Sunday, 18 September 2022

कमलाकांत त्रिपाठी / हिंदू धर्म में अवतारवाद (1)

ईश्वर स्वयं पृथ्वी पर अवतार लेते हैं—हिंदू धर्म की एक अनन्य अवधारणा है; यह किसी अन्य धर्म में नहीं मिलती। किंतु वेदों में, बल्कि संपूर्ण श्रुति साहित्य (संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्‌) में, इस अवधारणा का कोई सुराग़ नहीं मिलता। यह वेदों के काफ़ी बाद रचे गए पुराणों तथा ‘इतिहास’ माने गए दो ग्रंथों--रामायण और महाभारत--की देन है। और पुराणों में वर्णित अवतार मनुष्य योनि तक सीमित नहीं, शुरू के तीन अवतार मत्स्य (मछली), कूर्म (कछुआ) और वराह (सुअर) के रूप में मान्य हैं। चौथा अवतार (नृसिंह) भी पूरी तरह मनुष्य नहीं, आधा मनुष्य, आधा व्याघ्र है। 

ख़ासकर पशु के रूप में ईश्वर का अवतार वामपंथियों के अतिरिक्त नवबौद्धों और मसीहाई धर्म-प्रचारकों के लिए हिंदू धर्म की उपहासात्मक आलोचना का विषय रहा है। अवतार मनुष्य के चेतन तत्व आत्मा से जुड़ा है। वेदांत दर्शन के अनुसार शुद्ध चेतन आत्मा ही परमात्मा है जिसे प्राप्त करना ही जीवन का लक्ष्य है। और मसीहाई धर्मों में मनुष्य के सिवा किसी अन्य प्राणी में आत्मा नाम की चीज़ ही नहीं होती।

प्राचीन यूनान के लोग आज के हिंदुओं की तरह ही मूर्तिपूजक और बहुदेववादी थे। दार्शनिक प्लेटो (सुकरात के प्रवक्ता के रूप में) और अरस्तू आत्मा को मानते थे,  प्लेटो तो आत्मा की अमरता के आधार पर पुनर्जन्म भी मानते प्रतीत होते हैं। किंतु उनके लिए विचार और तर्क की क्षमता से सम्पन्न आत्मा केवल मनुष्यों को प्राप्त ईश्वरीय वरदान है। अरस्तू के अनुसार मनुष्य का शरीर अनेक पदार्थों के संघटन से बना है और आत्मा उसका सारतत्व है। अरबों ने जब प्लेटो और अरस्तू के खोए हुए ग्रंथों की खोजकर उनका अनुवाद किया और उस अनुवाद का लैटिन में अनुवाद हुआ, यूरोप में अंधकार युग की समाप्ति और पुनर्जागरण की पूर्वपीठिका तैयार हुई। उसके बाद ही कैथलिक संत टॉमस अक्वीनास (1225-1274 ई.) ने अरस्तू से आत्मा-सम्बंधी विचार लेकर ईसाइयत में उसका समावेश किया। 

बाइबिल में ओल्ड टेस्टामेंट (यहूदियों के धर्मग्रंथ) के ‘उत्पत्ति’ (Genesis) खंड में उल्लेख है कि ईश्वर ने ज़मीन से कुछ मिट्टी उठाई, उसी से आदम की रचना की और उनकी नाक में जीवनदायिनी साँस फूँककर उन्हें सजीव प्राणी बना दिया। जीवनदायिनी साँस फूँकने को आत्मा से जोड़ना कठिन है। 

क़ुरआन मजीद की केवल चार आयतों में ‘पवित्र आत्मा’ (अल रूह अल अमीन) का उल्लेख आता है—2:87, 2:253, 5:110 और 16:102, जिनमें से पहली तीन जीसस क्राइस्ट से सम्बंधित हैं। चारों में पवित्र आत्मा को ईश्वरीय प्रसाद बताया गया है। 

इतना तो निश्चित है कि मसीहाई धर्मों में मनुष्येतर प्राणी आत्मा से महरूम है। इसीलिए मनुष्येतर प्राणी के रूप में ईश्वरीय अवतार उन धर्मों के लिए अजूबा है। 

वैसे तो राम और कृष्ण के अवतारों में परब्रह्म परमात्मा (Ultimate Reality) तक का आरोपण किया गया है किंतु सामान्यत: राम और कृष्ण सहित सभी अवतार विष्णु के माने जाते हैं, जो त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु महेश) में से एक देव हैं। ब्रह्मा सर्जक, विष्णु पालक और महेश (शंकर) संहारक। 

ऋग्वेद की देवमाला में विष्णु एक अप्रधान देव हैं। उनका संदर्भ प्रमुख देव इंद्र के अनुज (उपेंद्र) के रूप में आता है जो सोम-पान में इंद्र का साथ देते हैं। विष्णु की स्तुति में केवल 6 सूक्त मिलते हैं जब कि इंद्र की स्तुति में 289, अग्नि की स्तुति में 218, सोम की स्तुति में 123, विश्वेदेवों की स्तुति में 70, अश्विनीकुमारों की स्तुति में 56, वरुण की स्तुति में 46, मरुत्‌गणों की स्तुति में 38, मित्र की स्तुति में 28 और उषाओं की स्तुति में 21 सूक्त मिलते हैं। 

वैष्णव भक्ति सम्प्रदाय के प्रतिष्ठित होने के साथ विष्णु का महत्व बढ़ने लगा और एक समय आया कि वे त्रिदेवों में श्रेष्ठ मान लिए गए। इस सम्बंध में पुराणों में एक रोचक कथा आती है। भृगु ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र थे। एक बार सरस्वती नदी के तट पर ऋषियों की मंडली यह तय करने बैठी कि त्रिदेवों में श्रेष्ठ कौन है। भृगु को उनकी परीक्षा का दायित्व सौंपा गया। वे पहले ब्रह्मा के पास गए। न तो उनकी स्तुति की, न उन्हें प्रणाम किया। ब्रह्मा का मुख क्रोध से रक्ताभ हो उठा। फिर उन्हें भृगु के मानस पुत्र होने की याद आई तो किसी तरह अपने को जज़्ब किया। किंतु परीक्षा तो हो चुकी थी जिसमें वे अनुत्तीर्ण भी हो चुके थे। वहाँ से भृगु  शिव के पास पहुँचे। उन्होंने उठकर भृगु का आलिंगन करने के लिए भुजाएँ फैलाईं। किंतु भृगु ने परीक्षा के मंतव्य से आलिंगन करने के बजाए उन पर दोषारोपण किया कि वे दुष्टों और पापियों को वरदान देकर वेदों का अनादर करते हैं। इस पर क्रुद्ध होकर शिव ने अपना त्रिशूल उठा लिया। शिवपत्नी सती ने किसी तरह उन्हें शांत किया। फिर भृगु पहुँचे क्षीरसागर में शेष-शैय्या पर, लक्ष्मी की गोद में सिर रखकर लेटे हुए विष्णु के पास। पहुँचते ही उन्होंने विष्णु के वक्षस्थल पर पाद-प्रहार कर दिया। विष्णु उनका पैर सहलाते हुए बोले—ऋषिश्रेष्ठ, आपके पैर में चोट तो नहीं आई? मैं तो आपके चरण के स्पर्श से धन्य हो गया। विष्णु परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए किंतु लक्ष्मी सती-जैसी सहिष्णु नहीं थीं। उन्होंने क्रोध में आकर भृगु को शाप दे दिया कि आगे से आपके वंशज सारे ब्राह्मण मेरी कृपा से वंचित, दरिद्र होंगे और भिक्षावृत्ति से जीवन-निर्वाह करेंगे। इसी पौराणिक प्रसंग पर रहीम ने क्षमा की महिमा को रेखांकित करते हुए अपना वह प्रसिद्ध दोहा लिखा था—

छिमा बड़न को चाहिए, छोटन को उतपात। का रहीम हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात॥ 

कालांतर में विष्णु ब्रह्मांड के अंतिम सत्य के प्रतीक ब्रह्म मान लिए गए। गीता के लेखन के पहले उनका यह माहात्म्य स्थापित हो चुका था। गीता में ही कृष्ण के मुख से ईश्वर के अवतार लेने का आधार निरूपित किया गया है-- 

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌॥ परित्राणाय साधूनाम्‌ विनाशाय च दुष्कृताम्‌। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥ (4:7-8) 

[हे भरतवंशी (अर्जुन), जब-जब धर्म का पतन और अधर्म का उत्थान होता है, सज्जनों की रक्षा और दुष्टों के विनाश के लिए, तथा धर्म की संस्थापना के लिए मैं हर युग में स्वयं का सृजन करता हूँ।] 

मोटे तौर पर विष्णु के कुल 24 अवतारों का उल्लेख मिलता है जिनमें 10 प्रमुख हैं। इन प्रमुख अवतारों में भी थोड़ी भिन्नता है‌। इनमें एक सर्वमान्य अवतार कल्कि का है जो अभी भविष्य के गर्भ में है, वह चतुर्युगी काल-चक्र में वर्तमान कलियुग के अंत में और आनेवाले सत्ययुग के ठीक पूर्व होगा। महात्मा बुद्ध भी,  जिनकी शिक्षाएँ ईश्वर-निरपेक्ष बौद्ध धर्म की बुनियाद हैं, उत्तर भारत में मान्य दस अवतारों की सूची में शामिल हैं। कालक्रमानुसार दस अवतारों की परिगणना इस तरह होती है—मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन (सत्ययुग), परशुराम, राम (त्रेता), कृष्ण (द्वापर), बुद्ध एवं कल्कि (कलियुग)। कुछ सूचियों में कलियुग के वेद-विरोधी बुद्धावतार की जगह द्वापर के बलराम को दस प्रमुख अवतारों में स्थान दे दिया गया है। उड़िया परम्परा में बलराम के बजाय जगन्नाथ को यह स्थान मिला है और महाराष्ट्रीय परंपरा में विठोबा को। 

वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत (पुष्टिमार्ग) में विष्णु के बजाय कृष्ण को ही परब्रह्म परमात्मा मानकर, बुद्ध और बलराम दोनों को कृष्ण के अवतारों में शामिल करते हुए शेष 8 को भी कृष्ण का ही अवतार बताया गया है। कृष्ण के पुष्टिमार्गी दशावतारों की सूची जयदेव के गीतगोविंदम्‌ में मिलती है जो इस क्रम में है—मीन, कच्छप, सूकर, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, बलराम, बुद्ध और कल्कि। एक बार बुद्ध को दस प्रमुख अवतारों में शामिल कर लेने के बाद, उन्हें सूची से निकालने के क्रम में संभवत: ये स्थानीय और सम्प्रदाय-जन्य भिन्नताएँ आई होंगी।     

24 अवतारों की जो समावेशी सूची है उसमें उपरोक्त अवतारों के अतिरिक्त कृष्णद्वैपायन व्यास (महाभारत और पुराणों के प्रणेता) नारद, धन्वंतरि, कपिल (निरीश्वर सांख्य के आचार्य), दत्तात्रेय, हयग्रीव, गजेन्द्रमोक्ष आदि शामिल हैं।

ऊपर अवतारों के संदर्भ में  सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग के नाम आए हैं।  हिंदुओं की काल-सम्बंधी चक्रीय अवधारणा अपने-आप में अनूठी है। हिंदू परंपरा में कलियुग का भोगकाल 4,32,000 मनुष्य-वर्ष माना जाता है। अभी कलियुग के प्रथम चरण के केवल 5123 वर्ष बीते हैं। द्वापर का भोगकाल कलियुग के भोगकाल का दो गुना, त्रेता का तीन गुना और सत्ययुग का चार गुना है। इस तरह एक चतुर्युग का भोगकाल 43,20,000 मनुष्य-वर्ष होता है। ब्रह्मा का एक दिन (रात को छोड़कर) एक हज़ार चतुर्युग का होता है जिसे कल्प कहते हैं। हर कल्प के बाद प्रलय आता है जो ब्रह्मा की रात होती है। उसका काल भी एक हज़ार चतुर्युग होता है। इस काल में चेतना के अभाव में अनस्तित्व की स्थिति रहती है जिसमें ब्रह्मा शयन करते हैं। कल्प 14 मन्वंतरों में विभाजित होता है, प्रत्येक में अलग-अलग मनु का शासन होता है। वर्तमान कल्प का नाम श्वेतवाराह कल्प है और वर्तमान मन्वंतर का नाम इसके शासक वैवस्वत (विवस्वान=सूर्य के पुत्र) मनु के नाम पर वैवस्वत मन्वंतर है। 

माना जाता है कि 43,20,000 मानव-वर्षों के एक चतुर्युग के मान से एक हज़ार चतुर्युगों के एक दिन, 30 दिन के एक माह और 12 माह के एक वर्ष के हिसाब से ब्रह्मा की आयु 100 वर्ष होती है। एक ब्रह्मा की आयु पूर्ण होनेपर महाप्रलय आता है और पुन: सृष्टि होती है। 

इस धारणा के अनुसार वर्तमान ब्रह्मा अपनी आयु के 50 वर्ष पूरे कर चुके हैं और  उनके 51 वें वर्ष के पहले दिन (कल्प) का सातवाँ (वैवस्वत) मन्वंतर चल रहा है।

हिंदुओं का हर अनुष्ठान संकल्प-पाठ से शुरू होता है जिसमें अनुष्ठान के समय और स्थान का उल्लेख होता है। समय के उल्लेख में ब्रह्मा की वर्तमान आयु की उपरोक्त संगणना का पाठ इस तरह किया जाता है—ब्रह्मणोsनि द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेsष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे बौद्धावतारे...नाम संवत्सरे...मासे...पक्षे...तिथौ...वासरे... {अनुमानित अनुवाद: ब्रह्मा की आयु के उत्तरार्ध में, श्वेतवाराह कल्प में, वैवस्वत मन्वंतर के अट्ठाईसवें कलियुग के प्रथम चरण में, बौद्धावतार के काल में, अमुक संवत्‌ के अमुक मास के कृष्ण /शुक्ल पक्ष में, अमुक तिथि, अमुक दिन को...} इसी तरह स्थान के संदर्भ में भूलोक से शुरू होकर जम्बूद्वीप (एशिया महाद्वीप?) के भारतखंड में भारतवर्ष के अमुक क्षेत्र के अमुक ग्राम / नगर का उल्लेख होता है। 

हिंदुओं के अतिदीर्घ इतिहास के सातत्य में न आरम्भ का बिंदु है न समापन का। इसलिए उनकी सृष्टि की अवधारणा एक बार का व्यापार नहीं है। वह बार-बार होती है और अनादि से अनंत तक व्याप्त है। इसीलिए ऋग्वेद के ऋत‌ सूक्त (10.190) में ‘यथापूर्वमकल्पयत्‌’ (जैसे पहले हुआ था) की अभिव्यक्ति का प्रयोग हुआ है—

‘ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत। ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः॥ समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत। अहोरात्राणि विदधद् विश्वस्य मिषतो वशी॥ सूर्याचन्द्रमसौधाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः॥‘ (ऋग्वेद, 10.190.1-3)  

[(महाप्रलय के उपरांत इस सृष्टि के आरम्भ में) सब ओर से प्रकाशमान तप से ऋत (आद्य नियम) और सत्य की उत्पत्ति हुई। उसी से रात्रि और दिन प्रकट हुए तथा जलमय समुद्र का आविर्भाव हुआ। जलमय समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात् दिनों और रात्रियों को धारण करने वाला काल-रूप संवत्सर प्रकट हुआ जो पलक झपकानेवाले जंगम प्राणियों और स्थावरों से युक्त समस्त संसार को अपने अधीन रखता है। उसके बाद सूर्य, चन्द्र, आकाश, पृथ्वी, अन्तरिक्ष और नभ की पूर्वसृष्टि के अनुरूप पुन: सृष्टि हुई।]                                                 
कैसा संयोग है कि अंतरिक्ष-विज्ञान के अनुसार हमारे सौरमंडल का सूर्य अपनी 10 बिलियन (अरब) वर्ष की आयु का आधा, 5 अरब वर्ष, व्यतीत कर चुका है और अगले 5 अरब वर्षों में उसकी सारी हाइड्रोजन और हीलियम गैसें जलकर समाप्त हो जाएँगी, जिससे हमारे सूर्य तथा सौरमंडल का अंत हो जाएगा। 

ईश्वर स्वयं पृथ्वी पर अवतार लेते हैं—हिंदू धर्म की एक अनन्य अवधारणा है; यह किसी अन्य धर्म में नहीं मिलती। किंतु वेदों में, बल्कि संपूर्ण श्रुति साहित्य (संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्‌) में, इस अवधारणा का कोई सुराग़ नहीं मिलता। यह वेदों के काफ़ी बाद रचे गए पुराणों तथा ‘इतिहास’ माने गए दो ग्रंथों--रामायण और महाभारत--की देन है। और पुराणों में वर्णित अवतार मनुष्य योनि तक सीमित नहीं, शुरू के तीन अवतार मत्स्य (मछली), कूर्म (कछुआ) और वराह (सुअर) के रूप में मान्य हैं। चौथा अवतार (नृसिंह) भी पूरी तरह मनुष्य नहीं, आधा मनुष्य, आधा व्याघ्र है। 

ख़ासकर पशु के रूप में ईश्वर का अवतार वामपंथियों के अतिरिक्त नवबौद्धों और मसीहाई धर्म-प्रचारकों के लिए हिंदू धर्म की उपहासात्मक आलोचना का विषय रहा है। अवतार मनुष्य के चेतन तत्व आत्मा से जुड़ा है। वेदांत दर्शन के अनुसार शुद्ध चेतन आत्मा ही परमात्मा है जिसे प्राप्त करना ही जीवन का लक्ष्य है। और मसीहाई धर्मों में मनुष्य के सिवा किसी अन्य प्राणी में आत्मा नाम की चीज़ ही नहीं होती।

प्राचीन यूनान के लोग आज के हिंदुओं की तरह ही मूर्तिपूजक और बहुदेववादी थे। दार्शनिक प्लेटो (सुकरात के प्रवक्ता के रूप में) और अरस्तू आत्मा को मानते थे,  प्लेटो तो आत्मा की अमरता के आधार पर पुनर्जन्म भी मानते प्रतीत होते हैं। किंतु उनके लिए विचार और तर्क की क्षमता से सम्पन्न आत्मा केवल मनुष्यों को प्राप्त ईश्वरीय वरदान है। अरस्तू के अनुसार मनुष्य का शरीर अनेक पदार्थों के संघटन से बना है और आत्मा उसका सारतत्व है। अरबों ने जब प्लेटो और अरस्तू के खोए हुए ग्रंथों की खोजकर उनका अनुवाद किया और उस अनुवाद का लैटिन में अनुवाद हुआ, यूरोप में अंधकार युग की समाप्ति और पुनर्जागरण की पूर्वपीठिका तैयार हुई। उसके बाद ही कैथलिक संत टॉमस अक्वीनास (1225-1274 ई.) ने अरस्तू से आत्मा-सम्बंधी विचार लेकर ईसाइयत में उसका समावेश किया। 

बाइबिल में ओल्ड टेस्टामेंट (यहूदियों के धर्मग्रंथ) के ‘उत्पत्ति’ (Genesis) खंड में उल्लेख है कि ईश्वर ने ज़मीन से कुछ मिट्टी उठाई, उसी से आदम की रचना की और उनकी नाक में जीवनदायिनी साँस फूँककर उन्हें सजीव प्राणी बना दिया। जीवनदायिनी साँस फूँकने को आत्मा से जोड़ना कठिन है। 

क़ुरआन मजीद की केवल चार आयतों में ‘पवित्र आत्मा’ (अल रूह अल अमीन) का उल्लेख आता है—2:87, 2:253, 5:110 और 16:102, जिनमें से पहली तीन जीसस क्राइस्ट से सम्बंधित हैं। चारों में पवित्र आत्मा को ईश्वरीय प्रसाद बताया गया है। 

इतना तो निश्चित है कि मसीहाई धर्मों में मनुष्येतर प्राणी आत्मा से महरूम है। इसीलिए मनुष्येतर प्राणी के रूप में ईश्वरीय अवतार उन धर्मों के लिए अजूबा है। 

वैसे तो राम और कृष्ण के अवतारों में परब्रह्म परमात्मा (Ultimate Reality) तक का आरोपण किया गया है किंतु सामान्यत: राम और कृष्ण सहित सभी अवतार विष्णु के माने जाते हैं, जो त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु महेश) में से एक देव हैं। ब्रह्मा सर्जक, विष्णु पालक और महेश (शंकर) संहारक। 

ऋग्वेद की देवमाला में विष्णु एक अप्रधान देव हैं। उनका संदर्भ प्रमुख देव इंद्र के अनुज (उपेंद्र) के रूप में आता है जो सोम-पान में इंद्र का साथ देते हैं। विष्णु की स्तुति में केवल 6 सूक्त मिलते हैं जब कि इंद्र की स्तुति में 289, अग्नि की स्तुति में 218, सोम की स्तुति में 123, विश्वेदेवों की स्तुति में 70, अश्विनीकुमारों की स्तुति में 56, वरुण की स्तुति में 46, मरुत्‌गणों की स्तुति में 38, मित्र की स्तुति में 28 और उषाओं की स्तुति में 21 सूक्त मिलते हैं। 

वैष्णव भक्ति सम्प्रदाय के प्रतिष्ठित होने के साथ विष्णु का महत्व बढ़ने लगा और एक समय आया कि वे त्रिदेवों में श्रेष्ठ मान लिए गए। इस सम्बंध में पुराणों में एक रोचक कथा आती है। भृगु ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र थे। एक बार सरस्वती नदी के तट पर ऋषियों की मंडली यह तय करने बैठी कि त्रिदेवों में श्रेष्ठ कौन है। भृगु को उनकी परीक्षा का दायित्व सौंपा गया। वे पहले ब्रह्मा के पास गए। न तो उनकी स्तुति की, न उन्हें प्रणाम किया। ब्रह्मा का मुख क्रोध से रक्ताभ हो उठा। फिर उन्हें भृगु के मानस पुत्र होने की याद आई तो किसी तरह अपने को जज़्ब किया। किंतु परीक्षा तो हो चुकी थी जिसमें वे अनुत्तीर्ण भी हो चुके थे। वहाँ से भृगु  शिव के पास पहुँचे। उन्होंने उठकर भृगु का आलिंगन करने के लिए भुजाएँ फैलाईं। किंतु भृगु ने परीक्षा के मंतव्य से आलिंगन करने के बजाए उन पर दोषारोपण किया कि वे दुष्टों और पापियों को वरदान देकर वेदों का अनादर करते हैं। इस पर क्रुद्ध होकर शिव ने अपना त्रिशूल उठा लिया। शिवपत्नी सती ने किसी तरह उन्हें शांत किया। फिर भृगु पहुँचे क्षीरसागर में शेष-शैय्या पर, लक्ष्मी की गोद में सिर रखकर लेटे हुए विष्णु के पास। पहुँचते ही उन्होंने विष्णु के वक्षस्थल पर पाद-प्रहार कर दिया। विष्णु उनका पैर सहलाते हुए बोले—ऋषिश्रेष्ठ, आपके पैर में चोट तो नहीं आई? मैं तो आपके चरण के स्पर्श से धन्य हो गया। विष्णु परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए किंतु लक्ष्मी सती-जैसी सहिष्णु नहीं थीं। उन्होंने क्रोध में आकर भृगु को शाप दे दिया कि आगे से आपके वंशज सारे ब्राह्मण मेरी कृपा से वंचित, दरिद्र होंगे और भिक्षावृत्ति से जीवन-निर्वाह करेंगे। इसी पौराणिक प्रसंग पर रहीम ने क्षमा की महिमा को रेखांकित करते हुए अपना वह प्रसिद्ध दोहा लिखा था—

छिमा बड़न को चाहिए, छोटन को उतपात। का रहीम हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात॥ 

कालांतर में विष्णु ब्रह्मांड के अंतिम सत्य के प्रतीक ब्रह्म मान लिए गए। गीता के लेखन के पहले उनका यह माहात्म्य स्थापित हो चुका था। गीता में ही कृष्ण के मुख से ईश्वर के अवतार लेने का आधार निरूपित किया गया है-- 

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌॥ परित्राणाय साधूनाम्‌ विनाशाय च दुष्कृताम्‌। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥ (4:7-8) 

[हे भरतवंशी (अर्जुन), जब-जब धर्म का पतन और अधर्म का उत्थान होता है, सज्जनों की रक्षा और दुष्टों के विनाश के लिए, तथा धर्म की संस्थापना के लिए मैं हर युग में स्वयं का सृजन करता हूँ।] 

मोटे तौर पर विष्णु के कुल 24 अवतारों का उल्लेख मिलता है जिनमें 10 प्रमुख हैं। इन प्रमुख अवतारों में भी थोड़ी भिन्नता है‌। इनमें एक सर्वमान्य अवतार कल्कि का है जो अभी भविष्य के गर्भ में है, वह चतुर्युगी काल-चक्र में वर्तमान कलियुग के अंत में और आनेवाले सत्ययुग के ठीक पूर्व होगा। महात्मा बुद्ध भी,  जिनकी शिक्षाएँ ईश्वर-निरपेक्ष बौद्ध धर्म की बुनियाद हैं, उत्तर भारत में मान्य दस अवतारों की सूची में शामिल हैं। कालक्रमानुसार दस अवतारों की परिगणना इस तरह होती है—मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन (सत्ययुग), परशुराम, राम (त्रेता), कृष्ण (द्वापर), बुद्ध एवं कल्कि (कलियुग)। कुछ सूचियों में कलियुग के वेद-विरोधी बुद्धावतार की जगह द्वापर के बलराम को दस प्रमुख अवतारों में स्थान दे दिया गया है। उड़िया परम्परा में बलराम के बजाय जगन्नाथ को यह स्थान मिला है और महाराष्ट्रीय परंपरा में विठोबा को। 

वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत (पुष्टिमार्ग) में विष्णु के बजाय कृष्ण को ही परब्रह्म परमात्मा मानकर, बुद्ध और बलराम दोनों को कृष्ण के अवतारों में शामिल करते हुए शेष 8 को भी कृष्ण का ही अवतार बताया गया है। कृष्ण के पुष्टिमार्गी दशावतारों की सूची जयदेव के गीतगोविंदम्‌ में मिलती है जो इस क्रम में है—मीन, कच्छप, सूकर, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, बलराम, बुद्ध और कल्कि। एक बार बुद्ध को दस प्रमुख अवतारों में शामिल कर लेने के बाद, उन्हें सूची से निकालने के क्रम में संभवत: ये स्थानीय और सम्प्रदाय-जन्य भिन्नताएँ आई होंगी।     

24 अवतारों की जो समावेशी सूची है उसमें उपरोक्त अवतारों के अतिरिक्त कृष्णद्वैपायन व्यास (महाभारत और पुराणों के प्रणेता) नारद, धन्वंतरि, कपिल (निरीश्वर सांख्य के आचार्य), दत्तात्रेय, हयग्रीव, गजेन्द्रमोक्ष आदि शामिल हैं।

ऊपर अवतारों के संदर्भ में  सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग के नाम आए हैं।  हिंदुओं की काल-सम्बंधी चक्रीय अवधारणा अपने-आप में अनूठी है। हिंदू परंपरा में कलियुग का भोगकाल 4,32,000 मनुष्य-वर्ष माना जाता है। अभी कलियुग के प्रथम चरण के केवल 5123 वर्ष बीते हैं। द्वापर का भोगकाल कलियुग के भोगकाल का दो गुना, त्रेता का तीन गुना और सत्ययुग का चार गुना है। इस तरह एक चतुर्युग का भोगकाल 43,20,000 मनुष्य-वर्ष होता है। ब्रह्मा का एक दिन (रात को छोड़कर) एक हज़ार चतुर्युग का होता है जिसे कल्प कहते हैं। हर कल्प के बाद प्रलय आता है जो ब्रह्मा की रात होती है। उसका काल भी एक हज़ार चतुर्युग होता है। इस काल में चेतना के अभाव में अनस्तित्व की स्थिति रहती है जिसमें ब्रह्मा शयन करते हैं। कल्प 14 मन्वंतरों में विभाजित होता है, प्रत्येक में अलग-अलग मनु का शासन होता है। वर्तमान कल्प का नाम श्वेतवाराह कल्प है और वर्तमान मन्वंतर का नाम इसके शासक वैवस्वत (विवस्वान=सूर्य के पुत्र) मनु के नाम पर वैवस्वत मन्वंतर है। 

माना जाता है कि 43,20,000 मानव-वर्षों के एक चतुर्युग के मान से एक हज़ार चतुर्युगों के एक दिन, 30 दिन के एक माह और 12 माह के एक वर्ष के हिसाब से ब्रह्मा की आयु 100 वर्ष होती है। एक ब्रह्मा की आयु पूर्ण होनेपर महाप्रलय आता है और पुन: सृष्टि होती है। 

इस धारणा के अनुसार वर्तमान ब्रह्मा अपनी आयु के 50 वर्ष पूरे कर चुके हैं और  उनके 51 वें वर्ष के पहले दिन (कल्प) का सातवाँ (वैवस्वत) मन्वंतर चल रहा है।

हिंदुओं का हर अनुष्ठान संकल्प-पाठ से शुरू होता है जिसमें अनुष्ठान के समय और स्थान का उल्लेख होता है। समय के उल्लेख में ब्रह्मा की वर्तमान आयु की उपरोक्त संगणना का पाठ इस तरह किया जाता है—ब्रह्मणोsनि द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेsष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे बौद्धावतारे...नाम संवत्सरे...मासे...पक्षे...तिथौ...वासरे... {अनुमानित अनुवाद: ब्रह्मा की आयु के उत्तरार्ध में, श्वेतवाराह कल्प में, वैवस्वत मन्वंतर के अट्ठाईसवें कलियुग के प्रथम चरण में, बौद्धावतार के काल में, अमुक संवत्‌ के अमुक मास के कृष्ण /शुक्ल पक्ष में, अमुक तिथि, अमुक दिन को...} इसी तरह स्थान के संदर्भ में भूलोक से शुरू होकर जम्बूद्वीप (एशिया महाद्वीप?) के भारतखंड में भारतवर्ष के अमुक क्षेत्र के अमुक ग्राम / नगर का उल्लेख होता है। 

हिंदुओं के अतिदीर्घ इतिहास के सातत्य में न आरम्भ का बिंदु है न समापन का। इसलिए उनकी सृष्टि की अवधारणा एक बार का व्यापार नहीं है। वह बार-बार होती है और अनादि से अनंत तक व्याप्त है। इसीलिए ऋग्वेद के ऋत‌ सूक्त (10.190) में ‘यथापूर्वमकल्पयत्‌’ (जैसे पहले हुआ था) की अभिव्यक्ति का प्रयोग हुआ है—

‘ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत। ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः॥ समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत। अहोरात्राणि विदधद् विश्वस्य मिषतो वशी॥ सूर्याचन्द्रमसौधाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः॥‘ (ऋग्वेद, 10.190.1-3)  

[(महाप्रलय के उपरांत इस सृष्टि के आरम्भ में) सब ओर से प्रकाशमान तप से ऋत (आद्य नियम) और सत्य की उत्पत्ति हुई। उसी से रात्रि और दिन प्रकट हुए तथा जलमय समुद्र का आविर्भाव हुआ। जलमय समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात् दिनों और रात्रियों को धारण करने वाला काल-रूप संवत्सर प्रकट हुआ जो पलक झपकानेवाले जंगम प्राणियों और स्थावरों से युक्त समस्त संसार को अपने अधीन रखता है। उसके बाद सूर्य, चन्द्र, आकाश, पृथ्वी, अन्तरिक्ष और नभ की पूर्वसृष्टि के अनुरूप पुन: सृष्टि हुई।]                                               
कैसा संयोग है कि अंतरिक्ष-विज्ञान के अनुसार हमारे सौरमंडल का सूर्य अपनी 10 बिलियन (अरब) वर्ष की आयु का आधा, 5 अरब वर्ष, व्यतीत कर चुका है और अगले 5 अरब वर्षों में उसकी सारी हाइड्रोजन और हीलियम गैसें जलकर समाप्त हो जाएँगी, जिससे हमारे सूर्य तथा सौरमंडल का अंत हो जाएगा। 
(क्रमश:)

कमलाकांत त्रिपाठी
Kamlakant Tripathi 

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