाड़ी पर स्थित घने जंगल में छिप गए।
उसी समय ईरान से आर्यों का दूसरा और पहले से बड़ा क़बीला आ पहुँचा। संख्या में अधिक होने से वे पानी के ऊपर कछुए की तरह धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। इसलिए उनके मुखिया को ‘कच्छप’ कहा गया। सबसे पहले उन्होंने पहाड़ी की एक ढलान पर क़ब्ज़ाकर और मूल निवासियों को वहाँ से भगाकर, पहले आए ईरानियों को मुक्त किया। मूल निवासी ‘द्विज (दुबारा?) आए, द्विज आए’ चिल्लाते हुए पहाड़ी की दूसरी ओर जाकर नए क्षेत्रपति कश्यप के नेतृत्व में फिर से जुड़ गए। कच्छप के लोग पहाड़ी की ढलान से नीचे उतरे और इतनी दृढ़ता से लड़े कि मृत्यु-पर्यंत कच्छप ने अपने पीछे के पहाड़ी क्षेत्र को क्षेत्रपति कश्यप के हाथ में नहीं जाने दिया (पौराणिक कथा में कच्छप का मंदराचल पर्वत को अपनी पीठ पर स्थिर बनाए रखने की समांतरता !)।
उसके बाद आर्य मुखिया वराह आया। वह देखने में बहुत गंदा था, उसकी आदतें और व्यवहार भी बहुत फूहड़ थे, किंतु वह अपने प्रतिद्वंद्वी पर टूट पड़ने में बहुत तेज़ था। मूल निवासियों के दो योद्धा हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु उसे घृणा से सूकर कहते थे। इस तिरस्कार से बौखलाकर उसने उनके प्रदेशों पर बार-बार आक्रमण किया और उनके निवासियों को घोर यातनाएँ दीं। अंत में एक युद्ध में उसने हिरण्याक्ष (हिरण्यगर्भ) को मार दिया। उसका परिणाम यह हुआ कि देश के सभी क्षेत्रपतियों में घबराहट फैल गई। वे लड़खड़ा गए। उसी समय वराह की मृत्यु हो गई।
इसके बाद हिरण्यकशिपु को हराने के लिए ईरान से नृसिंह नाम का मुखिया आया। हिरण्यकशिपु को खुले युद्ध में हरा पाने में असमर्थ, उसने हिरण्यकशिपु के अबोध बेटे प्रह्लाद को फुसलाकर उस पर अपना धर्म थोप दिया। भ्रष्ट प्रहलाद ने हरहर नाम के अपने कुलस्वामी की पूजा छोड़ दी। नृसिंह ने प्रह्लाद को अपने पिता की हत्या करने के लिए उकसाया किंतु ऐसा अमानवीय कार्य करने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। एक दिन मौक़ा देखकर नृसिंह ने बाघ का स्वाँग करनेवालों की तरह अपना पूरा बदन रँगवाया, मुँह में बड़े-बड़े नक़ली दाँत और बड़े-बड़े बालों के दाढ़ी-मूँछ लगवाए और जरी से बुनी अच्छी-सी साड़ी पहनकर, घूँघट निकाले, नखरीली औरत की तरह झूमते-लहराते, प्रह्लाद की मदद से, बड़े-बड़े खंभों वाले हिरण्यकशिपु के महल में दाख़िल होकर एक खंभे की ओट में खड़ा हो गया। जैसे ही हिरण्यकशिपु एकांत में आराम करने के लिए पलंग पर लेटा, नृसिंह ने सर का घूँघट हटाकर, आँचल को खोलकर कमर में लपेट लिया और खंभे की ओट से निकलकर मुट्ठी में छिपाए बघनखे से उसका पेट फाड़कर उसकी हत्या कर दी। फिर वहाँ के सभी ‘द्विजों’ को लेकर अपने देश भाग गया। प्रह्लाद को जब एहसास हुआ कि उसे धोखा दिया गया है, उसके लोगों ने इरानी आर्यों को द्विज कहना बंद कर दिया और उन्हें ‘विप्रिय’ (अप्रिय, धोखेबाज) कहने लगे। इसी विप्रिय से उनका नाम विप्र पड़ गया।
प्रह्लाद के बाद उसका पुत्र विरोचन, फिर विरोचन का पुत्र ‘बली’ राजा बना। बली बहुत बड़ा योद्धा निकला। वह एक न्यायप्रिय और लोकप्रिय राजा था किंतु राज्यविस्तार में रुचि रखता था। पहले उसने पास-पड़ोस के क्षेत्रपतियों को ‘दुष्ट आक्रमणकारियों की परेशानी से मुक्त किया और उन पर अपना अधिकार क़ायम किया।‘ फिर उसने अपने राज्य का और विस्तार किया। फुले लिखते हैं—‘यह भी कहा जाता है कि’ सिंहलद्वीप आदि प्रदेश भी उसके अधिकार में थे, वहीं बाली नाम का एक द्वीप है, कोंकण और मावळा में उसके कुछ क्षेत्र थे। वहाँ रत्नागिरि में उसका एक मुखिया ज्योतिबा रहता था। दक्षिण में ‘महाराष्ट्र’ भी उसके अधिकार में था जहाँ के निवासी महाराष्ट्री (मराठा) कहे जाते थे। वह प्रदेश बहुत बड़ा होने से बली ने उसे नौ खंडों में बाँट दिया था, हर खंड का मुखिया खंडोबा कहलाता था।
बली की लोकप्रियता के साक्ष्य में फुले महाराष्ट्र में प्रचलित एक कहावत का उल्लेख करते हैं—इडा पिडा जावो, बळीचे राज्य येवो (अला बला जाए, बली का राज आए)। वे महाराष्ट्र की ब्राह्मणेतर जातियों में प्रचलित कई परंपराओं और रीति-रिवाजों का भी उल्लेख करते हैं जिनमें बली की कालातीत लोकप्रियता प्रतिबिम्बित है। कई त्योहार हैं जो बली के लोकप्रिय राज्य की याद में मनाए जाते हैं। कई वेदेतर देवों की पूजा होती है जिनके पुजारी ग़ैर-ब्राह्मण जातियों से आते हैं। एकमात्र अपवाद विठोबा हैं जिन्हें, फुले के अनुसार, ब्राह्मणों ने हड़पकर विष्णु के दस प्रमुख अवतारों में शामिल कर लिया (संदर्भ आ चुका है)।
बली के समय विप्रों का मुखिया (बटू) वामन था। उससे बली का राज्य-विस्तार बरदाश्त नहीं हुआ। उसने एक बड़ी सेना खड़ी की और अचानक बली के राज्य की सीमा तक आ पहुँचा। बली ने अपने सरादारों और पड़ोसी क्षेत्रपतियों के पास साँड़नी-सवार भेजकर अपनी-अपनी सेनाओं के साथ मदद के लिए बुलाया। किंतु उनके पहुँचने से पहले ही वामन बली के राज्य की सीमा पारकर, अपने मार्ग में आतंक फैलाता और विध्वंस का कहर ढाता, शीघ्रता से उसकी राजधानी (?) तक पहुँच गया। बली ने अपनी निजी सेना के साथ वामन का मुक़ाबला किया। 38 दिनों तक युद्ध चला। बली की रानी विंध्यावली एक गड्ढा खुदवाकर आठ दिन तक बिना कुछ खाए-पिए उसी में बैठी, बली की विजय के लिए महावीर की प्रार्थना करती रही। अंत में बली मारा गया और विंध्यावली ने इसी दु:ख में आत्मदाह कर लिया। फुले का मत है कि तभी से सती प्रथा चली होगी (पुराणों में इस प्रथा का कोई उल्लेख नहीं मिलता)।
बली की मृत्यु के बाद उसके पुत्र बाणासुर ने एक दिन और युद्ध किया किंतु उसे अपनी सेना के साथ भागना पड़ा। ईरानी सैनिकों ने बली की राजधानी में काफ़ी लूटपाट मचाई। बाद में जब बली के कई सरदार अपनी-अपनी सेनाएँ लेकर बाणासुर के सहयोग में आ गए तो उसने वामन पर धावा बोलकर उसे हरा दिया और उसका पड़ाव लूट लिया। वामन को बाणासुर ने उसकी सेना के साथ ‘हिमालय की’ पहाड़ी तक खदेड़ दिया और पहाड़ी के प्रवेशमार्ग पर घेराबंदी करके बैठ गया। वामन और उसकी सेना दाने-दाने को मोहताज हो गई। अंतत: वामन की मृत्यु हो गई।
वामन की मृत्यु के बाद घेराबंदी से संकट में ईरानी ब्राह्मणों के पास नया नेता चुनने का समय नहीं था। आननफानन में उनका नेतृत्व चालाक कार्यालय-प्रबंधक प्रजापति (ब्रह्मा) ने सँभाल लिया। वह इतना अविश्वसनीय था कि दोहरी ही नहीं, एक साथ चार तरह की बातें करता था। इसलिए उसे लोग चतुर्मुख कहने लगे। उसी ने सूखे ताड़पत्रों पर नुकीली डंडी से कुरेदकर लिखने की पद्धति ईजाद की। उसी पद्धति से कुछ ईरानी जादू-मंत्र, और वहाँ मौजूद ईरानी आक्रांताओं को जो भी व्यर्थ की नीरस कहानियाँ याद थीं, उनमें मिलाकर, उस काल की प्रचलित भाषा ‘सर्वकृत’ (जिसका अपभ्रंश, फुले के अनुसार, संस्कृत है) में पारसी शैली के छोटे-छोटे छंद की कविताओं में लिख दिया। बाद में उनकी बहुत प्रशंसा हुई और यह धारणा प्रचलित हुई कि ब्राह्मणों के उपन्यासों (पुराणों) और जादू-मंत्रों की विद्या का प्रादुर्भाव ब्रह्मा के मुख से हुआ।
जब वे भोजन-पानी के बिना मरने लगे तो उनमें से कुछ चोरी-छिपे ईरान भाग गए। तभी से यह नियम बना कि समुद्र या अटक नदी लाँघकर उस पार कोई नहीं जाएगा, अन्यथा वह जाति-बहिष्कृत कर दिया जाएगा।
बाद में बाणासुर की मृत्यु हो गई और चारों ओर अराजकता छा गई। उसी समय ब्रह्मा ने भूख से व्याकुल ब्राह्मण परिवारों को साथ लेकर रात के समय अचानक मूल निवासियों पर हमला बोल दिया और बड़े पैमाने पर उनका विनाश किया। उस समय जिन मूल निवासियों ने विशेष बहादुरी से उनका मुक़ाबला किया उन्हें ब्राह्मणों ने महा-अरि (बड़े शत्रु) का नाम दिया जो बाद में महार हो गया (इसी अतिशूद्र या अस्पृष्य जाति में डॉ. अम्बेडकर का जन्म हुआ था; अँग्रेजों ने महारों को मार्शल जाति का स्वीकर कर सेना में भर्ती होने की अर्हता प्रदान की थी)।
उसी समय तितर-बितर होने की स्थिति में ब्राह्मण परिवारों को पहचानने में कठिनाई न हो, इस लिहाज़ से ब्रह्मा ने सभी ब्राह्मणों के गले में सफ़ेद धागे से बनी डोरियाँ डाल दीं जिन्हें ब्रह्मसूत्र या जनेऊ कहा गया। जनेऊ के साथ सबको एक मंत्र दिया गया जिसे गायत्री-मंत्र कहा जाता है। उन सबको शपथ दिलाई गई कि, उन पर कितनी भी मुसीबत आए, यह मंत्र ग़ैर-ब्राह्मणों को नहीं बताएँगे। इस प्रकार ब्राह्मण लोग परस्पर एक-दूसरे को पहचानकर ग़ैर-ब्राहमणों से अलग रहने लगे।
(क्रमश:--समापन क़िस्त)
कमलाकांत त्रिपाठी
Kamlakant Tripathi
हिंदू धर्म में अवतारवाद (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/3_21.html
No comments:
Post a Comment