#(12) गांधी ने 26 मई 1920 को ‘यंग इंडिया‘ में आगे लिखा कि दोनों भाइयों को जेल में नजरबंद रखने का यही एक प्रतिबंध हो सकता है कि वे लोकसुरक्षा के लिए खतरा हैं। अंगरेज सम्राट ने भारत के वाइसराॅय को राजनीतिक कैदियों के मामले में सार्वजनिक क्षमादान का अधिकार दे दिया है कि वे उसे इस तरह इस्तेमाल करें जो लोकसुरक्षा के अनुकूल हो। गांधी ने कहा कि जब इस बात का मुकम्मिल सबूत नहीं मिले कि दोनों भाई राज्य के लिए खतरा होंगे, तब उन्हें बंद रखना ठीक नहीं है। वे काफी दिन जेल में काट चुके। उनका वजन भी कम हो गया है और उन्होंने अपने इरादे सार्वजनिक कर दिए हैं। उन्हें वाइसराॅय द्वारा जेल से छोड़ने का हुक्म देना उसी तरह है जिस तरह किसी जज को अख्तियार होता है कि वह अपराधी को कानून में प्रावधानित चाहे तो कम से कम सजा दे। यदि उन्हें इसके बावजूद निरोध में रखा जाता है तो कारण बताते जनता के लिए सरकार की ओर से पूरा ब्यौरा प्रकाशित होना चाहिए।
(13) गांधी के इस लेख को डूबते सावरकर का तिनका बनाया जा रहा है। कोई भी समझ सकता है कि जब कोई व्यक्ति (1) अपनी क्रांतिकारिता को ही जमींदोज कर रहा है। (2) छूट जाने पर वह गवर्नमेंट आॅफ इंडिया एक्ट, 1919 के तहत आचरण करने की प्रतिबद्धता का बयान कर रहा है। (3) ऐलानिया कह रहा है कि अंगरेजी अधिनियम के तहत उसे देश के लिए कुछ करने की राजनीतिक जिम्मेदारी मिल जाएगी। (4) वे ब्रिटेन से भारत की आजादी भी नहीं चाहते। (5) उनका यह भी कहना है कि ब्रिटेन की संगति में रहकर ही भारत की तकदीर गढ़ी जा सकती है।
(14) अंगरेज की कुटिलता यह थी कि वह उन्हें ही माफी देता (1) जिनके मन में अंगरेजी हुकूमत से पारस्परिक कड़वापन ही खत्म हो जाए। (2) जिन्होंने अपनी राजनीतिक बढोतरी के जोश में कानून तोड़ा लेकिन भविष्य में उसका पालन करने वचनबद्ध होंगे। (3) सरकार को भरोसा है कि उसकी यह उदारता ऐसे लोगों के लिए न्यायोचित होगी जो उसके खिलाफ अपराधों के उनके द्वारा घटित होने की संभावना को ही निर्मूल कर देंगे। (4) ऐसी रिहाई सशर्त ही होनी थी, बिना ऊपर की शर्तों के कारण ही। (5) अंगरेज शायद रिहाई प्राप्त कैदियों से ही मुखबिर बनाना चाहते थे। बाद में हिन्दू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लोगों ने यही तो किया।
अब इसके बाद क्या बचा? ऐसी राजाज्ञा को सिर पर लादकर, जेल से मुक्ति पाकर, क्रांतिधर्मिता को रफादफा कर गांधी का कंधा पकड़ने की जरूरत कहां बची? गांधी ने तो 1919 की राजाज्ञा के पांच महीने बाद ‘यंग इंडिया‘ में लेख उन सभी राजनैतिक कैदियों के वास्ते लिखा था जो इंकलाब और आजादी से बचकर गुमनामी और गुलामी का जीवन जीने का कायर ऐलान कर रहे थे। यह तो दो ऐलानों का मिलन हुआ। शाही ऐलान और गुलामी के ऐलान का।
(15) गांधी यहां साफ कर देते हैं कि आजादी की लड़ाई और क्रांतिकारिता से कन्नी काट ही ली गई है। तो ऐसे सभी व्यक्तियों को जिनमें सावरकर बंधु भी शामिल हैं, शाही ऐलान के तहत छोड़ दिया जाना चाहिए। उन्हें छोड़ने की गांधी ने अपनी कोई स्वैच्छिक तजबीज नहीं की। गांधी बैरिस्टर थे। उनका कहना था जब बाकी राजनीतिक कैदी पंजाब में छोड़ दिए गए, तो सावरकर बंधुओं को तो छोड़ा ही जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने भी जंगे आजादी का अपना लबादा तो उतार दिया है। गांधी ने साफ किया कि शाही फरमान संदेहजनक प्रकरणों में ही नहीं, सभी प्रकरणों के लिए लागू था। वाइसराॅय को इतना ही कहना है कि ऐसों के छोड़ दिए जाने से लोकसुरक्षा को खतरा नहीं होगा। साफ है केवल उन्हें छोड़ा जाए जिनके वजूद में क्रांति और अंगरेजों से लड़ने की ताब खुदकुशी कर चुकी हो। वही तो सावरकर ने किया। ऐसे पराजित व्यक्ति से लोकसुरक्षा को क्या खतरा हो सकता था?
(16) हालांकि यह भी सही है कि वाइसराॅय मांटेग्यू ने तब तक सावरकर बंधुओं से मिले माफीनामे पर विचार करने से इंकार कर दिया था। इसलिए गांधी जी ने जोर देकर कहा कि उनके प्रकरण आलमारियों में बंद नहीं रखे जा सकते। यह देश को जानने का हक है कि इस ऐलान के बावजूद ऐसा क्या है जिसकी वजह से उनको नहीं छोड़ा जा रहा है। अंगरेजों की नीयत, कानूनों की मंशा और भारतीय संघर्षकथा में सावरकर की भूमिका तथा सजा को लेकर इतिहास की नजर से गांधी हर मकड़जाल निकाल देते हैं। सरल हृदय के लेकिन कम्प्यूटरनुमा दिमाग के गांधी दो टूक कहते हैं। गांधी मनुष्य की स्वायत्तता और उसकी आज़ादी पर किसी भी तरह की गैरकानूनी सरकारी बंदिश लगाए जाने की गुलाम भारत में भी संवैधानिक भाषा में मुखालफत करते हैं।
(17) यह गौरतलब है सावरकर बंधुओं की कथित हिंसात्मक गतिविधियों को लेकर ही गांधी ने उन्हें कभी नहीं बख्शा। गांधी के वक्तव्य में द्वैध और श्लेष की कूटनीतिक राॅकेटनुमा प्रहारशक्ति दोनों पढ़ी जा सकती है। गांधी के मुताबिक जनता को भी सावरकर भाइयों पर आरोपित हिंसात्मक या अन्य कानूनतोड़क कार्यवाहियों की पूरी जानकारी होने का जनतांत्रिक अधिकार है। गांधी की समझ में इसके बावजूद सावरकर बंधुओं और जनता दोनों के नैसर्गिक अधिकारों को रहस्यमयता का कानूनी लबादा ओढ़कर अंगरेज कुचल रहे थे।
(18) ताजा इतिहास को यह भी मालूम होना चाहिए। सावरकर की रिहाई के लिए दिए जाने वाले माफीनामे के समर्थन में अनुरोध पत्र पर गांधी के दस्तखत की उम्मीद महसूस की गई थी। गांधी ने दस्तखत करने से इंकार किया। लेकिन सयानेपन तथा मानवीय उदारता के चलते मनुष्यता के लिए अपनी भूमिका का सचनामा गांधी ने 27 जुलाई 1937 के बाॅम्बे क्राॅनिकल के अपने पत्र में लिखा ‘‘सावरकर मानते होंगे कि मैंने उनकी रिहाई के लिए भरसक कोशिश तो की थी। वे यह भी मानेंगे कि मेरे और उनके बीच लंदन में हुई पहली मुलाकात के वक्त आत्मीय रिश्ते थे।‘‘ शेगांव से 12 अक्टूबर 1939 को लिखे पत्र में गांधी ने फिर खुलासा किया वे अपनी बात समझाने के लिए सावरकर के घर भी गए थे। भले ही उसे ठीक नहीं समझा गया हो।
कनक तिवारी
(Kanak Tiwari)
उदार गांधी की नज़र में सावरकर-कथा (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/08/2_30.html
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