Wednesday, 28 September 2022

कमलाकांत त्रिपाठी / विशाखदत्त का प्रयोगधर्मी नाटक मुद्राराक्षसम्‌ (3)



मुद्राराक्षसम्‌ का संक्षिप्त भावानुवाद: द्वितीय अंक ~
 
राक्षस का गुप्तचर विराधगुप्त. अहितुंडक (सर्पजीवी=सँपेरा) के वेष में. इस वेष में उसका नाम है जीर्णविष. कुसुमपुर के ताज़ा समाचार की रिपोर्ट राक्षस को देने मलयकेतु की राजधानी आया हुआ है. कुसुमपुर में चाणक्य की बुद्धि से परिचालित चंद्रगुप्त को देखकर उसे राक्षस निष्फल लगता था, यहाँ राक्षस की बुद्धि से परिचालित मलयकेतु को देखकर चाणक्य निष्फल लगता है. [वस्तुत:, जैसा कि अमूमन होता है, एक पक्ष की ओर झुके होने के कारण उसे वे बारीक बिंदु दिखाई ही नहीं पड़ते तो चाणक्य का पलड़ा भारी करते हैं, किंतु सावधान पाठक को ज़रूर दिखाई पड़ेंगे.] इतना अवश्य है कि मगध की राजलक्ष्मी परस्पर भिड़े दो जंगली हाथियों के बीच अनिश्चित, भयभीत, इधर से उधर झूलती हथिनी की तरह खिन्न है—वस्तुस्थिति यही है जो नाटक को नाट्य-तत्व से सराबोर करती है.

गुप्तचर विराधगुप्त के पहुँचने से पहले राक्षस का मंच पर प्रवेश. नंदों के पराभव से मायूस,  अलंकरण-हीन,  चिंता व शोक से विह्वल. और मलयकेतु का आश्रय लेने के अपराध-बोध से ग्रस्त भी. राक्षस का स्वगत कथन--  

नेदं विस्मृतभक्तिना न विषयव्यासङ्गरूढात्मना 
प्राणप्रच्युतिभीरुणा च न मया नात्मप्रतिष्ठार्थिना।
अत्यर्थं परदास्यमेत्य निपुणं नीतौ मनो दीयते
देव: स्वर्गगतोपि शात्रववधेनाराधित: स्यादिति॥ 2:5॥

[नंद से इतर मलयकेतु की दासता स्वीकारकर जो मैं राजनीति में इतनी सावधानी से दत्तचित्त हुआ हूँ, वह इसलिए नहीं कि नंद के प्रति अपनी निष्ठा भूल गया, या मेरा मन भोग-विलास में आसक्त हो गया, या मुझमें मृत्यु का डर समा गया, या मुझे मान-सम्मान की लालसा है, बल्कि इसलिए कि स्वर्गवासी होने के बाद ही सही, हमारे स्वामी शत्रुओं के विनाश से संतुष्ट हों (अनायास नहीं कि चाणक्य उसके गुणों पर मुग्ध है)]

उसी समय मलयकेतु का कञ्चुकी (अंत:पुर का द्वारपाल) कुछ आभूषणों के साथ राक्षस से यह निवेदन करने आता है कि उसके (राक्षस के) बहुत दिनों से साज-शृंगार छोड़ देने के कारण कुमार मलयकेतु बहुत दुख़ी हैं;  इसलिए यदि वह इन्हें धारण कर ले तो कुमार का दु:ख दूर हो जाएगा। राक्षस पहले तो मना करता है, लेकिन फिर अपने वर्तमान आश्रयदाता और सहयोगी का मन रखने के लिए आभूषण धारण कर लेता है—नाटक की अंतर्ग्रंथित विडंबना में एक और गाँठ.      

गुप्तचर विराधगुप्त (जीर्णविष) का मंच पर प्रवेश. सूचित किए जाने पर भी राक्षस उसे पहचानता नहीं. उसकी स्मृति चाणक्य-जैसी कहाँ! अपनी वर्तमान मनस्थिति में यह कहकर टालना चाहता है कि उसे साँप देखने की उत्कंठा नहीं है, कुछ इनाम वगैरह देकर सँपेरे को विदा कर दिया जाए. विवश गुप्तचर प्राकृत भाषा का एक कूट पद लिखकर राक्षस के पास भेजता है—‘मधुमक्खी जब निपुणता से कुसुम (कुसुमपुर/ फूल) का रस चूसकर निकलती है तो वह दूसरों का हित ही करती है’. गनीमत है कि पत्र पढ़कर राक्षस को पद का निहितार्थ समझ में आ जाता है—भ्रमण करनेवाला गुप्तचर जब कुसुमपुर का सारा रहस्य समेटकर बाहर आया है तो वह स्वामी का हित ही करेगा. 

कुसुमपुर का रहस्य?  राक्षस-पक्ष के पराभव का एक के बाद एक चल रहा अनवरत सिलसिला. चंद्रगुप्त द्वारा कुसुमपुर की चारों ओर की गई घेराबंदी दीर्घ काल तक चलने से नागरिकों को होनेवाले नित नये कष्ट को सहन करने में असमर्थ धननंद का उत्तराधिकारी सर्वार्थसिद्धि सुरंग के रास्ते तपोवन निकल गया (बाद में पता लगने पर गुप्तचर द्वारा वहीं उसकी हत्या करा दी गई). स्वामी के अभाव में नंद-सेना ढीली पड़ गई. नगर में बहुत-से लोग चंद्रगुप्त की जय-जयकार करने लगे. नंद-राज्य वापस लेने के भावी अभियान में जब राक्षस भी सुरंग से बाहर निकल गया, उसके द्वारा नियुक्त विषकन्या ने (जीवसिद्धि के माध्यम से परिचालित चाणक्य के कुचक्र के चलते)  चंद्रगुप्त के बजाय पर्वतक की हत्या कर दी. पिता की इस हत्या से भयभीत मलयकेतु भाग खड़ा हुआ. पर्वतक की हत्या की ज़िम्मेदारी राक्षस के ऊपर डालकर उसकी जगह उसके भाई वैरोचक को आधा राज्य देने का भरोसा दिया गया. चाणक्य ने नगर के शिल्पियों को बुलाकर कहा कि ज्योतिषी के मतानुसार चंद्रगुप्त अर्द्धरात्रि में नन्दों के सुगांग महल में प्रवेश करेगा, तदनुरूप महल और उसके द्वार की सजावट की जाए. जब प्रधान शिल्पी दारुवर्मा ने बताया कि हम लोगों ने तो इसकी प्रत्याशा में पहले ही महल का प्रथम द्वार सुवर्णनिर्मित, मेहराबदार तोरण से सजा दिया है और केवल भीतर की सजावट बाक़ी है, तो चाणक्य संतुष्ट दिखता हुआ बोला कि शीघ्र ही उसे उसकी कुशलता के अनुरूप पुरस्कार मिलेगा. [दरअसल इसमें उसने राक्षस का षड्यंत्र ताड़ लिया और उसकी ऐसी काट सोच ली जिसमें षड्यंत्रकारी के लिए समुचित दंड (पुस्कार!) निहित हो]. फिर उसी रात राक्षस के भाई वैरोचक को चंद्रगुप्त के साथ एक ही आसन पर बिठाकर दोनों का राज्याभिषेक कर दिया गया.

इसके बाद जो हुआ, वह बेहद अहम, बेहद रोमांचक (और समझने में थोड़ा जटिल भी) है. वैरोचक के शरीर को स्वच्छ मोतियों से जड़े विविध रंगों के वस्त्रों से निर्मित (असली नहीं) कवच पहनाकर,  उसकी केशराशि को मणि-मुकुट से ठीक से ढककर, सुगंधित पुष्पमालाओं को तिरछा पहनाकर, जिससे उसकी छाती (चंद्रगुप्त की तरह) चौड़ी लगे, उसे चंद्रगुप्त की चंद्रलेखा नामक हथिनी पर बिठाकर, समारोह में आए राजाओं के जुलूस के आगे-आगे महल में प्रवेश कराया जाने लगा. फिर पीछे चलनेवाले राजाओं की सवारियाँ बाहर ही रुक गईं. यंत्रयुक्त तोरण के एक हिस्से को गिराकर चंद्रगुप्त की हत्या करने के लिए नियुक्त और ऊपर तोरण में ही छिपकर बैठा पूर्वोक्त प्रधान शिल्पी दारुवर्मा वैरोचक को ही चंद्रगुप्त समझकर तोरण गिराने के लिए सन्नद्ध हो गया. तभी राक्षस द्वारा नियुक्त हथिनी के महावत वर्वरक ने सोने की जंजीर से लटकते सोने के छोटे-से दंड को हाथ में उठाया कि उसके भीतर रखा अंकुश बाहर निकाले. होशियार हथिनी ने इसका आभास मिलते ही पुट्ठे पर लगने जा रहे आसन्न आघात की आशंका से पहले ही अपनी तेज़ चाल धीमी कर दी. उसकी पहले की चाल के हिसाब से सवार पर गिराया गया यंत्रयुक्त तोरण उससे आगे बैठे महावत पर गिर पड़ा जिससे वह बेचारा मारा गया. तब ऊपर बैठे दारुवर्मा ने यंत्र-युक्त तोरण गिराने का दोषी करार दिए जाने के डर से, यंत्र चलाने की लोहे की कील से ही हथिनी पर बैठे वैरोचक को (जिसे पहले ही उसने भूल से चंद्रगुप्त समझ लिया था) मार दिया. फिर तो वैरोचक के पीछे चलनेवाले जुलूस के लोगों ने ही दारुवर्मा को पत्थर मार-मारकर वहीं ख़त्म कर दिया.

राक्षस के पूछने पर गुप्तचर आगे बताता है कि उसके (राक्षस के) विश्वासपात्र वैद्य अभयदत्त ने चंद्रगुप्त के लिए जो योगचूर्ण-मिश्रित औषधि तैयार की थी, ‘दुष्ट’ चाणक्य ने निरीक्षण के लिए उसे सोने के पात्र में रखवाया तो उसका रंग बदल गया. इस तरह उसके विषाक्त मालूम होने पर चाणक्य ने चंद्रगुप्त को उसे पीने से मना कर दिया और वैद्य को ही पीने को बाध्य किया जिससे वह मृत्यु को प्राप्त हो गया. इसी तरह राक्षस द्वारा एक बड़ी धनराशि देकर पटाए गए शयनकक्ष के अधिकारी प्रमोदक के अनाप-शनाप ख़र्च के स्रोत के बारे में पूछे जाने पर भिन्न-भिन्न उत्तर देने से वह पकड़ा गया और मरवा दिया गया. यही नहीं, सोते हुए चंद्रगुप्त पर प्रहार के लिए शयन-कक्ष की दीवार के भीतर राक्षस द्वारा लगाये गये बीभत्सक आदि गुप्तचर भी चाणक्य की ‘कुटिल’ निगाह से नहीं बच पाए. कक्ष में प्रवेश से पूर्व ध्यान से निरीक्षण करने पर दीवार के एक छेद से पके चावल के टुकड़े लेकर निकलती चीटियाँ देखकर शयनकक्ष जलवा दिया गया और धुएँ से बंद हुई आँखों के कारण पहले से बना निकास-द्वार न खोज पाने से वे सब के सब वहीं नष्ट हो गए. फिर तो अत्यधिक सावधान हुए चाणक्य द्वारा राक्षस के सारे विश्वासपात्र लोग पकड़वा लिए गए और उनमें से बौद्ध भिक्षु जीवसिद्धि (जो चाणक्य का मोल है) को विषकन्या द्वारा पर्वतक को मरवाने के ‘आरोप' में तिरस्कार-पूर्वक नगर से निकाल दिया गया.

[राजतंत्र  में राजा के जीवन के लिए ख़तरा कितना व्यापक होता था, ख़ासकर नव-विजित राज्य में पुराने राजवंश के आश्रितों और निहित स्वार्थी तत्वों से घिरे होने पर यह कितना अकल्पनीय हो जाता था,  इसका इतना यथार्थ चित्रण कम ही मिलेगा. रजवाड़ों-बादशाहों और ताल्लुक़ेदारों तक का लिखित और श्रुत इतिहास ऐसे लोमहर्षक कृत्यों और प्रतिकार में उससे भी क्रूर कृत्यों से भरा हुआ है. इसी के चलते शासकों की व्यक्तिगत सुरक्षा का वह पुराना सरंजाम जनतंत्र में भी पीछा नहीं छोड़ रहा है.] 

फिर गुप्तचर विराधगुप्त ने राक्षस को बताया कि ऐसी घोषणा करके कि आपके मित्र और निजी सचिव शकटदास द्वारा ही ये दारुवर्मा वगैरह नियुक्त किए गए थे, उसे सूली पर चढ़ा दिया गया. [शकटदास को सूली पर चढ़ाए जाने से समय जो घटित हुआ (संदर्भ: प्रथक अंक), गुप्तचर उससे अनभिज्ञ है क्योंकि वह उसके पहले ही कुसुमपुर से रवाना हो गया था).

शकटदास की इस ख़बर से शोकाकुल राक्षस दिल कड़ाकर अपने दूसरे मित्र चन्दनदास के बारे में पूछता है. यह बताने के बाद कि अमात्य (राक्षस) का परिवार चंदनदास द्वारा किसी अज्ञात स्थान पर हटा दिया है  गुप्तचर आगे बताने लगता है कि जब चाणक्य द्वारा दबाव डाले जाने पर भी चंदनदास ने आपका परिवार समर्पित नहीं किया तो क्रुद्ध होकर उसने.....

राक्षस (घबराकर)-- ‘उसे मार तो नहीं डाला?’

‘नहीं, लेकिन सम्पत्ति ज़ब्त्कर उसे परिवार-सहित जेल में डाल दिया है.’

‘तो संतोष के साथ ऐसा क्यों कहा कि मेरा परिवार अज्ञात जगह हटा दिया गया, अरे ऐसा कहो, स्त्री-पुत्रों के साथ मैं बाँध दिया गया.’

[मित्र चंदनदास को राक्षस अपने से अभिन्न मानता है और उसके इस कथन में नाटक की इष्ट-पूर्ति का संकेत निहित है.] 

तभी सहायक प्रवेशकर सूचित करता है कि दरवाजे पर शकटदास उपस्थित है  (चूँकि अभी-अभी गुप्तचर ने उसे सूली पर चढ़ाए जाने की ख़बर दी थी, नाटक के मंचन में इस दृश्य-क्रम-जनित नाट्य-तत्व की सघनता का अंदाज़ लगाया जा सकता है).

राक्षस को पहले तो विश्वास नहीं होता, लेकिन गुप्तचर के यह कहने पर कि होनी कुछ भी कर सकती है, वह सेवक की ओर मुख़ातिब होता है--अब उसे अंदर लाने में विलम्ब क्यों कर रहे हो? पीछे-पीछे चलते सिद्धार्थक (चाणक्य का विश्वस्त गुप्तचर जिसने शकटदास का विश्वास जीत लिया है—संदर्भ: प्रथम अंक) के साथ शकटदास प्रवेश करता है. ‘चाणक्य के हाथ में जाकर भी तुम बच गए’— कहते हुए राक्षस उसे आलिंगन में लेता है तो भावावेग से देर तक उबर नहीं पाता.

राक्षस--मेरे हृदय के इस आनंद का कर्ता कौन है?’

‘इसी प्रिय मित्र सिद्धार्थक द्वारा जल्लादों को खदेड़कर, वध-स्थल से निकालकर मुझे भगा दिया गया’. 

राक्षस कञ्चुकी द्वारा लाए और अभी-अभी पहने आभूषणों को उतारकर सिद्धार्थक को पुरस्कार में दे देता है. सिद्धार्थक राक्षस के पैरों पर गिरकर, चाणक्य की बात का स्मरण करते हुए, आभूषणों को स्वीकार तो कर लेता है लेकिन इस स्थिति का, साथ लाई राक्षस की अंगूठी को, चाणक्य के निर्देश (‘समुझा-बुझाकर’ में निहित) के अनुसार,  प्रकट करने के लिए उपयोग करता है—‘अमात्य, इस नगर में पहली बार आया हूँ. यहाँ मेरा कोई परिचित नहीं, जिसके यहाँ अमात्य का यह कृपा-प्रसाद (आभूषण) रखकर निश्चिंत हो सकूँ. तो चाहता हूँ, आभूषणों की पेटी को इस अँगूठी से चिह्नितकर अमात्य के भंडार में ही रख दूँ, जब काम पड़ेगा, ले लूंगा.’

‘इसमें तो कोई हर्ज़ नहीं दिखता.’ [राक्षस राक्षस है, चाणक्य नहीं, जिसे शिल्पी दारुवर्मा की अतिरिक्त अनुकूलता से षड्यंत्र की बू आ गई थी.] 

तभी शकटदास अँगूठी में राक्षस का नामांकन देख लेता है और जनांतिक में--हाथ से आड़ करके (नाटक में मान लिया जाता है कि तीसरा पात्र नहीं सुन रहा) राक्षस को बताता है कि इसमें तो आपका नाम खुदा है. 

‘ओह तो वह अँगूठी है ! असल में कुसुमपुर से निकलते समय ब्राह्मणी ने विरह के कष्ट को तरल करने के लिए मुझसे ले लिया था. भद्र सिद्धार्थक, तुम्हें यह कहाँ मिली?’ 

[ब्राह्मण द्वारा अपनी पत्नी को ब्राह्मणी कहने का रिवाज अभी हाल तक चला आया था. मुद्राराक्षसम्‌ में संभवत: यही एक संवाद है जिसमें नंदों के अमात्य और प्रधान सेनापति राक्षस के ब्राह्मण होने का साक्ष्य मिलता है. जाति ब्राह्मण और नाम राक्षस—ज्योतिबा फुले की स्थापनाओं के सर्वथा विपरीत. चाणक्य और राक्षस दोनों ही ब्राह्मण के पारंपरिक कृत्यों से विरत हैं, न ही उनके वर्ण-व्यवस्था के पोषक होने का कोई और संकेत मिलता है. मौर्य काल में वर्ण-व्यवस्था व्यवहार में अपवाद-स्वरूप ही दिखती है. नंद और मौर्य दोनों में से कोई क्षत्रिय-वंश का नहीं है, अधिकांश प्रमाण उनके शूद्र-वंशीय होने के पक्ष में हैं. नाटक में कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) के क्षत्रिय-गण का प्रधान विजयवर्मा अन्य गणों के प्रधान से कोई अधिक हैसियत नहीं रखता.]

‘कुसुमपुर में चंदनदास नाम के एक जौहरी सेठ हैं. उन्हीं के दरवाजे के पास पड़ी मिल गई थी’. 

शकटदास: मित्र सिद्धार्थक, यह अँगूठी अमात्य के नाम से अंकित है. इसके मूल्य से अधिक धन से अमात्य आपको संतुष्ट कर सकते हैं.

सिद्धार्थक तुरंत मान जाता है. लेकिन राक्षस अपनी यह मुद्रांकित अँगूठी स्वयं लेने के बजाए शकटदास को दे देता है, कि वह जहाँ ठीक समझे, राक्षस के अधिकार का प्रयोग करे. 

सिद्धार्थक अब चाणक्य की योजना की दूसरी सीढ़ी पर पाँव रखता है-- 

‘अमात्य तो जानते ही हैं कि दुष्ट चाणक्य का अहित करके पाटलिपुत्र में अब मैं दुबारा कदम नहीं रख सकता. तो मैं अमात्य के चरणों में रहकर ही सेवा करना चाहता हूँ.’

राक्षस: मैं भी यही चाहता था, लेकिन आपका मन जाने बिना कह नहीं सका.

राक्षस का गुप्तचर विराधगुप्त खड़ा-खड़ा सब देख रहा था. अब राक्षस का ध्यान उसकी ओर गया. राक्षस का अवसाद अब तक धुल चुका है तो वह अलग तरह का प्रश्न पूछता है—‘मित्र, वहाँ कुसुमपुर में और क्या ख़बर है? हमने वहाँ जो परस्पर फूट का बीज बोया है, उसका फलित क्या है?'

‘ख़बर यह है कि मलयकेतु के वहाँ से भागने के समय से चंद्रगुप्त चाणक्य से नाराज़ है. और विजय से फूला चाणक्य भी चंद्रगुत को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है. वह चंद्रगुप्त की अहम आज्ञाओं की अवहेलना कर रहा है, जो चंद्रगुप्त के लिए अत्यंत पीड़ादायी है.’

राक्षस ख़ुश होकर उसे दुबारा सँपेरे के वेश में कुसुमपुर भेजता है--

‘वहाँ जो वैतालिक (चारण) वेशधारी स्तनकलश नामका हमारा आदमी है उससे कहना कि वह चाणक्य द्वारा चंद्रगुप्त की आज्ञाओं के उल्लंघन के विषय में उत्तेजित करनेवाले श्लोकों द्वारा चंद्रगुप्त का स्तुतिगान करे और इसकी परिणति के बारे में गुप्त रूप से हमारे गुप्तचर करभक के माध्यम से मेरे पास सूचना भेजे.’

विराधगुप्त के निकल जाने पर सेवक सुंदर आभूषणों के तीन सेट लेकर आता है और कहता है कि शकटदास इन्हें ख़रीदना चाहते हैं, जिसके लिए अनुमति माँग रहे हैं. 

राक्षस उन्हें देखकर बहुमूल्य होने की पुष्टि करता है और विक्रेताओं को संतुष्ट करनेवाला मूल्य देकर खरीद लेने की अनुमति देता है.

[ये मृत पर्वतेश्वर के वही आभूषण हैं जिन्हें चंद्रगुप्त ने उसका श्राद्ध करके ‘सुपात्र’ ब्राह्मणों को दान दिया था. और ये ‘सुपात्र’ ब्राह्मण और कोई नहीं, चाणक्य के गुप्तचर हैं.]

तत्पश्चात्‌ राक्षस अपने गुप्तचर करभक को कुसुमपुर भेजने के लिए तत्पर होता है. उसका विचार है कि चंद्रगुप्त इस समय मगध का राज्य पाकर अन्य राजाओं को आदेश देने की स्थिति में होने से तेज में होगा  और  उधर चाणक्य यह सोचकर गर्वोन्नत होगा कि उसके सहारे ही चंद्रगुप्त शासक बना है. चूँकि अब चंद्रगुप्त के सहयोग से नंदों के विनाश की चाणक्य की प्रतिज्ञा पूरी हो गई है, ऐसे में वह चंद्रगुप्त के तेज को बर्दाश्त नहीं कर पायेगा और अवसर मिलते ही दोनों की मित्रता टूट जाएगी. राक्षस इसी अवसर का सृजन करने को उद्यत है. 

[चाणक्य को राक्षस की इस भेद-नीति का पूर्वाभास है, और उसे मुगालते में रखने के लिए स्वयं चंद्रगुप्त से सबके सामने चटका-चटकीवाले कलह की नीति अपना चुका है, जिसके नाटकीय क्रियान्वयन में कभी-कभी तो चंद्रगुप्त को संदेह हो जाएगा कि कहीं आर्य चाणक्य सचमुच तो नाराज़ नहीं हो गए.] 

इस तरह नाटक के केंद्रीय लक्ष्य की ओर एक निश्चित और दृढ़ कदम बढ़ाकर दूसरा अंक समाप्त होता है.
.....................
(क्रमश:)

कमलाकांत त्रिपाठी
Kamlakant Tripathi

विशाखदत्त का प्रयोगधर्मी नाटक मुद्राराक्षसम्‌ (2)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/2_27.html 

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