(‘जापान’ और ‘जपनिया राछछ’ में प्रतिबिम्बित राहुल सांकृत्यायन की जापान दृष्टि पर केन्द्रित लेख)
बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में हिन्दी के क्षितिज पर जयशंकर प्रसाद, प्रेमचन्द, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, रामचन्द्र शुक्ल सदृश अनेक प्रतिभावान साहित्यकारों का उद्भव हुआ जिन्होंने हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं को अभूतपूर्व ऊंचाई दी, लेकिन महापंडित राहुल सांकृत्यायन ही एकमात्र साहित्यकार हैं जिन्होंने महात्मा बुद्ध की प्रज्ञा ज्योति और मार्क्सवादी विचारधारा के मशाल से आलोकित पथ पर यात्रा कर हिन्दी को तेजोमय वैश्विक फलक प्रदान किया.
राहुलजी ने हिमालय की अभ्रभेदी श्रृंखलाओं के पार एशिया के दुर्गम भूभाग में बिखरे हुये बौद्ध सूत्रों और शास्त्रों की खोज तथा “मेरी लद्दाख यात्रा”, “श्री लंका यात्रावली” “तिब्बत में सवा वर्ष” “मेरी तिब्बत यात्रा” “यात्रा के पन्ने” “जापान” “एशिया के दुर्गम खण्डों में” आदि यात्रा ग्रंथों की रचना कर भारत और विश्व की बौद्ध सभ्यताओं के बीच समन्वय और सामंजस्य का सेतुबंध स्थापित किया.
“सिंह सेनापति” “विस्मृत यात्री”, जैसे उपन्यास और “वोल्गा से गंगा” मे संकलित “बंधुल मल्ल”, “नागदत्त” और “प्रभा” जैसी कहानियाँ लिखकर उन्होंने हिन्दी समाज के सामने भारत के गौरवमय अतीत की झांकी प्रस्तुत की. “पाली साहित्य का इतिहास” “बुद्धचर्या”, “बौद्ध संस्कृति” “बौद्ध दर्शन”, “तिब्बत में बौद्ध धर्म” आदि पुस्तकों के प्रणयन और “विनय पिटक” और “मज्झिमनिकाय” जैसे बौद्धग्रंथों के हिन्दी अनुवाद द्वारा उन्होने भारत मे बौद्धविद्या की आधारशिला तैयार की.
वस्तुतः राहुलजी के भगीरथ प्रयत्न के फलस्वरूप ही हिन्दी वांगमय में भारतीय संस्कृति के वैश्विक विस्तार की अवधारणा को ठोस आधार मिला.
राहुलजी की अन्तर्राष्ट्रीयता का दूसरा स्रोत है साम्यवाद. बौद्ध भिक्षु, धर्मप्रचारक और बौद्ध दर्शन के अथक अध्येता के रूप में राहुलजी ने परम्पराओं को युगसत्य के निकष पर परखा, उन्हें अपने अनुभवों के आलोक में नए सिरे से समझा और कभी किसी एक विचारधारा से न बंधकर सत्य की खोज में हमेशा आगे बढ़ते रहे. उन्होंने अपनी आत्मकथा “मेरी जीवन यात्रा” के आरम्भ में अपने हृदय पटल पर अंकित महात्मा बुद्ध की देशना को उद्धृत किया है:
“कुल्लुपमं देसेस्यामि वो भिक्खवे धम्मं
तरणत्थाय नो गृहणत्थाय.”
अर्थात्
“हे भिक्षुओ! मेरी धर्म देशना छोटी सी नौका है जो सिर पर रखकर ढोने के लिये नहीं, श्रम और विवेक के बल पर खेकर पार उतरने के लिए है”.
बौद्ध दर्शन में दस पारमिताओं में प्रज्ञा पारमिता को सर्वश्रेष्ठ माना गया है. प्रज्ञावान व्यक्ति विवेक की कसौटी पर हर स्थिति का सम्यक विश्लेषण करता है. इसी प्रज्ञाचक्षु के कारण राहुलजी किसी एक विचारधारा से बंधकर नहीं रह सके । 1930 के दशक के जब उन्हें शोषण मुक्त और न्यायमूलक समाज के निर्माण का मार्ग मार्क्स की विचारधारा मे दिखा, वे कम्युनिस्ट पार्टी से जुड गये.
स्पष्ट है कि वैचारिक गतिशीलता जो बौद्ध दर्शन का वैशिष्ट्य है, राहुलजी के जीवन दर्शन को भी परिभाषित करती थी.
उन्होंने अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत 1921 के असहयोग आन्दोलन के समय छपरा में कांग्रेस के कार्यकर्ता के रूप में की और जून 1931 में जयप्रकाश नारायण, अब्दुल बारी और गंगाशरण सिंह आदि नेताओं के साथ बिहार समाजवादी पार्टी की स्थापना की. अक्टूबर 1939 में जब कम्युनिस्ट पार्टी की बिहार इकाई का गठन हुआ, वे इसकी स्थापना के लिये आयोजित बैठक में शामिल हुये. साम्यवादी विचारधारा से जुड़कर उन्होंने सामंतवाद और साम्राज्यवाद के दमन चक्र में पिसते सर्वहारा वर्ग की मुक्ति के लिये संघर्ष किया. विश्व की पददलित जनता की आवाज बनकर और उन्हें अपनी ताकत और अधिकार के प्रति सजग करने के उद्देश्य से उन्होंने “भागो नहीं दुनिया को बदलो”, “साम्यवाद ही क्यों”, “सतमी के बच्चे” “दिमाग़ी ग़ुलामी”, “तुम्हारी क्षय”, “नइकी दुनिया” ‘मेहरारुन के दुरदसा’, “साम्यवाद ही क्यों” जैसी विभिन्न विधाओं की किताबें लिखीं, और साथ ही कार्ल मार्क्स, लेनिन, स्टालिन और माऊ चे तुंग की जीवनियों का भी प्रणयन किया.
विश्व के अनेक देशों में राहुलजी की सर्वतोमुखी प्रतिभा, हिंदी के प्रति उनकी प्रतिबद्धता तथा साहित्य की विविध विधाओं के उन्नयन में उनके योगदान पर अनेक शोधकार्य सम्पन्न हुये हैं. पिछले कुछ वर्षों में राहुलजी की नेपाल, तिब्बत, मध्य एशिया और चीन यात्रा के वृतांत और इन देशों के इतिहास और संस्कृति पर लिखे उनके निबंधों, शोध ग्रंथों और यात्रा पुस्तकों के आधार उनकी अन्तर्राष्ट्रीयता के कुछ महत्वपूर्ण पक्षों को उद्घाटित करने के प्रयास भी हुये हैं, फिर भी कुछ पहलू अभी भी अछूते हैं.
एक ऐसा ही विषय है राहुल जी की जापान दृष्टि जिसे समझने के लिये उनकी आत्मकथा के अलावा उनकी दो पुस्तकों- “जापान” और भोजपुरी नाटक “जपनिया राछछ” (जापानी राक्षस) का सम्यक विश्लेषण आवश्यक है. “जिनका मै कृतज्ञ” में भी “दो जापानी मित्र” नामक एक लेख संकलित है जिसमें उन्होंने जापान के दो मित्र (जिनके वे जापान-प्रवास के दौरान अतिथि थे) के सान्निध्य की स्मृति को संजोया है.
कैशोर्य काल में राहुलजी का मन जापान की शौर्य गाथा से अभिभूत था और कालांतर में वे जापान की वैभवशाली बौद्ध संस्कृति के प्रति भी श्रद्धानवत हुये, लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के समय उनका जापान प्रेम वितृष्णा और विक्षोभ में परिवर्तित हो गया.
जापान के सैन्य फासीवाद के प्रति अपने आक्रोश को वे अपनी आत्मकथा “मेरी जीवन यात्रा” (प्रथम भाग) में भी संक्षेप में व्यक्त करते हैं. वे लिखते हैं कि साम्यवादी विचार की लोकप्रियता के कारण शासकवर्ग ने देश पर फासीवाद थोपा और अनेक मार्क्सवादी युवकों को जेल में ठूंस दिया. वे यह भी लिखते हैं कि सत्ता सैनिक सामंतवंशों के हाथ में है और सम्राट उनके हाथ की कठपुतली मात्र है.
राहुलजी को यह देखकर दुख हुआ कि एक ओर सेना साम्राज्यवाद के विस्तार के लिये उद्धत है, और दूसरी ओर भुखमरी के मारे आत्महत्या करने को विवश होने वाले जापानियों की संख्या में वृद्धि हो रही है. जापानी फासीवाद के खिलाफ राहुलजी के आक्रोश के स्वर को हम उनके भोजपुरी नाटक “जपनिया राछछ” में स्पष्टता के साथ सुन सकते हैं.
इस लेख में मैंने राहुलजी की जापान दृष्टि के परिवर्तन की इस प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया है और साथ ही मैने “जपनिया राछछ” जिसे लुप्त साहित्य माना जाता था, के महत्व पर भी प्रकाश डालने की कोशिश की है.
जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है, राहुलजी के हृदय में जापान के प्रति निर्मल, निष्कलुष भाव था. कैशोर्य काल में अपने पितामह के मुख से रूस-जापान युद्ध में जापान की विजय का समाचार सुनकर उनका हृदय बल्लियों उछलता था. वे सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित अध्यापक पूर्ण सिंह के “सच्ची वीरता” जैसे लेख जिसमें जापानी शौर्य की स्तुति थी और अपने स्नेही और हितैषी शिव प्रसाद गुप्त की पुस्तक “पृथ्वी प्रदक्षिणा” (जिसमें पोर्ट आर्थर की वन्दना थी) से भी बहुत प्रभावित हुये होंगे. अपनी विदेश यात्रा के दौरान गुप्त जी ने पोर्ट आर्थर की धूलि को शीष लगाकर जापान की शौर्य गाथा का स्मरण किया:
“एशिया में स्वतंत्रता की घोषणा करने वाले… अमेरिका की बात को रुद्ध करने वाले.. एशिया फार एशियाटिक्स की घोषणा करने वाले.. श्वेतांगों के तुषार से ठिठुरे हुये सवर्णों के शरीर को वसन्तागमन का सन्देश पहुंचाकर गर्मी पहुंचाने वाले… वन्दे पोर्ट आर्थरम! वन्दे मातरम.”
इसे पढ़कर महावीर प्रसाद द्विवेदी इतना प्रफुल्लित और रोमांचित हुये, कि उन्होंने लिखा:
“यह नक्काल मसिजीवी भी गुप्त जी को ऐसी पुस्तक प्रकाशित करने के लिए सादर प्रणाम करता है, और आप ही की तरह प्रमोदपूर्ण उच्च स्वर से कहता है, वन्दे मातरम.”
(रामविलास शर्मा, महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण).
वस्तुतः 1937 के द्वितीय चीन-जापान युद्ध के आरंभ तक भारत के प्रायः बुद्धिजीवी के मन में जापान के प्रति कटुता नहीं थी. 1937 में जब जापान ने नानजिंग नगर में खून की नदी बहाई जिसे चीनी जनता, तीन लाख लोगों को मौत के घाट उतारने वाला “रेप आफ नानजिंग” कहती है, भारतीयों का हृदय परिवर्तन हुआ. इसी संदर्भ में गुरुदेव टैगोर ने, जापानी कवि याने नोगुचि को पत्र लिखकर उनके राष्ट्रवादी विचारों का खंडन किया और, जापान के इस दावे को कि, जापान एशिया के पराधीन देशों को गोरों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए कृतसंकल्प है, को खोखला बतलाया.
उन्होंने लिखा, ‘एशिया की आपकी अवधारणा मूलतः नरकंकाल का मीनार है’.
राहुलजी ने मई 1935 में जापान की यात्रा की. वे भारत में चुसिओ ब्योदो जिन्होंने टोक्यो विश्वविद्यालय से बौद्ध धर्म तथा भारतीय दर्शन में बीए की डिग्री प्राप्त की थी और 1933-34 में शांतिनिकेतन में भी संस्कृत का विशेष अध्ययन किया, से मिल चुके थे. जापान में राहुलजी के दूसरे परिचित थे जुन्जी सकाकिवारा जिनसे वे 1932 में अपने जर्मनी प्रवास के दौरान मिले थे. बर्लिन के समीप फ्रोनो नामक स्थान पर एक बौद्ध विहार था Das Buddhistische Haus (बौद्ध भवन) जहां रहकर सकाकिवारा संस्कृत और बौद्ध धर्म का अध्ययन कर रहे थे. महाबोधि सभा ने जब राहुलजी को धर्म प्रचार के लिए यूरोप भेजा, वे भी कुछ समय के लिये यहीं रुके थे.
महाबोधि पत्रिका के जनवरी 1934 अंक में जर्मनी में वैसाख पूर्णिमा के अवसर पर सकाकिवारा द्वारा दिये गये एक अभिभाषण का उल्लेख है जिससे पता चलता है कि वे अपने जर्मनी के छात्र जीवन के दौरान वहां के बौद्ध विहार समाज में लोकप्रिय थे. राहुल जी के दोनों जापानी मेजबान बौद्ध धर्म के सुधी अध्येता और बौद्ध मंदिर के महंत थे.
अपने जापान-प्रवास के दौरान राहुलजी ने जापान की बौद्ध संस्कृति का गहन अध्ययन किया और शोध सामग्रियों को इकट्ठा किया जिसके आधार पर उन्होंने “जापान” पुस्तक के कुछ अध्याय लिखे और “बौद्ध संस्कृति” पुस्तक के जापान-विषयक अध्याय की रचना की.
1936 में साहित्य सेवक संघ, छपरा द्वारा प्रकाशित “जापान” नामक पुस्तक का बहुलांश जापान की बौद्ध संस्कृति पर केन्द्रित है. इस पुस्तक में राहुलजी ने जापान के अनेक विश्वविद्यालयों, बौद्ध विद्या संस्थानों और बौद्ध विहारों में दिये गये अपने व्याख्यानों और जापान के बौद्ध विद्या के पंडितों के साथ हुये विचारों के आदान-प्रदान का रोचक वर्णन किया है.
एक जगह वे लिखते हैं:
“जापान आने का मेरा एक मतलब था, बौद्ध पंडितों से मिलना. 10 मई को मैं तोक्यो पहुँचा था. 14 मई को रिश्शो विश्वविद्यालस में प्रोफ़ेसर किमूरासे मिलने गया. यह विश्वविद्यालय उसी निचिरेन सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखता है, जिसके भिक्षु ने भारत (कलकत्ता) में पहला जापानी बौद्ध-मंदिर स्थापित किया. प्रोफ़ेसर किमूरा बीस वर्ष के क़रीब भारत में रह चुके है. कितने ही वर्षों तक वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में अध्यापक रहे थे. वे उन सुसंस्कृत जापानियों में है, जिन्हें भारतीय नागरिक मंडली में बहुत काल तक आत्मीयों की भाँति रहना पड़ा, और जो उससे बहुत प्रभावित हुये हैं. जिस वक्त वे अपने गुरु स्वर्गीय महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री का वर्णन करते थे, प्रेम और श्रद्धा के मारे वे गदगद-कंठ हो जाते थे. बहुत देर तक हम दोनों भारतीय बौद्ध दार्शनिकों के काल के सम्बन्ध में बातचीत करते रहे.”
प्रोफ़ेसर किमुरा से मिलकर राहुल जी सचमुच बहुत प्रसन्न और प्रभावित हुये होंगे क्योंकि दोनों ही विद्वानों ने अपने-अपने देशों में बौद्ध विद्या के विकास में अप्रतिम योगदान दिया. 1920 के दशक में प्रोफ़ेसर किमुरा जब कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्राध्यापक थे, उन्होंने दो महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं: “The Original And Developed Doctrines Of Indian Buddhism” (1920) और “A Historical Study of the Terms Hinayana and Mahayana and the Origin of Mahayana Buddhism” (1927).
राहुल जी प्रोफ़ेसर किमूरा के गुरु प्रोफ़ेसर हर प्रसाद शास्त्री के भी ऋणी थे. शास्त्री जी ने नेपाल के अनेक विहारों और प्राचीन ग्रंथ के अभिलेखागारों से हजारों वर्ष पूर्व विरचित “चर्यापद” या “चर्यागीत” तथा संस्कृत की अन्य पांडुलिपियों का उद्धार किया, बंगला में “बौद्ध धर्म” और अंग्रेजी में मागधी साहित्य, “आधुनिक भारत में संस्कृत साहित्य” , “बंगाल में जीवित बौद्ध धर्म की खोज” आदि पुस्तकें लिखी और कई शीध प्रबंधों की रचना की. 1917 में प्रकाशित शास्त्री जी के ग्रंथ “বৌদ্ধ গান ও দোঁহা” (बौद्ध गान और दोहा) जिसमें सरहपा के चालीस दोहे संकलित हैं, ने राहुल जी के शोध का मार्ग प्रशस्त किया जिसका एक उदाहरण प्रकाशित पुस्तक दोहा कोश है जिसमें तिब्बती भाषा में अनूदित सरहपाद की काव्यकृति (165 दोहे, सोरठे, चर्यापद आदि जो उन्हें तिब्बत के शाक्य विहार में प्राप्त हुये थे) राहुलजी द्वारा किये गये हिन्दी रूपांतरण के साथ संकलित हैं.
राहुलजी ने आठवीं सदी के सिद्ध सरहपा को हिन्दी का प्रथम कवि कहा है।
वर्ष 1935 के मई महीने में जापान की धरती पर पैर रखते ही इन्डो-जापानी असोसियेशन, रिश्शो विश्वविद्यालय ओर अन्तर्राष्ट्रीय बौद्ध संघ ने राहुल जी का अभिनंदन किया.
एक-जून को जापान-तरुण-बौद्ध संघ ने एक स्वागत समारोह आयोजित किया जिसकी अध्यक्षता प्रोफ़ेसर किमूरा ने की. राहुलजी ने अपने भाषण में कहा कि जापानी बौद्धों को भारत में अपने प्रचारक भेजने चाहिये- ऐसे प्रचारक, जो भारतीयों को बौद्ध धर्म के महत्व के साथ जापानी कृषि, गृहशिल्प आदि की भी शिक्षा दें.. प्रोफ़ेसर किमूरा ने जब भारत के बारे में बोलना शुरू किया, भावावेश के कारण उनका कंठ अवरुद्ध हो गया और कई बार बीच-बीच में उन्हें रुक जाना पड़ा.
भाषण की औपचारिकता जब समाप्त हुई, राहुलजी ने छात्र-संघ की ओर से दिये गये प्रीतिभोज में हिस्सा लिया. प्रीतिभोज के अवसर पर छात्रों के प्रतिनिधि द्वारा दिये गये भाषण ने राहुलजी बहुत प्रभावित हुये. इस भाषण को राहुलजी ने अविकल प्रस्तुत किया है:
“आपके देशवासियों के प्रति हमारे भाव मित्रतापूर्ण ही नहीं, घनिष्ठ प्रेम के हैं. भारत का नाम ही हमारे हृदय में भगवान बुद्ध का स्मरण कराता है. उनके सर्वांगपूर्ण व्यक्तित्व और सिद्धान्तों के द्वारा सुखावती लोकधातु का चित्र हमारी आँखों के सामने खिच जाता है. हम नवयुवकों के लिये भारतवर्ष वही अर्थ रखता है, जो फिलिस्तीन ईसाइयों के लिये.
हमारा आदर्श भारतवर्ष है; किन्तु वह भारत नहीं, जो अंग्रेजों की मातहती में है, और न वह भारत, जहाँ भगवान बुद्ध की पवित्र धातु (बोध गया का मंदिर) अन्य धर्मावलम्बियों के हाथ में है.
हमारे हृदय में वह भारत है, जहाँ २,५०० वर्ष पहले भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था, जहाँ उन्होंने ज्ञान अर्जन किया, संन्यास ग्रहण किया, गुद्धकूटपर सद्धर्मपुण्डरीक सूत्र का प्रचार किया, और जहाँ उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया.
जब कभी हम आपके देशवासियों को देखते हैं, हमारे नेत्रों के सामने यही दृश्य घूम जाता हैं, इसलिये आपको यहाँ देखकर हमें जो प्रसन्नता होती है, वह वर्णनातीत है. भाषा, जाति और आचार-विचार में भिन्न होते हुये भी भगवान बुद्ध के महान नाम पर हममें और आपमें एकता है. सांसारिक एकता टूट सकती हैं; किन्तु आध्यात्मिक एकता कभी नहीं टूटती. हम समझते हे कि दोनों (देशों) की भौगोलिक स्थिति और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति को देखते हुये भारत और जापान को एकता के सूत्र में बंध जाना चाहिए.
हमारे निचिरेन-सम्प्रदाय के संस्थापक ने 700 वर्ष पहले ही बड़ी बुद्धिमत्ता से यह कहा था कि भारत में उत्पन्न हुआ बौद्ध धर्म जापान में आकर पूर्णता को प्राप्त करेगा. यह परिपूर्ण धर्म फिर भारत को उसी प्रकार आशा और प्रकाश प्रदान करेगा, जिस प्रकार भगवान बुद्ध के सिद्धान्तों ने जापान को प्रदान किया है हमें आशा है कि जापान में रहते समय आप हमारे निचिरेन-सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का अध्ययन करके भारत लौटने पर वहां उसका प्रचार करेंगे.
आपके यहाँ पधारने पर यहां की प्रकृति भी असाधारण मौसम से आप पर कृपा दिखला रही है. ऐसा मौसम जैसा आजकल हमें मिल रहा है, वर्ष के इस भाग में जापान में बहुत कम नसीब होता है. हम समझते हैं कि यह आपके शुभागमन के बदौलत ही है. हमें आशा हैं और हम प्रार्थना करते हैं कि जब तक आप रहें, मौसम ऐसा ही सुन्दर रहे और आपका स्वास्थ्य ठीक रहे.“
इस पुस्तक के जापानी बौद्ध संस्कृति से सम्बन्धित अनको अध्याय हैं:
“होर्योजी: जापान का प्रथम बौद्ध मंदिर; जापान में बोद्ध धर्म; जापान के अशोक उपराज शोतोकु; महात्मा निजिरेन; कामाकुरा; एक जापानी बौद्ध कन्या-पाठशाला; नारा; क्योतो और कोयासान.
कुल मिलाकर इस पुस्तक में राहुल जी का ध्यान बौद्ध धर्म की आधारशिला पर निर्मित जापान की महिमामंडित संस्कृति पर केन्द्रित है. वे नागरिक सुरक्षा सायरन या हवाई-छापे सायरन को सुनते है, सैन्य गतिविधियों के विस्तार को देखते हैं और यह भी लिखते हैं कि जापान चीन के कुछ प्रान्तों पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए उद्यमशील प्रतीत हो रहा है, लेकिन वे इससे असाधारण रूप से विचलित या चिन्तित होते नहीं दिखते हैं. वे अभी मूलतः एक बौद्ध भिक्षु हैं जिनके मन में दोनों देशों के बीच के आपसी सौहार्द, सद्भाव और समन्वय को सुदृढ़ करने की अभिलाषा है.
यही कारण है कि वे जापान के जातीय शौर्य के प्रतीक सामुराई (क्षत्रिय ) और उसकी बुशिदो परम्परा (क्षात्र धर्म) की प्रशंसा करते हैं. वे लिखते हैं:
“यह जापानी बुशिदो ही है, जो आज यूरोप, अमेरिका सभी को विचलित’ कर रहा है. चितौड़ के राजपूत जिस भाव से प्रेरित हो केसरिया बाना पहनते थे, उसी को जापानी शब्द “बुशिदो” प्रकट करता है. यदि रूस-जापान-युद्ध में सेना में भरती करने में (अगर परिवार) इनकार करता था तो व्यक्ति अपने आश्रित प्राणियों को मारकर भरती हो जाता था. यह बुशिदो है. शंघाई में चीनी सिपाही की अभेद्य पंक्ति को तोड़ने के लिये जापानी सैनिक अपने शरीर में बम्ब बाँधकर दौड़ते हैं, कूदते हैं, तो यह बुशिदो है.”
राहुलजी को ज्ञात था कि 1919 और 1931 में जापान ने बुशिदो या योद्धा-मार्ग की परम्परा का दुरुपयोग क्रमशः कोरिया और मन्चुरिया की निर्बल और निर्दोष जनता के उत्पीड़न में किया, साम्राज्यवाद के विस्तार में किया और निकट भविष्य में जापान बुशिदो के कहर को चीनी जनता पर ढहाने के लिये कृतसंकल्प था, फिर भी किसी कारणवश वे इस ग्रंथ में जापानी सामंतवाद के इस अवशेष की आलोचना नहीं करते.
एक बार जब वे चुशिओ ब्योदो के साथ एक स्कूल में गये और सैन्य प्रशिक्षण को देखकर जब उन्होंने राष्ट्रवाद से सम्बद्ध कुछ प्रश्न पूछे, जापानियों को आशंका हुई कि राहुलजी भारत लौटकर “जापानियों को बुरे रंग से चित्रित करेंगे”. उनके मेजबान ने कहा, जापानी जनता अपने राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्ध है और अपने सम्राट की भक्त प्रजा है. राहुलजी ने हँसते हुये उत्तर दिया, “आपको ऐसा संदेह नहीं करना चाहिये.” राहुलजी ने “जिनका मैं कृतज्ञ” पुस्तक में संकलित ब्योदो सान के संस्मरण में इस घटना का विस्तार से वर्णन किया है:
“मैं जापानी जीवन और उसकी आर्थिक व्यवस्था को बहुत नजदीक से देखना चाहता था. इसलिये आमदनी-खर्च, वेतन-मजदूरी सबकी छान-बीन करता था. ब्योदो सान को ख्याल हो गया कि मैं कोई ऐसी पुस्तक लिखूँगा, जिसमें जापान का रूप काला चित्रित किया जायेगा. वह हमें अपने गाँव का स्कूल दिखाने के लिये ले गये. दोपहर में काफी गर्मी थी, लेकिन उस धूप में भी बच्चे सैनिक कवायद कर रहे थे- पाँच ही छह वर्ष बाद तो उन्हें विश्व-विजय के लिये निकलना था. इसे कहने की आवश्यकता नहीं कि जापान के इस रूपकों मैं बड़ी नफरत की निगाह से देखता था. मैंने स्कूल के लड़के-लड़कियों की पढ़ाई देखी, प्रधानाध्यापक ने सभी बातें बताई. जापान में लड़के-लड़कियाँ दोनों के लिये छह साल की पढ़ाई अनिवार्य थी. सारे जापान में आधे दर्जन से अधिक लेडी डाक्टर नहीं थे. स्त्रियों की अवस्था में जापान ने बहुत कम परिवर्तन होने दिया. विवाह से पूर्व उसका काम है शरीर तक भी बेचकर माँ-बाप की सेवा करना. लड़कों की तरह लड़कियों की भी आरम्भिक शिक्षा अनिवार्य थी; लेकिन वहाँ के राष्ट्र-कर्णधार पूरी चेष्टा करते थे कि स्त्री अपने पैरों पर खड़ी न होने पाये. इसलिये पाठ्य-विषयों में भी अन्तर रखा गया. तोकियो से काफी दूर सेनदाई विश्वविद्यालय को छोड़कर. कहीं उन्हें विश्वविद्यालय की शिक्षा प्राप्त करने की गुझ्ञाइश नहीं थी.
स्कूल में जो सवाल करके मैंने जानकारी प्राप्त करनी चाही, उससे एक बार ब्योदो सान नाराज हो गये. कहने लगे-
“मैं इसे नहीं बताऊँगा. इससे जापान की बदनामी होगी.”
मैंने नर्मी से समझाया-
“दुनिया में कोई देश देवता नहीं है. कौन-सा देश है जहाँ दरिद्रता, मूर्खता और स्वार्थपरता न हो !”
राहुल जी जापान के जिन बौद्ध भिक्षुओं और विद्वानों से मिले, उनकी विद्वता, सज्जनता और उदारता से बहुत प्रभावित हुये. चुशिओ ब्योदो के गुरु वोगिहारा उनराय (1869-1937) से मिलकर वे बहुत प्रसन्न हुये. वोगिहारा को आधुनिक जापान की बौद्ध विद्या का शलाका पुरुष माना जाता है. उन्होंने 1899 से लेकर 1905 तक जर्मनी में रहकर संस्कृत और बौद्ध दर्शन का गहन अध्ययन किया और स्वदेश लौटकर ताईशो विश्वविद्यालय में अध्यापन किया.
उन्होंने महा व्युत्पत्ति पर आधारित संस्कृत-चीनी शब्दकोश तथा संस्कृत-चीनी-जापानी शब्दकोश का निर्माण किया, और इसके अलावा सद्धर्मपुण्डरीक सूत्रम” और हरिभद्र विरचित अभिसमयालङ्कार की टीका ‘आलोक’ के प्रामाणिक पाठ तैयार किये.
ओनिशि रियोकेई (1875-1983) जो होस्सो (धर्मलक्षण) सम्प्रदाय के मंदिर कोफुकुजी के महास्थविर या महंत थे और विज्ञानवाद के तलस्पर्शी विद्वान थे, के व्यक्तित्व की भी उनके मन पर अमिट छाप पड़ा. राहुल जी से उन्होंने अनुरोध किया कि बौद्ध धर्म में रुचि रखने वाले भारतीय छात्रों को उच्च अध्ययन के लिये जापान भेजें. वे पांच भारतीय छात्रों को छात्रवृत्ति देने के लिये तैयार थे. भिक्षु ओनिशि ने लम्बी उम्र पाई. मृत्यु के समय वे जापान के सर्वाधिक वयोवृद्ध व्यक्ति थे.
जापान में राहुलजी की मुलाकात प्रख्यात विप्लवी देशभक्त रास बिहारी बोस से भी हुई. उन्होंने 1912 में दिल्ली में वाइसराय पर बम फेंका था और तीन साल बाद नाम बदलकर जापान चले गये. वे आनंद मोहन सहाय जो श्री राजेन्द्र प्रसाद के साथ काम कर चुके थे और 1922 से जापान के कोबे नगर में रहकर भारत की मुक्ति के लिये संघर्षरत थे, से भी मिले. 1943 में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जब जापान पहुंचे, रास बिहारी बोस और आनंद मोहन सहाय के सहयोग से उन्होंने इंडियन इंडिपेंडेंस लीग और इंडियन नेशनल आर्मी की स्थापना की. सहाय जी की सुपुत्री भारती आशा सहाय चौधरी (जन्म 1928) जो जापान में आसाको के नाम से विख्यात है, भी झांसी की रानी ब्रिगेड में शामिल हो गईं. 2015 में उनकी एक जीवनी प्रकाशित हुई है जिसका शीर्षक है “Indo dokuritsu no shishi asako (आशाको: भारतीय स्वतंत्रता सेनानी) और लेखक का नाम है रियोहेई कासाई.
महंत सकाकिवारा और महंत ब्योदो ने हरसंभव प्रयास किया कि महापंडित की जापान यात्रा सुखद और सार्थक हो. टोक्यो-स्थित सकाकिवारा के कोशोजि मंदिर में करीब एक महीना रहने के बाद जब वे महंत ब्योदो के पास जा रहे थे, दोनों के चेहरे पर उदासी के बादल छाए हुये थे. राहुल जी ने लिखा कि सकाकिवारा के विषय में इतना ही कहना पर्याप्त है कि “यदि अनगिनत जापानी पुरुषों ने मेरे साथ अभद्रता का बर्ताव किया होता तो भी सकाकिवारा के स्नेहिल सान्निध्य की स्मृति जापान के प्रति सारी नकारात्मक धारणा को मिटा देती.”
अपने दूसरे मित्र चुशिओ ब्योदो के प्रति भी उनके मन में अपार श्रद्धा और स्नेह का भाव था. उनकी दृष्टि में ब्योदो सान मधुर स्वभाव, सहज स्नेह ईमानदारी जो जापान का जातीय गुण है, की प्रति मूर्ति थे. वे बहुत सीधे-सादे, उदार विचार के पुरुष थे
1935 की जापान यात्रामे राहुलजी जापानी सैन्यवाद को समझने की कोशिश करते हैं और जापान के इस राजनैतिक परिवर्तन से असहमत होने का संकेत भी देते हैं, लेकिन सामंतवाद की कोख से जन्मे जापानी सैन्य सरदारों के फासीवाद के वीभत्स रूप को वे 1942 मे लिखे गये नाटक “जपनिया राछछ” मे ही साहसपूर्वक बेनकाब करते हैं। ” “जापान” पुस्तक मे जापान के राजनैतिक रुझान से असंतोष के स्वर को वे इन पंक्तियों मे व्यक्त करते है:
“आज जापान का शासन न सम्राट के हाथ में है, न बनियों के. हयाशी, अराकी, मिनामी और मसाकी यह चार फौजी जनरल और उनके सामंती वंश जापान के वास्तविक शासक थे. सामंतवाद वस्तुतः वहाँ से लुप्त हुआ ही नहीं. उसने पूंजीपतियों को बढ़ने दिया, पार्लियामेंट और चुनाव की व्यवस्था को भी स्वीकार किया, किन्तु वोट को नहीं, सेना को अंतिम निर्णायक बनाया.”
सामंतवाद की कोख से जन्मे सैन्य सरदारों के फासीवाद के वीभत्स रूप को वे द्वितीय विश्वयुद्ध के समय लिखे गये नाटक “जपनिया राछछ” में करते हैं.
1930 के दशक के अंत तक राहुलजी गहराई से मार्क्सवाद और साम्यवाद से जुड़ गये थे और प्रगतिवाद जिसे साम्यवाद का साहित्यिक उच्छवास माना जाता है, के पुरोधा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे. वे स्वामी सहजानन्द के किसान आंदोलन के स्तम्भ के रूप में भी ख्याति अर्जित कर चुके थे. साथ ही अब चीन के क्षितिज पर जापानी साम्राज्यवाद के भयावह बादल मंडराने लगे थे और यह आशंका भी व्यक्त की जा रही थी कि कोरिया और चीन का लहू पीने वाले जापान की साम्राज्यवादी प्यास तब तक शांत नहीं होगी जबतक वह सारे एशिया-प्रशांत को पैरों तले नहीं रौंदेगा. जुलाई 1935 में आयोजित कम्युनिस्ट इंटरनेशनल (कोमिन्टर्न) की सातवीं कांग्रेस ने फासीवाद के वर्गीय चऱित्र को परिभाषित किया और पश्चिम में जर्मनी और पूरब में जापान के फासीवादी इरादों के खिलाफ संघर्ष की व्यापक रणनीति तैयार की गयी. जापान ने नाजी जर्मनी और फासीवादी इटली के साथ एंटी-कॉमिन्टन संधि पर हस्ताक्षर भी किया था. राहुलजी ने जर्मनी और जापान के फासीवाद के खतरे से जनता को आगाह करने की दृष्टि से “जरमनवा के हार निश्चय” और “जपनवा राछछ” जैसे नाटकों का प्रणयन किया.
“जपनवा राछछ” में राहुलजी जापान के सैनिक फासीवाद को वित्तीय पूंजी की निकृष्टतम विकृति के रूप में व्याख्यायित करतै हैं. इस नाटक के प्रथम अंक में ही जापानी सेना के प्रतिनिधि जेनरल तोयो और जापानी पूंजीपति वर्ग के स्वार्थ का प्रतिनिधित्व करने वाले बडे-बडे उद्योग (जायबात्सु/conglomerate) के सेठ मित्सुई और सेठ मित्सुबिशी जैसे मालिकों के साथ बैठकर विश्व के समस्त आर्थिक संसाधनों पर कब्जा करने की रणनीति गढ़ते हैं. इस नाटक में राहुलजी शोषित वर्ग के प्रति गहरी संवेदना और सहानुभूति और साम्यवाद के प्रति अपनी गहरी आस्था को किसान-मजदूर और बुद्धिजीवी वर्ग के विद्रोह के समवेत शंखनाद के रूप में व्यक्त करते हैं.
राहुलजी लिखते हैं कि अपने देश के मुट्ठीभर पूंजीपतियों के लोभ के लिए जापान अनेक देशों में खून की नदिया बहा रहा है. जापान के फासीवादी शासन के वीभत्स रूप को उजागर करने के लिये वे नाटक के प्रथम तीन अंकों में तीन बिन्दुओं- जापानी उपनिवेश के रूप में कोरियाई जनता की असह्य पीड़ा, चीन के पूर्वोत्तर क्षेत्र (मंचुरिया) की जनता का शोषण और उत्पीडन तथा नारी अस्मिता के दानवी दमन पर प्रकाश डालते हैं।
आखिर सिर्फ चार साल पहले ही 1 मार्च 1919 को कोरिया में जापानी औपनिवेशिक शासन के खिलाफ सुलगते हुये आक्रोश के ज्वालामुखी का विस्फोट हुआ था. कोरिया के इस राष्ट्रव्यापी आंदोलन की प्रतिक्रिया समस्त विश्व में हुई. 1929 में पटना से प्रकाशित युवक पत्रिका में जापान-कोरिया सम्बन्ध पर एक लेख प्रकाशित हुआ जिसने जापानी शोषण की सही तस्वीर प्रस्तुत की: जापान ने कोरिया के “दुबले शरीर का सारा मांस तो खा ही लिया, अब जो कुछ ठठरी बची हुई है उसे गिद्ध की तरह नोच रहा है; और यह दम्भ भरता है कि हम तो उसके अपने हैं, हमारा उसका चचा भतीजा का नाता है, रूप में, रंग में, सभ्यता में, भाषा में- हम एक हैं, उस पर हमारा पैतृक अधिकार है”.
कुछ अखबारों ने इस तरह के निराधार अफवाह ठोस समाचार के रूप में छापकर जापानियों को कोरियाई लोगों के खिलाफ भड़काया. टोक्यो और योकोहामा सहित अनेक शहरो में उग्र और आक्रोशित भीड़ ने निर्दोष कोरियाई जनता का नरसंहार किया. आठ से दस हजार कोरियाई जापानियों के हाथों मारे गये. राहुलजी जापान के चंगुल में फंसे कोरिया की करुण कहानी इस तरह कहते हैं:
“किसान– त कोरिया नजदीकी भाई भइल कि हमनी?
उहे जपान नू कोरिया के बतिस बरिस से
भूँजता ? जपान में भुइकम्प कौना साल आइल
रहे, ऊ बड़का भुइकम्प ?
दलाल– ओनइस बरिस भइल.
किसान– ओही सलिया बेकसूरे नू आठ हजार
कोरिया भाइन के जपान मारि देलस ? अउर
जपान आजो कोरिया का छाती पर बइठि के
कोदो दरता. के कहता, ऊ हमनी के उधार करी?”
जापानी फासीवाद के पैरों तले रौंदी जाने वाली निरीह जनता और यौन शोषण का शिकार हुई महिला के उदाहरण के रूप में राहुलजी सितम्बर 1932 में चीन के उत्तर पूर्व क्षेत्र (मंचुरिया) के फुशुन जिला के गांवों में हुये नरसंहार और “कम्फर्ट वुमन” (सुख देने वाली महिला) की त्रासदी का वर्णन करते है. “कम्फर्ट वूमन” वस्तुतः जापानी फौजियों के यौन शोषण की शिकार उन बालिकाओं के लिये प्रयुक्त अभिव्यक्ति है जिन्हें या तो फरेब द्वारा फंसाया गया था या अपहृत किया गया था. यह ध्यातव्य है कि “कम्फर्ट वुमन” से सम्बद्ध विवाद-विमर्श 1990 में आरंभ हुआ, लेकिन राहुल जी ने 1942 में ही जापानी साम्राज्यवाद के इस घृणित कृत्य का उल्लेख किया.
अपने देश के इने-गिने धन्नासेठों के लोभ के लिए जापान हर देश में खून की होली खेल रहा है. मां के हाथों से बच्चों को छीनकर उनकी हत्या करता है और गांवों में आग लगाता है जापान. जहां-जहां जापान अपने फौजियों को भेजता है वहां-वहां बेटियों बहनों की इज्जत लूटी जाती है इज्जत बचाने के लिये, देश बचाने के लिये हमें जोर से मार-मारकर भगाना चाहिए जापानियों को.
(अपने मुलुकवा के दुई-चारि जन लोभे
देसे देसे खुनवा बहाई इ जपनवा.
छीनि के महतरियन से बचवन के बध करे
गउवां में अगिया लगावे रे जपनवा..
बेटिया-बहिनिया के इज्जतो ना रहे पावे,
जहँवा सिपहिया पठावे रे जपनवा.
इजते गोहार लागि देसके गोहार लागि,
हनि तेगा मार भागि जाई रे जपनवा.)
राहुलजी ने जापानी सिपाहियों की बर्बरता के शिकार फुशन गाँव (चीन) की व्यथा कथा को एक गीत में पिरोया है.
“हाथ में लुकाठी लेकर जापानी सैनिक फूशन गांव को जला रहे हैं. गांव धू धूकर जल रहा है, लपटे आकाश को छू रही है, चारों ओर धुआं उड़ रहा है. जिस जगह पर बच्चे किलकारियां भरते थे, औरतें हंसती-गाती थी और जवान मर्द नाचते थे, वह श्मशान बन गया है. गांव के तीन हजार व्यक्तियों को मौत के घाट उतार दिया गया है. दुधमुंहा बच्चों को गोद में लेकर औरतें भागती हैं और जापानी सेना उनपर गोलियों की बौछार करती है. छाती से सटे हुये बच्चे धरती पर गिरते हैं और धरती खून से लाल हो जाती है.”
(अगिया लगौले लेले हाथ में लुकरिया मेंरा फूशन गांव.
पटपट जरे घर लपटि अकसवा धुंआ उड़े चारो ठाँव..
किलके बलकवा, हंसे पतरि तिरियवा जँह नाचें गभरू जवान.
तीन हजार मोर गाँव के बेकतिया सेहु आजु भइल मसान..
लेहले बलकवा गोदि भगली बहुरिया करे लागे गोली बौछार.
छतिया सटल बचवा गिरले धरतिया बहे लागे खुनवा के धार.. )
1931 में जापान ने मंचुरिया को हड़प लिया और सितम्बर 1932 में जापानी सैनिकों ने (मंचुरिया के) फ़ुशुन जिले के गाँवों में आग लगा दी और खून की होली खेली क्योंकि “लाल बरछी” (रेड स्पीयर्स) नामक आत्मरक्षा जन सेना (मिलिशिया) ने फुशुन की जापानी छावनी पर हमला किया था. इस हमले में कुछ जापानी सैनिक खेत आये थे. “लाल बरछी” के आक्रामक फुशुन इलाके से नहीं थे, लेकिन फुशुन शहर में तैनात जापानी सैनिकों पर छापे मारने के लिए वे बगल के गांवों से गुजरे थे. जापानियों के प्रतिशोध का ज्वालामुखी जब फूटा फुशुन जिला के अनेक गांव मसान बन गये, भूतों की क्रीडास्थली बन गये. जापानी सेना को रोबोट की तरह “तीन सब नीति” में अटूट आस्था रखने का प्रशिक्षण दिया गया था: जब हमला हो सबको मार डालो, सब को जला दो, सबको लूटो”. इसे जलाकर खाक करने की रणनीति भी कहा जाता है. इतिहास में इसका आदिरूप नेपोलियन की सेना को परास्त करने के रूसी उपक्रम “स्कार्च अर्थ” में दिखता है.
एडवर्ड हंटर नामक बेइजिंग-स्थित इनटरन्यूज एजेन्सी के रिपोर्टर ने 30 नवम्बर 1932 के अपने रिपोर्ट में लिखा:
“मैने फुशुन नरसंहार के घटनास्थल और आसपास के इलाके का निरीक्षण किया और सम्बद्ध तथ्यों की जानकारी प्राप्त की. यह सच है कि कोयले के खान के लिये विख्यात फुशुन शहर के तीन हजार चीनी आबाद वृद्ध नर नारी को मौत के घाट उतार दिया गया. जापानी सैनिकों ने इस शहर के आसपास की नौ बस्तियों को आग के हवाले किया और धू धू कर जलते हुये मकानों से जब लोग बाहर निकले, उन्हें मशीनगन से भून दिया गया.”
चीनी सरकार ने यहां फिंगतिनशान त्रासदी स्मारक का निर्माण किया है जहाँ निर्दोष चीनी जनता पर ढाये गये अनिर्वचनीय अत्याचार और उत्पीड़न की करुण कथा की अनुगूँज सुनाई देती है. यह जापानी आक्रमण और तद्जनित चीनी त्रासदी का सच्चा इतिहास है जिसके दर्पण में हम अतीत के अपराधों अमानवीय कृत्यों को देख सकते हैः स्मारक भवन की प्रदर्शनी में यह दर्शाया गया है कि जापानी सेना ने 1931 में चीन के हाथ से मंचूरिया क्षेत्र को हड़प कर जापान की समृद्धि के लिये फुशुन कोयला खदान का किस तरह उपयोग किया और खदान में काम करने वाले खनिक मजदूरों के साथ कैसा व्यवहार किया. इस प्रदर्शनी में मृतकों के अवशेष भी प्रदर्शित हैं. यहां एक बड़ा गड्ढा भी है जिसमें आठ सौ नरकंकाल हैं और जिसे सामूहिक कब्र कहा जाता है.
ब्रिटिश सरकार ने भी भारतीयों के साथ घोर अत्याचार किया. “सात समुन्दर पार करायिके, ले गईल दूर बड़ी दूर पेठायिके” यह दर्द भरा गीत फिजी, मौरिशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद, मैडगास्कर, जमैका के गन्ना के खेतों में गूंजता था. ब्रिटिश सरकार के दलाल बिहार और उत्तर प्रदेश के किसान परिवार के गरीब, अशिक्षित बच्चों को सुनहरे भविष्य की मृगमरीचिका दिखा कर, अच्छी नौकरी का प्रलोभन देकर एग्रीमेंट (गिरमिटिया) के पेपर पर उनके अंगूठे का निशान ले लेते थे और उन्हें आजीवन चाबुक और बेड़ियों के साये में जीने और बैल की तरह जुये के नीचे गर्दन डालने के लिये मजबूर करते थे. फिर भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद नैतिक रूप से इतना पतित नहीं था. ब्रिटिश शासनकाल में भारत की अबोध बालाओं को रैस्टोरेंट में वेट्रेस या सेना में नर्स की नौकरी का हसीन सपना दिखाकर फौजियों की यौनदासी नहीं बनाया गया. जापान ने कोरिया, चीन या जहाँ कहीं भी आधिपत्य स्थापित किया, वहां की मासूम, भोली-भाली लडकियों को बहला-फुसलाकर, अच्छी नौकरी का आश्वासन देकर एशिया-प्रशांत क्षेत्र के युद्ध के मोर्चे पर हर रोज तीस-चालीस फौजियों के यौन शोषण को सहने के लिये मजबूर किया.
आरंभ में सत्रह से बीस साल की लड़कियों का चयन होता था, लेकिन जैसे-जैसे युद्धक्षेत्र का एशिया प्रशांत के सुदूर देशों तक विस्तार हुआ, चौदह से तीस साल की आयु की बालिकाओं और महिलाओं को “ianfu (慰安婦)” अर्थात कम्फर्ट वुमन बनाया गया. सेना की छावनियों में कम्फर्ट वुमन या देहसुख देने वाली महिला को वेश्या या परिचारिका कहा जाता था.
“कम्फर्ट वुमन” की कुल संख्या संख्या दो लाख बताई जाती है. यद्यपि जापानी, चीनी, फिलिपींस, मायन्मार, हॉलैंड की स्त्रियों को भी यौनपेशे की गलाम बनाया गया, सबसे अधिक (करीब अस्सी प्रतिशत से अधिक) कोरियाई स्त्रियों को इस नरक में धकेला गया.
जापानी स्त्रियां जो “कम्फर्ट वुमन” बनीं, मूलतः सेना के अधिकारियों के हवश को पूरा करती थीं और उन्हे सुरक्षित स्थान में रखा जाति था, जबकि कोरिया या अन्य देशों की औरतों को सामान्य फौजियों की शारीरिक क्षुधा के शमन के लिए युद्ध के मैदान में भेजा जाता था.
युद्ध के वज्रपात को हर दिन अपने नग्न शरीर पर झेलने वाली इन महिलाओं को दिन रात कड़े पहरे में जीवन बिताना होता था और अगर कोई महिला भागने की कोशिश करती थी उसे अमानवीय यातना झेलना पडता था. दूसरी महिलाओं को सबक सिखाने के लिये अवज्ञा का दुस्साहस करने वाली महिलाओं की प्राणांतक पीडा और हृदयविदारक चीत्कार को छावनी में प्रचारित किया जाता था. एक महिला को प्रतिदिन खून के आंसू बहाकर औसतन तीस-चालीस जवानों का बलात्कार झेलना होता था, लेकिन कुछ परिस्थितियों में बलात्कारियों की संख्या बढकर एक सौ भी हो जाती थी. फौजी कमरे के बाहर लाईन में खडे होकर अपनी बारी का इन्तजार करते थे. नशे में धुत्त या मानसिक विकार से ग्रस्त फौजी कभी कभी इन महिलाओं पर बर्बर हिंसा का प्रयोग भी करते थे, लेकिन महिलाओं को खून का घूंट पीकर सब कुछ चुपचाप सहना होता था. अपने घर-परिवार से किसी तरह का सम्बंध रखना या किसी फौजी से निजी सम्बन्ध स्थापित करना अपराध माना जाता था
राहुलजी के पास विश्व इतिहास और राजनीति के क्षितिज को आरपार भेदने वाली दृष्टि थी, यही कारण है कि वे 1942 में ही जापानी सैन्यवाद के उस कडवे सच का जिक्र किया जिससे दुनिया 1990 के दशक में अवगत हुई. जेनरल तोयो नामक पात्र जो वस्तुतः प्रधानमंत्री जेनरल तोजो है, जापानी उद्योगपति मित्सुई से कहता है:
“कह सेठ मित्सुई? ई सराब पियावेवाली
छोकरी कहाँ से झिटल ह ?
मित्सुई – जावा से जर्नेल ! अब छोकरिन के कौन दुख बा, जहाँ हमनी के झंडा जाता, जहाँ के सुन्नर
मेंहरारू हमनी से बँची तब न उहाँ रहे पाई.”
नाटक के तीसरे अंक में राहुलजी हांगकांग में दरबान की नौकरी करने वाले दो भारतीय- जंगलीराम और जुम्मन– को मंच पर उतारते हैं और इन पात्रों के माध्यम से कम्फर्ट वुमन की त्रासदी और चीन के कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्त्व में लडे जा रहे जापान-प्रतिरोध युद्ध पर विस्तार से रोशनी डालते हैं. बनवारी प्रसाद नामक जापान के हिन्दुस्तानी दलाल ने इन दोनों की पत्नियों को झांसा देकर “कम्फर्ट वुमन” बनाकर युद्ध के मोर्चे पर भेज दिया. जंगली कहता है कि बनवारी जो हमारे ही जिला-जबार का आदमी है, कैसा-कैसा झूठ बोलता था. उसने हमें भरोसा दिया कि हम दोनो की घरवालियों को सही-सलामत घर पहुंचे देगा. उसने अगर इस तरह का भरोसा न दिया होता तो जब पंजाबी भाइयों की पत्नियां स्वदेश लौटने रही थीं, उसी जत्थे में हम सलीमी और मंगरी को भेज देते.
(जंगली– कहि द जुम्मन भइया! ऊ जपान के दललवा के बात. ऊ बनवरिया हमनी के पंजरे के रहवइया कैसन-कैसन झूठ बोलत रहल.)
जेनरल तोयो भी यह स्वीकार करता है कि जापानी सिपाहियों की पूरी छूट दे दी गई है कि वे जिस किसी मोर्चे पर तैनात हों, वहां उन्हे यौन सुख और शराब की कमी नहीं होगी. (सिपाहिन के छुट दे देले बानी, कि जहाँ जासु, उहाँ जेतना चाहसु ओतना मेंहरारू आ सराब उड़ाबस.)
द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद पैतालीस वर्ष तक जापान ने ‘कम्फर्ट वुमन’ की सच्चाई पर पर्दा डाला और पीडिताओं (कम्फर्ट वुमन) ने भी बदनामी और घर-परिवार टूटने के डर के कारण इस खौफनाक राज को दिल में दफन किये रखा. 1990 के दशक में कुछ “कम्फर्ट वुमन” ने दिल दहलाने वाली अपनी व्यथा-कथा सुनाई, और यह भी कहा कि वे अबतक लोकलाज के कारण चुप थीं. अगर जवानी में वे मुंह खोलतीं, तो परिवार और समाज उन्हें बहिष्कृत करता, उनका या परिवार के अन्य लोगों का कहीं विवाह नहीं होता. समाज में जब नई चेतना आई और वे वृद्धावस्था के चौखट पर पहुंच गई, वे इस राज को खोल पाने का साहस जुटा पाईं. 1997 में 73 वर्ष की आयु में संसार से विदा होने के छह साल पहले किम हाक-शुन नामक पूर्व कम्फर्ट वुमन ने दुनिया के सामने अपने दर्दनाक अतीत की कहानी कही:
“जब मै सत्रह साल की थी, मुझे अपने गांव से उठाकर चीन में तैनात जापानी फौजियो के रंडीखाने में भेज दिया गया जहा रोज राक्षस मेंरे शरीर को नोचते-खसोटते थे. आंखो से टप टप गिरते आंसू को पोंछते हुये वृद्धा ने कहा, “मैने भागने की कोशिश की, लेकिन फौजियो ने मुझे पकडकर फिर नरक में ढकेल दिया.”
1996 में चंग ओक-सन नामक दूसरी पूर्व कम्फर्ट वुमन ने भी अपना बयान दर्ज करवाया:
“उस समय मै तेरह साल की थी. जब मै खेत की तरफ जा रही थी जापानी सिपाहियो ने मुझे दबोच कर एक गाडी में डाल दिया. मेरे मुंह में बदबू से भरे और कीचड सने मोजे ठूंस दिए गये थे. फिर न जाने कितने नरपिशाचों ने बारी-बारी से मेरा बलात्कार किया. मैं बेहोश हो गई थी. जब मुझे होश आया, मैने पाया मै जापान में हूँ. एक बहुत बडे हाल-नुमा कमरा था जिसमें करीब चार सौ कोरियन लड़कियों को रखा गया था. जापानी फौजियों की संख्या पांच हजार से उपर थी. इसका अर्थ यह हुआ कि एक कोरियाई लड़की के शरीर पर रोज चालीस से ज्यादा हैवानों के हवश को झेलने की विवशता थी.”
“जपनिया राछछ” के अंतिम अंक में हांगकांग में कार्यरत दो भारतीय दरबान जंगली और जुम्मन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की चतुर्थ लाल सेना जिसका गठन 1928 में हुआ था, में भर्ती हो जाते हैं और बहादुरी के साथ जापानी फौज के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध करते है. जापानी फौज के रंडीखाने में नारकीय कष्ट और अपमान झेल रही अपनी पत्नियों की याद आते ही उनके सीने में प्रतिशोध की ऐसी ज्वाला दहकने लगती है जो जापानियों के खून से ही बुझ सकती है. माओ के निर्देश के अनुसार वे आम लोगों की तरह जनता के बीच रहते हैं या जंगलों में छिपे रहते हैं और मौका लगते ही दुश्मन सेना पर हमला कर देते हैं. वे अप्रत्याशित रूप से और तेज गति से आक्रमण करते हैं, जापानी संसाधनो को छीनकर लाल सेना के शस्त्रागार को समृद्ध करते है और हर तरह से आम जनता का विश्वास जीतने का प्रयास करते हैं ताकि शोषित किसान लम्बी दीवार की तरह लाल सेना की सुरक्षा कर सके. वे जापानी सैन्यवाद को नेस्तनाबूद करने के उद्देश्य से लड़े जा रहे युद्ध को किसान और मजदूर का युद्ध या जनयुद्ध में परिणत करने के लिए कृतसंकल्प है. इस अंक में उल्लिखित लाल सेना की युद्ध प्रणाली एडगर स्नो की पुस्तक “रेड स्टार ओवर चाइना” पर आधृत है.
1935 में जापान भ्रमण के शीघ्र बाद लिखी गई पुस्तक जापान में राहुलजी अपनी शक्ति और समय का उपयोग जापान की बौद्ध संस्कृति को समझने में करते हैं.
वे बौद्ध दर्शन के विद्वानों से मिलते हैं, बौद्ध सभाओं में व्याख्यान देते हैं और बौद्ध धर्म से जुडे ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण करते हैं. कभी कभी जापानी राजनीति के फासीवादी रुझान और आर्थिक विषमता पर उनकी दृष्टि जाती है, लेकिन चूंकि उनकी जापान यात्रा का मूल उद्देश्य जापान की बौद्ध संस्कृत से अवगत होना था, वे इस पुस्तक में राजनैतिक और सामाजिक विषयों को बस छूते हैं, गहराई में नहीं जाते है.
जापान में रहकर राहुलजी ने देखा होगा कि उग्र राष्ट्रवाद के नये ढांचे में ढलकर जापान के बौद्ध धर्म ने किस तरह एक नया स्वरूप धारण कर लिया और नूतन मूल्यों और मान्यताओं अपना लिया. 1872 के राजकीय निर्देश के तहत जापान में एक नये ढंग के संघ का प्रादुर्भाव हुआ. सरकार ने भिक्षुओं को गृहस्थ जीवन जीने, मांसाहार करने और सामान्य उपासक का वस्त्र पहनकर भी पूजा, अनुष्ठान आदि धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करने की अनुमति दी और फलस्वरूप बौध्द मंदिर जो पहले नगर से दूर थे, अब हर गांव मोहल्ले में बन गये और मंदिर के महास्थविर का पद पीढी दर पीढी हस्तांतरित होने वाली पारिवारिक विरासत बन गया. राहुलजी को जापानी बौद्ध संप्रदायों और जापान की विस्तारवादी और साम्राज्यवादी ताकतों के बीच बढती हुई घनिष्ठता की भी जानकारी मिली होगी और उन्होने देखा होगा कि जापानी बौद्ध भिक्षु किस तरह साम्राज्यवादी एजेंडा के ध्वजवाहक की भूमिका निभा रहे है. कहाँ गये महात्मा बुद्ध के उपदेश, महायान के दान, शील, क्षान्ति, प्रज्ञा पारमिता? रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 1916, 1924 और 1929 में जापान में दिये गये अपने भाषणों में जापानी श्रोताओ को पश्चिमी साम्राज्यवाद के पथ का परित्याग कर महात्मा बुद्ध की देशना से आलोकित मार्ग पर अडिग अग्रसर रहना का आह्वान किया. राहुलजी ने इस पुस्तक में कहीं नहीं लिखा है कि उन्होंने अपने भाषण में जापानी सैन्यवाद की आलोचना की.
“जापानी राछछ” राहुलजी की वैचारिक प्रौढ़ता का अद्भुत दस्तावेज है जिसमें वे विश्व की शोषित और उत्पीड़ित जनता का सशक्त स्वर बनकर सामने आते है. एशिया में प्रभुत्व को स्थापित करने के उद्देश्य के प्रति कृतसंकल्प जापानी सैन्यवादियों को वे राक्षस कहते हैं.
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय चीनी जनता भी जापानी आक्रामकों को “日本鬼子” (riben guizi) अर्थात जापानी दस्यु कहती थी. इस पुस्तक में वे स्पष्ट रूप से जापानी फासीवाद के विद्रूप चेहरे को बेनकाब करते हैं और सैन्यवादी ताकतों की शिकार भारत, चीन, कोरिया और एशिया के अन्य देशों की शोषित जनता ही नहीं, जापान के मजदूरों और किसानों को भी साहस और बहादुरी के साथ फासीवाद से लेकर विजय प्राप्त करने का आह्वान करते हैं.
पंकज मोहन
(Pankaj Mohan)
लेखक, कोरियन स्टडीज के प्रोफेसर और नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके हैं।
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