Friday, 30 September 2022

कमलकांत त्रिपाठी / विशाखदत्त का प्रयोगधर्मी नाटक मुद्राराक्षसम्‌ (4)

मुद्राराक्षसम्‌ का संक्षिप्त भावानुवाद: तृतीय अंक ~

मुद्राराक्षम्‌ का तीसरा अंक चाणक्य और चंद्रगुप्त के बीच प्रायोजित कलह (कृतककलह) का है. है तो यह प्रायोजित किंतु इसकी योजना इतनी युक्तिसंगत और विश्वसनीय है कि यदि विचलित चंद्रगुप्त के कुछ स्वगत कथन न होते तो पाठक को पता ही न चलता, यह पूरा अंक प्रायोजित कलह का है--शत्रुओं को छलने के लिए रचा गया स्वाँग,  नाटक के भीतर नाटक. लेकिन ख़ासियत यह है कि प्रायोजन को एक तरफ़ रख दें तो भी कथा-सूत्र उतना ही दिलचस्प है,  उसमें बस एक विडंबनात्मक वैचित्र्य ज़रूर जुड़ गया है,  जो अन्यथा पाठक / दर्शक को कथा-प्रवाह के साथ अनपेक्षित दिशा में बहा ले जा सकता था।   

इसलिए ठीक ही है कि दर्शकों के सामने अंक के पाँचवें श्लोक के बाद ही इस रहस्य को उद्घाटित कर दिया गया है. चंद्रगुप्त का स्वगत कथन— "...कृतककलहं कृत्वा स्वतंत्रेण  किञ्चित्कालान्तरं व्यवहर्तव्यमित्यार्यादेश:। स च कथमपि मया पातकामिवाभ्युपगत:।" [...आर्य चाणक्य का आदेश है कि कुछ समय तक  प्रायोजित कलह करके मुझे स्वतंत्र व्यवहार करना चाहिए. और वह गले पड़े पाप की तरह मेरे द्वारा अंगीकार भी कर लिया गया है.]

अंक की शुरुआत शरद पूर्णिमा को होनेवाले पारंपरिक कौमुदी महोत्सव के लिए सुगांग राजमहल को सजाने के राज्यादेश की कंचुकी द्वारा घोषणा से होती है.

चंद्रगुप्त पहली बार मंच पर दिखाई पड़ता है. कंचुकी के मार्गदर्शन में सुगांग राजमहल में प्रवेशकर उसकी सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ. राजधर्म की कठोर अपेक्षाओं के सामने अपनी विवशता से त्रस्त. [ इस संदर्भ का एक श्लोक आलेख के शुरू (खंड-एक) में उद्धृत है.]  उसे रोशनी की एक ही किरण दिखती है--यदि आर्य चाणक्य के निरंतर उपदेश से बुद्धि सम्यक्‌ बनी रहे तो हम स्वतन्त्र हैं. शिष्यत्व का यही हासिल है. गुरु सदाचार-युक्त क्रिया को नहीं रोकता, बस अज्ञानवश हुए विचलन पर अंकुश लगाता है;  उसके द्वारा बताए गए मार्ग पर चलने की स्वतंत्रता तो रहती ही है,  और इससे अधिक स्वतंत्रता वरेण्य भी नहीं--चन्द्रगुप्त का निष्कर्ष.

इसी प्रसंग में शरद ऋतु की रमणीयता का स्वल्प वर्णन भी है. वर्षा के उफान और मालिन्य से निकलकर कृशकाय हुई नदियों के बालुकामय तट सफ़ेद बादलों के विस्तार-जैसे लगते हैं. ऐसा प्रतीत होता है जैसे मधुर ध्वनि करते शुभ्र सारस पक्षियों के झुंड और रात में खिली हुई कमलिनी की तरह चमकते नक्षत्रों से व्याप्त दशों दिशाएँ आकाश से उतर रही हों. जलाशय अपनी मर्यादा में सिमट आए हैं, खेतों में बालों के भार से धान की फ़सलें झुक गई हैं,  और मोरों का मद विष की तरह दूर हो गया है;  मानो शरद ऋतु संसार को विनय का पाठ पढ़ा रही हो. 

लेकिन चारों ओर निगाह दौड़ाने पर चंद्रगुप्त को कौमुदी महोत्सव शुरू होने का कोई लक्षण ही नहीं दिखता. कंचुकी (जो अंत:पुर की देखरेख करनेवाला वृद्ध, गुणी ब्राह्मण होता था) काफ़ी टालमटोल के बाद झिझकते हुए बताता है कि महोत्सव को रोक दिया गया है. 

[और बस नाटक के भीतर नाटक शुरू.] 

राजा: (क्रोध के साथ) किसके द्वारा?

कंचुकी: महाराज,  इससे अधिक निवेदन नहीं किया जा सकता.

राजा: आर्य चाणक्य के द्वारा तो नहीं ?

कंचुकी: जिसको अपनी जान प्यारी हो, ऐसा और कौन हो सकता है, महाराज? 

द्वार-रक्षिका को बुलाकर और उसके द्वारा सिंहासन तक ले जाए जाने और उस पर विराजमान होने के बाद-- 

राजा: आर्य वैहीनरि (कंचुकी का नाम), आर्य चाणक्य को देखना चाहता हूँ (यहाँ अभिनय के भीतर अभिनय--आदेश देने के पहले राजकीय औपचारिकता पूरी करने को लक्ष्य करें). 

मामला इतना नाज़ुक है कि वृद्ध वैहीनरि महोदय झींकते-काँखते, अपने काम को कोसते, ख़ुद ही चाणक्य की कुटिया तक पहुँच जाते हैं.

मगध साम्राज्य के अमात्य-प्रवर चाणक्य का आवास--यह कुटिया है कैसी? 

उपलशकलमेतद्भेदकं गोमयानां 
बटुभिरुपहृतानां बर्हिषां स्तूपमेतत्‌।
शरणमपि समिद्भि: शुष्यमाणाभिरामि-
र्विनमितपटलान्तं दृष्यते जीर्णकुड्यम्‌॥3:15॥

[(कंचुकी के शब्दों में) सूखे उपलों को तोड़नेवाला यह पत्थर का टुकड़ा है; यह ब्रह्मचारियों द्वारा लाए गए कुशों का ढेर है, सूखने के लिए रखी समिधा (यज्ञ में प्रयुक्त लकड़ी) के भार से नीचे झुके किनारोंवाला यह छप्पर है. जीर्ण-शीर्ण दीवारोंवाला यह चाणक्य का ही घर तो दिख रहा है.] 

वैहीनरि सोचते हैं--महाराज चंद्रगुप्त को आर्य चाणक्य जो नौकर की तरह ‘वृषल’ (जन्मना हीन) कहकर बुलाते हैं,  ठीक ही है. ऐसा देखा गया है कि सत्य बोलनेवाले लोग भी दीनता में आकर वाचाल हो जाते हैं, राजा मौजूद न हो तब भी उसकी प्रशस्ति में मुँह को थका डालते हैं. निश्चय ही भीतर छिपी अदम्य लालसा ही ऐसा कराती होगी. यदि आदमी नि:स्पृह हो तो उसके लिए तो राजा तृण की तरह तिरस्कार-योग्य है.

[विशाखदत्त के समय में अंग्रेजी की कहावत—End justifies the means—प्रचलित नहीं रही होगी. रही होती तो ऐसी टिप्पणी आ सकती थी कि यह कहावत चाणक्य-जैसे विरले निस्पृह लोगों पर ही लागू होती है, देशप्रेमी बनने या दिखने का हर महत्वाकांक्षी इसका दावा नहीं कर सकता. अब यही कि एक ओर तो ग़रीब जनता के विकास की बात करो और दूसरी ओर दस लाख का सूट देनेवाले को न तो झिड़क सको, न उसे धारण करने से अपने को रोक सको; तब तो इस कहावत का कचूमर ही निकल जाएगा.]

वैहीनरि द्वारा राजा का आदेश बताए जाने पर चाणक्य पूछता है—मेरे द्वारा कौमुदी महोत्सव का निषेध चंद्रगुप्त के कानों तक पहुँच तो नहीं गया? कंचुकी की स्वीकारोक्ति पर चाणक्य का (प्रायोजित) क्रोध भड़क उठता है—किसने पहुँचाया ?

पूरी बात बताने की कंचुकी की हिम्मत नहीं--‘सुगांग राजमहल पहुँचकर महाराज ने स्वयं देख लिया’.

चाणक्य—तब तो आप लोगों ने चंद्रगुप्त को भड़काकर मेरे ऊपर नाराज़ करने में कोई कसर नहीं उठा रखी होगी....ख़ैर चलिए. 

चाणक्य कंचुकी के साथ सुगांग महल पहुँचकर, प्रणामाशीर्वाद के शिष्टाचार के बाद यथोचित आसन ग्रहणकर, राजा से बुलाने का कारण पूछता है.

राजा: आर्य के दर्शन से अपने को अनुगृहीत करने के लिए. 

चाणक्य: (मुस्कराकर) यह विनम्रता छोड़ो, राजा लोग अधिकारी को बिना किसी प्रयोजन के नहीं बुलाते.

राजा: कौमुदी महोत्सव रोकने से आर्य क्या लाभ देखते हैं?

चाणक्य: तो उलाहना देने के लिए बुलाया है?

राजा: नहीं-नहीं, ऐसा न कहिए. निवेदन करने के लिए. 

चाणक्य: जो इस योग्य हो कि उससे निवेदन किया जाय, उसके द्वारा स्व-विवेक के अनुरूप कुछ भी करने पर शिष्य को रोक-टोक तो नहीं करनी चाहिए. 

राजा: वह तो ठीक है,  लेकिन बिना किसी कारण के आर्य (आप) कुछ नहीं करते,  इसलिए पूछ लिया. [आज के  दुनियादार क़िस्म के अधीनस्थों द्वारा बार-बार प्रयुक्त Sir की तरह ‘आर्य’ शब्द बार-बार इस्तेमाल होता था-- ‘आप’ की जगह भी आर्य। मेरा विनीत मत है कि संस्कृत में कहीं भी आर्य या अनार्य शब्द का प्रयोग किसी नस्ल के अर्थ में नहीं हुआ है.] 

चाणक्य: वृषल, तुमने ठीक समझा है. कारण के बिना चाणक्य स्वप्न में भी कुछ नहीं करता. 

राजा: वही कारण सुनने की इच्छा तो मुझे पूछने को प्रेरित कर रही है.

चाणक्य: तो सुनो. इस मामले में अर्थशास्त्र (दंडनीति या राजनीतिशास्त्र) के आचार्य तीन तरह के विधान बताते हैं—राजा के अधीन, मंत्री के अधीन, और दोनों के अधीन. अब जो विधान मंत्री के अधीन है,  तुम्हें उसका कारण ढूँढ़ने की क्या ज़रूरत?  इसके लिए नियुक्त हम मंत्री लोग, जो उचित है,  कर ही रहे हैं.

राजा क्रोध से मुँह फेर लेता है (इतना उकसाने के बाद ही वह दृढ़ हो पाता है कि यह तो नाटक चल रहा है, जिसमें उसे क्रुद्ध होकर आचार्य से लड़ना है).

और उधर राजसभा में सब अनजान-से बने तमाशा देख रहे हैं (योजना के अनुसार ही).

तभी पर्दे के पीछे से दो चारण राजा का स्तुतिगान शुरू करते हैं. इनमें से दूसरा वही है—राक्षस का आदमी स्तनकलश (संदर्भ: अंक दो)

पहला चारण तो दो बहुत ही सुंदर और अर्थगर्भित श्लोकों में क्रमश: शिव और विष्णु से शरद ऋतु को जोड़कर (एक अर्थ शिव /विष्णु के पक्ष में, दूसरा शरद ऋतु के पक्ष में) राजा के लिए आशीर्वचन बोलता है।  

दूसरे चारण स्तनकलश का स्तुतिगान—

सत्वोत्कर्षस्य धात्रा निधय इव कृता: केsपि कस्यापि हेतो-
र्जेतार: स्वेन धाम्ना मदसलिलमुचां नागयूथेस्वराणाम्‌।
दंष्ट्राभङ्गं मृगाणामधिपतय इव व्यक्तमानावलेपा 
नाज्ञाभङ्गं सहन्ते  नृवर नृपतयस्त्वादृशा:सार्वभौमा:॥3:22॥
भूषणाद्युपभोगेन प्रभुर्भवति न प्रभु:।
परैरपरिभूताज्ञास्त्वमिव प्रभुरुच्यते॥3:23॥

[हे नरश्रेष्ठ ! विधाता के द्वारा कुछ लोग किसी कारणवश  अतिशय सामर्थ्य के पुंज (सम्राट) बना दिए जाते हैं. आपकी तरह विख्यात स्वाभिमानी ऐसे चक्रवर्ती सम्राट जानवरों के अधिपति सिंह की तरह होते हैं, जो हाथियों के झुंड के मदजल गिराते मुखियाओं को भी हरा देता है. वे अपनी आज्ञा का उल्लंघन बर्दाश्त नहीं कर सकते,  जैसे शेर अपना दाँत तोड़ा जाना बर्दाश्त नहीं कर सकता. 

आभूषणों के इस्तेमाल से कोई राजा राजा नहीं हो जाता. आपकी तरह राजा वही होता है जिसकी आज्ञा अखंड होती है, जिसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता.]  

चाणक्य: (पहले चारण का शिव और विष्णु की स्तुतिरूप शरद ऋतु का आशीर्वचन और दूसरे का राजा को भड़कानेवाला उपरोक्त स्तुतिगान सुनकर,  स्वगत) पहले चारण का गान तो समझ में आ गया, इस दूसरे का नहीं आ रहा है. (सोचकर) अब समझा, तो यह राक्षस की करामात है. अरे पाजी राक्षस,  दिख रहे हो तुम,  मुझे दिख रहे हो,  कौटिल्य जाग रहा है.

राजा: आर्य वैहीनरि, इन दोनों चारणों को सौ-सौ हज़ार स्वर्ण मुद्राएँ दिलवा दीजिए (जैसे चंद्रगुप्त कुछ ज़्यादा ही स्वतंत्र व्यवहार पर उतर आया हो). 

‘जैसी महाराज की आज्ञा’ कहकर वैहीनरि उठकर चलने को होते हैं. 

चाणक्य: (क्रोध के साथ) वैहीनरि, रुक जाइये, कहीं नहीं जाना है. (राजा की ओर मुख़ातिब होकर) वृषल, धन का ऐसा अपव्यय क्यों?

राजा: (उसी तरह क्रोध के साथ) आर्य के द्वारा मेरी हर चेष्टा पर रोक लगा दी गई है, राज्य मेरे लिए राज्य न रहकर बंधन-जैसा हो गया है. 

चाणक्य: जब राजा स्वयं राज्य का संचालन नहीं करता तो यह दोष आ ही जाता है. सहन नहीं हो रहा तो स्वयं राज्य के संचालन में लग जाओ.

राजा: लीजिए, लग गया. 

चाणक्य: अच्छी बात है,  अब मैं भी अपने कार्य (पठन-पाठन) में लगता हूँ. 

राजा: लेकिन कौमुदी महोत्सव रोके जाने का कारण बताते जाइए.  

चाणक्य: एक कारण तो यह है कि चारों समुद्रों के पार के सैकड़ों राजा जो तुम्हारी आज्ञा शिरोधार्य करते हैं, वह तुम्हारी उस प्रभुता का द्योतक है जो मेरे द्वारा बाधित होते हुए भी तुम्हारे विनय से सुशोभित होती है. 

[दूसरा कारण बताने के पहले चाणक्य प्रतिहारी को अपने सहायक के पास भेजकर वह दस्तावेज़ मँगवाता है जिसमें (प्रकटत: असंतुष्ट होने के कारण) मगध की राजधानी से मलयकेतु के यहाँ जाकर आश्रय लिए हुए आठ अधिकारियों का प्रमाणलेख है और उसे पढ़ना शुरू करता है. [पहले अंक में चाणक्य की योजना के तहत इनके राजधानी से भागने का ज़िक्र आ चुका है,  किंतु प्रमाणलेख से दूसरा पहलू सामने आता है,  जो प्रायोजित के तहत है.]

चाणक्य: हस्तिसेना का सेनापति भद्रभट और अश्वसेना का सेनापति पुरुषदत्त इसलिए गए कि वे  स्त्री-भोग और मदिरा के शौकीन और इसलिए अपने-अपने काम में असावधान होने से मेरे द्वारा पद-मुक्तकर मात्र जीविका-निर्वाह पर रख दिए गए थे;  ये मलयकेतु के यहाँ जाकर उन्हीं-उन्हीं पदों पर कार्य करने लगे हैं. प्रधान द्वार-रक्षक डिंगरात और तुम्हारा संबन्धी बलगुप्त बेहद लालची होने से तुम्हारे द्वारा दी जानेवाली जीविका को अपर्याप्त समझते थे और अधिक लाभ के लिए शत्रु-पक्ष में चले गए. तुम्हारा बचपन का सेवक राजसेन तुम्हारी कृपा से हाथी-घोड़े और कोष के रूप में एक विशाल सम्पत्ति सहसा पा गया था, उसके विनाश (शासन द्वारा अपहरण) की आशंका से मलयकेतु की शरण में चला गया. प्रधान सेनापति का छोटा भाई भागुरायण कुसुमपुर की घेराबंदी के समय पर्वतक के संपर्क में आकर उसका मित्र और उसके मारे जाने पर उसके पुत्र मलयकेतु का विश्वासपात्र बन गया. उसने मलयकेतु को सुरक्षा के लिहाज़ से मगध से निकल जाने की सलाह दी,  और बाद में शत्रुओं के सहायक चंदनदास वगैरह के पकड़ लिए जाने पर ख़ुद भी डर से भागकर मलयकेतु की शरण में चला गया, और वहाँ उसका मंत्री बन गया. मालव राजपुत्र लोहिताक्ष और कुसुमपुर का क्षत्रिय-गण-प्रधान विजय वर्मा अपने बांधवों को तुम्हारे द्वारा सम्मानित किया जाना ईर्ष्यावश सहन नहीं कर पाए और मलयकेतु के आश्रय में चले गए. 

चंद्रगुप्त बाक़ायदे जवाबतलब करता है—इन सब का प्रतिकार क्यों नहीं किया गया ?  [वह ख़ुद राज्य-संचालन के लिए अभी-अभी कटिबद्ध हुआ है न.] 

चाणक्य: असंतुष्ट प्रजाओं का प्रतिकार दो तरह से करने का विधान है—कृपा (अनुग्रह) या दमन (निग्रह). भद्रभट्ट और पुरुषदत्त पर कृपा करने का मतलब है फिर से उन्हें क्रमश: हस्तिसेना और अश्वसेना का प्रधान बना देना, फिर तो वे इन दोनों सेनाओं को अपनी बुरी आदतों के चलते विनष्ट ही कर देंगे. बेहद लालची डिंगरात और बलगुप्त संपूर्ण राज्य दे देने से भी संतुष्ट नहीं होनेवाले. अनायास पाये धन की सुरक्षा के लिए भयभीत राजसेन और मृत्युदंड से भयभीत भागुरायण पर कृपा करने की गुंजाइश कहाँ है?  अतिशय स्वाभिमानी लोहिताक्ष और विजयवर्मा पर कौन-सी कृपा उनमें प्रीति पैदा कर सकेगी,  मुझे नहीं मालूम. जहाँ तक दमन का सवाल है,  अभी-अभी हमने नंदों का वैभव प्राप्त किया है, उनके विनाश में साथ देनेवाले इन लोगों को कठोर दंड देने से हम नंदकुल में अनुरक्त प्रजाओं के बीच कितने अविश्वसनीय बन जायेंगे!....और अब इन लोगों पर अनुग्रह करनेवाला, राक्षस की योग्य मंत्रणा माननेवाला, और अपने पिता की हत्या से क्रुद्ध, मलयकेतु जब विशाल ‘म्लेच्छ’  सेना लेकर हमारे ऊपर आक्रमण के लिए तत्पर है तो यह प्रतिरक्षा की तैयारी का समय है या कौमुदी महोत्सव मनाने का ? 

राजा: इस अनर्थ के कारणभूत मलयकेतु को भागने क्यों दिया गया? 

चाणक्य: भागने न दिया जाता, तो या तो पकड़कर बन्दी बनाना पड़ता, नहीं तो आधा राज्य देना पड़ता. बंदी बनाने का मतलब उसकी इस धारणा को पुष्ट करना होता कि उसके पिता पर्वतक की हमारे ही द्वारा कृतघ्नतापूर्वक हत्या करवा दी गई. वादे के अनुसार आधा राज्य देने पर भी उसकी इस धारणा के चलते कि पर्वतक की हत्या हमने कराई है, हमारी कृतघ्नता नहीं धुलती. अत: हर हाल में कृतघ्नता का आरोप ही हमारे हाथ लगता. 

राजा: फिर राक्षस को क्यों जाने दिया गया?  

चाणक्य: राक्षस का नंदों के प्रति अनुराग है. उसके एक ही स्थान पर रहने से प्रजा उसका स्वभाव जानती है. नंद के प्रति अनुरक्त प्रजाओं को उस पर पूरा भरोसा है, वह बुद्धि और पुरुषार्थ में बढ़-चढ़कर है. उसके अनेक सहायक हैं और उसके पास प्रभूत कोष है. यदि वह यहीं नगर में रहता तो सशक्त आंतरिक विद्रोह खड़ा कर सकता था. बाहर जाकर वह जो भी कर रहा है, उसका प्रतिकार किया जा सकता है.

राजा: फिर जाते समय उसे आक्रमण करके बंदी क्यों नहीं बना लिया गया?

चाणक्य: यदि प्रचंड आक्रमण किया जाता तो वह मृत्यु को प्राप्त हो सकता था, जिससे तुम उस जैसे योग्य पुरुष की सेवाओं से वंचित रह जाते. नहीं तो तुम्हारी बहुत सारी सेना नष्ट कर सकता था,  कई सेनापतियों को मार सकता था. 

राजा: हम वचन में आर्य से पार नहीं पा सकते. लेकिन मुझे तो अमात्य राक्षस ही सब तरह से प्रशंसनीय लगता है.

चाणक्य:  ‘न कि आप’  इतना और जोड़ दो....राक्षस ने ऐसा क्या कर लिया?

राजा: यही कि हमारे द्वारा विजित इस नगर में वह हमारे गले पर पैर रखकर रहता रहा, हमारी सेना की गतिविधियों में विघ्न डालता रहा और जब चाहा तब निकल लिया. और हम अपनी घबराहट में अपने विश्वसनीय लोगों पर भी विश्वास नहीं कर रहे हैं.

चाणक्य: ओह, बस यही किया राक्षस ने! मैंने तो समझा,  नंद की तरह तुमको  उखाड़कर मलयकेतु को पृथ्वी का राजाधिराज बना दिया.

राजा: यह जो नंदों का विनाश और राजाधिराज के पद पर मेरी प्रतिष्ठा हुई है, उसमें आर्य का क्या है? 

चाणक्य के क्रोध का विस्फोट— ‘99 सौ करोड़ सुवर्णमुद्राओं के स्वामी, अभिमानी नंदों का विनाश, जिनकी चिताएँ आज तक नहीं बुझीं, मेरे अतिरिक्त और कौन कर सकता था!... और देखो,  नंदों के नष्ट होने से शांत हुई मेरी कोपाग्नि को तुम फिर भड़का रहे हो, लगता है तुम भी मृत्यु के वशीभूत हो गए हो.’

राजा: (घबराकर, स्वगत) लगता है,  आर्य सचमुच कुपित हो गए.  

चाणक्य: (कृत्रिम क्रोध को रोककर) वृषल, उत्तर-प्रत्युत्तर से क्या लाभ! यदि राक्षस को मुझसे श्रेष्ठ समझते हो तो यह लो शस्त्र (अमात्य-प्रमुख का राजचिह्न-रूप दंड) और उसी को बुलाकर दे दो.

दंड को वहीं छोड़कर, चाणक्य उठ खड़ा होता है और आकाश की ओर देखकर राक्षस को चुनौती-सी देता है— तुमने जो यह सोचकर कि चाणक्य से विलग करके चंद्रगुप्त को जीत लूंगा, भेद नीति का सहारा लिया है, उससे तुम ही भेद दिए जाओगे, राक्षस. और निकल जाता है. 

उसके जाने के बाद—

राजा: आर्य वैहीनरि (कंचुकी), अब से चाणक्य को एक किनारेकर चंद्रगुप्त स्वयं राज्य करेगा. प्रजा को इसकी सूचना दे दी जाए.

कंचुकी: (स्वगत) सिर्फ़ ‘चाणक्य’ ! ‘आर्य चाणक्य तक नहीं’!! ख़ैर, इसमें महाराज का दोष नहीं, क्योंकि राजा जो अनुचित करता है, वह मंत्री का ही दोष होता है.

[हमें इंग्लैण्ड का संविधान पढ़ाते समय  वहां  संवैधानिक राजतंत्र के विकास के साथ प्रकाश में आई यह उक्ति बताई गई थी—King can do no wrong. यदि हम  विशाखदत्त को चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के काल में रखकर इस कथन को मौर्य काल के बजाए उनके युग की अवधारणा मानें, तो भी यह चौथी-पाँचवीं शताब्दी की बात साबित होती है, जब इंग्लैंड रोमन साम्राज्य का एक नगण्य, सर्वथा अविकसित हिस्सा था. यह पुष्पक विमान के सहारे की जानेवाली बेसिरपैर की अटकलों-जैसी बात नहीं है. पूरा मुद्राराक्षसम्‌ एक पूर्ण विकसित राजनीतिक-प्रशासनिक संस्कृति का आईना है.]  

कंचुकी के निकल जाने के बाद राजा का स्वगत कथन—हमारे कलह को लोगों द्वारा यथार्थ समझ लिए जाने में अपने कार्य की सिद्धि देखनेवाले आर्य चाणक्य सफल-मनोरथ हों.

फिर द्वार-रक्षिका शोणोत्तरा से यह कहते हुए कि इस नीरस विवाद से मुझे सरदर्द हो गया है,  मुझे शयनकक्ष का मार्ग बताओ, चंद्रगुप्त भी निकल जाता है. 

और इस तरह कथा-योजना में प्रायोजित का एक अपूर्व और अद्भुत नाटकीय तत्व लिए हुए तीसरा अंक समाप्त होता है.
.....................
(क्रमश:)

कमलाकांत त्रिपाठी
Kamlakant Tripathi

विशाखदत्त का प्रयोगधर्मी नाटक मुद्राराक्षसम्‌  (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/3_28.html 

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