आधुनिक भौतिकी के आधार में आइंस्टीन के प्रतिपादित रिलेटिविटी पर दो सिद्धांत हैं: स्पेशल थ्योरी, जिसे उन्होंने 1905 में प्रकाशित किया था, और 1915 में प्रकाशित जेनेरल थ्योरी. 1916 में उन्होंने जर्मन में एक पतली सी किताब लिखी जिसके अंग्रेजी अनुवाद का शीर्षक हुआ, "रिलेटिविटी, द स्पेशल ऐंड द जेनेरल थ्योरी". जैसी उम्मीद की जा सकती है, यह किताब दशकों इंटरनेशनल बेस्ट सेलर रही.
इसके प्राक्कथन में उन्होंने लिखा है, "यह किताब ऐसे पाठकों को रिलेटिविटी के सिद्धांत की सही समझ देने के लिए लिखी गयी है जो सामान्य वैज्ञानिक या दार्शनिक दृष्टिकोण से इसमें रुचि रखते हैं लेकिन जो सैद्धांतिक भौतिकी में काम आते गणितीय उपस्कर (एपरेटस) से अवगत नहीं हैं." लेकिन साथ में यह भी जोड़ दिया कि "किताब यद्यपि छोटी है, इसे पढ़ने के लिए पर्याप्त धैर्य और इच्छाशक्ति की आवश्यकता पड़ेगी".
किताब में छोटे छोटे बत्तीस अध्याय हैं. ग्यारहवें अध्याय से ऐसे समीकरण दिखने लगते हैं जिनसे सामान्य जनों के पसीने छूटने लगेंगे. लेकिन पहले दस अध्याय में गणित नहीं के बराबर है. ये अध्याय भी स्पेशल थ्योरी से हमारा अच्छा परिचय कराते हैं. किताब ऐसे लिखी गयी है जैसे कोई बाहरी प्रोफेसर किसी हाई स्कूल के बच्चों से सापेक्षता पर बातें कर रहा हो. इस शैली को हटा देने पर अध्याय छोटे हो जाते हैं. पहले दस अध्यायों का हिंदी में संक्षेपण करने का प्रयास किया है. उद्देश्य रहा (मुख्यतः) अपनी समझ सही कर पाना.
श्री गणेश करते हैं.
1. ज्यामिती के साध्यों के भौतिक अभिप्राय
स्कूल में हम सबने ने ज्यामिती पढ़ी होगी, और उसके साध्यों की सत्यता में हमारा अटूट विश्वास होगा. ज्यामिति का प्रारम्भ बिंदु, सरल रेखा, समधरातल (प्लेन) जैसी अवधारणाओं से और कुछ स्वयंसिद्ध प्रस्तावों से होता है. फिर शुद्ध तर्क के बल पर - इन अवधारणाओं और स्वयंसिद्ध प्रस्तावों को लेकर ज्यामिति के सारे साध्य 'सिद्ध' किये जाते हैं.
साध्य सिद्ध तो हो जाते हैं लेकिन क्या वे 'सत्य' भी हैं? यदि हम कहें कि ये साध्य सत्य हैं तो हमारा क्या अभिप्राय होता है? सत्य शब्द को हम सदा 'वास्तविक' चीजों से जोड़ते हैं. ज्यामिति 'वास्तविक' चीजों की नहीं बात करती - बस अवधारणा और स्वयंसिद्धों की. (बिंदु जैसी कोई चीज 'वास्तव' में हो सकती है, जिसकी न लम्बाई हो, न चौड़ाई, न मोटाई? या सरल रेखा - लम्बाई है किन्तु चौड़ाई या मोटाई नहीं है?) तब हम कह सकते हैं कि भौतिक दुनिया में जो चीजें हैं उनसे मिलती जुलती, 'लगभग' वैसी ही कुछ चीजों के लिए, ज्यामिति के साध्य 'सत्य' हैं.
यह मानते हुए कि 'बिंदु' जैसी कोई चीज नहीं होती है, हम दूर स्थित 'बिंदुओं' को देखने के अभ्यस्त हैं, यदि बिंदु नहीं तो कहें कि दो चीजे को देखने के अभ्यस्त है, दोनों 'दो' भिन्न चीजे हैं. यदि हम एक आँख बंद कर लें और देखने पर पाएं कि एक चीज दूसरी चीज से बिलकुल ढक गयी है तब हम कहेंगे, हम और वे दोनों बिंदु एक 'सरल रेखा' पर हैं. (यह पूरा सत्य नहीं हो सकता. हम कोई ऐसी चीज नहीं जिसमे लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई नहीं है; न ही वे दोनों चीजें जिन्हे हम देख रहे हैं, लेकिन वे दोनों बहुत दूर हैं इसलिए ऐसा 'लगभग' सत्य है.) हम जब उन्हें बिंदु मानते हैं तब हम उनके बीच की दूरी भी जान सकते हैं. क्या यह दूरी तब भी वही रहेगी (जो अभी है) जब हम उस समधरातल (प्लेन) को (या उस वस्तु को जिस पर हम और ये दोनों चीजें हैं) मोड़ दें? - अभी यह सच लगता है हम इसे सच मान कर आगे बढ़ते हैं.
लेकिन सच तो यह है कि ज्यामिति के साध्यों की सत्यता, वास्तविक जीवन में, हमारे अपूर्ण अनुभवों पर आधारित हैं, अभी हमने इस सत्यता को मान ली है, आगे, जेनेरल थ्योरी में, हम देखेंगे यह सत्यता अपूर्ण है, और तब हम उस अपूर्णता के विस्तार भी समझेंगे.
2. को-आर्डिनेट की प्रणाली
ज्यामिति में जिसे दो बिंदुओं के बीच की दूरी कहते हैं उसका उपयोग हम व्यवहारिक जीवन में भी करते हैं. दो बिंदुओं के बीच की दूरी जानने के लिए पहले हम उन्हें एक सरल रेखा से मिलाते हैं और फिर उस सरल रेखा की लम्बाई किसी मानक लम्बाई की छड़ी - मीटर या गज आदि - से नापते हैं.
किसी घटना को हम किसी 'जगह' से ही सम्बद्ध कर सकते हैं. यह जगह वस्तुतः एक 'बिंदु' है. यदि हम कहते हैं कि कनॉट प्लेस, दिल्ली में एक कार दुर्घटनाग्रस्त हुई तो सुनने वाले समझ जाते हैं कि किस 'जगह' दुर्घटना हुई. (आइंस्टीन ने पोट्सडैमेर प्लाट्ज़ बर्लिन लिखा था. पहले अंग्रेजी अनुवाद में उसे ट्रैफलगर स्क्वायर लन्दन बताया गया, और बाद में आये अनुवाद में टाइम्स स्क्वायर न्यू यॉर्क. हिंदी लिखे में कनॉट प्लेस दिल्ली कुछ गलत नहीं लगता.)
कनॉट प्लेस, दिल्ली पृथ्वी की सतह पर एक जानी पजचानी जगह (बिंदु) है जिसे एक नाम दे दिया गया है. लेकिन कुछ घटनाएं ऐसी जगहों पर भी हो सकतीं हैं जो पृथ्वी की सतह पर नहीं हों और जिनके कोई नाम नहीं हों. उन्हें भी हम ज्ञात बिंदुओं से उनकी दूरी जा कर 'पहचान' सकते हैं.
उदाहरण के लिए यदि हम कहें कि कनॉट प्लेस के ठीक ऊपर एक बादल है तो बादल की स्थिति जानने के लिए हम कनॉट प्लेस पर लंबवत, एक लंबा डंडा खाद कर उसकी लम्बाई नाप कर कह सकते हैं कि बादल कनॉट प्लेस के 1600 मीटर ऊपर है. (बिना डंडा खड़ा किये भी ऑप्टिकल उपकरणों से हम बादल की ऊँचाई जान सकते हैं) और जब हम कहते हैं कि बादल कनॉट प्लेस से 1600 मीटर ऊपर है, हम बादल की 'स्थिति' समझ जाते हैं क्योंकि हम कनॉट प्लेस की स्थिति जानते हैं.
स्थिति की समझ का विकास इस तरह देखा जा सकता है:
1. पहले सतह पर एक ‘जाने पहचाने’ बिंदु को लिया गया, जिस की स्थिति से हम अवगत हैं;
2. फिर उस बिंदु से निश्चित ऊँचाई पर स्थित अपने अभीष्ट बिंदु की स्थिति समझी गयी.
यह स्पष्ट है कि यदि बिना किसी जाने पहचाने बिंदु (हमारे उदाहरण में कनॉट प्लेस) का सहारा लिए हम किसी बिंदु की स्थिति समझ या समझा सकें तो वह अधिक सुविधाजनक रहेगा. भौतिकी में इसके लिए रेने द'कार्टेस की दी हुई को-आर्डिनेट प्रणाली का व्यवहार करते हैं.
इसमें तीन समधरातल (प्लेन) एक दूसरे के लंबवत रहते हैं. एकदम सख्ती से जुड़े हुए. अब तीन आयाम में किसी बिंदु की स्थिति जानने के लिए उस बिंदु से तीनो सतहों पर लंबवत रेखा खींचते हैं और उन तीन लंबों की लम्बाई उस बिंदु की एकदम सही स्थिति बताती है.
जीवन में हमें वैसे समधरातल नहीं मिलते, न ही हम किसी मीटर या गज से उन लंबवत रेखाओं की लम्बाई नाप सकते हैं. भौतिकी और खगोलशास्त्र को स्पष्ट समझने के लिए किसी बिंदु की स्थिति को इस कोआर्डिनेट सिस्टम के साथ देखना आवश्यक है.
इस अध्याय का सार है: आकाश (स्पेस) में किसी भी घटना का वर्णन कर सकने के लिए उसकी स्थिति को ऐसे किसी सुदृढ़ कोआर्डिनेट प्रणाली के सन्दर्भ में देखना जरूरी है. 'दूरी', जो ज्यामिति की धारणा है, उसके नियम इस कोआर्डिनेट प्रणाली पर लागू होते हैं.
3. क्लासिकी मैकेनिक्स में दिशा और काल
(दिशा शब्द का उपयोग अंग्रेजी के स्पेस के पर्याय में किया गया है. आगे भी 'दिशा' और 'आकाश' दोनों शब्दों के प्रयोग उसी अर्थ में आएँगे.}
मैकेनिक्स का उद्देश्य यह जानना होता है कि समय के साथ किसी वस्तु की स्थिति में क्या परिवर्तन आते हैं. स्थिति यानी दिशा में वह वस्तु कहाँ है. इसमें स्थिति और दिशा दोनों स्पष्टीकरण खोजते हैं. इसे देखने के लिए कल्पना करिये कि मैं एक चलती रेलगाड़ी की खिड़की से एक पत्थर गिराता हूँ - फेँकता नहीं, बस गिराता हूँ. यदि हवा के चलते हो रहे अवरोधों को अनदेखा करें तो वह पत्थर मुझे एक सीधी लकीर में नीचे की और जाता दीखेगा. लेकिन रेल के निकट, जमीन पर खड़ा कोई व्यक्ति जो स्थिर है यानी गति में नहीं है, यदि इस गिरते पत्थर को देखेगा तो वह उसे एक वक्र रेखा (यदि गणित-भीरु नहीं हैं, तो पैराबोलिक रेखा) में गिरते देखेगा. (आइंस्टीन का यह उदाहरण सापेक्षता पर लिखे प्रायः सभी प्रारम्भिक, परिचयात्मक लेखों में मिलता है.)
अब प्रश्न यह है कि "वास्तव में" जिन 'स्थितियों' से वह पत्थर जमीन तक गिरने के क्रम में गुजरा वे एक सरल रेखा में थीं या पैराबोलिक?
यहाँ पिछले अध्याय में मिले कोआर्डिनेट प्रणाली का उपयोग किया जाएगा. ट्रेन से जुड़े कोआर्डिनेट सिस्टम के लिहाज से पत्थर सरल रेखा में गिरा और जमीन से जुड़े कोआर्डिनेट सिस्टम के लिहाज से पैराबोलिक वक्र पथ पर गिरा! तात्पर्य यह कि किसी वस्तु की कोई स्वतंत्र पथ-रेखा नहीं होती.
किसी वस्तु की गति को "पूरी तरह" समझ पाने के लिए जरूरी है कि हम हर समय यह जानें कि उस वस्तु की स्थिति क्या है - यानी वह वस्तु दिशा में (स्पेस में) किस बिंदु पर है. साथ ही हमें काल का भी ज्ञान होना चाहिए - कितने समय में वस्तु एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक पहुँचती है.
कल्पना करिये दो बिलकुल एक समान घड़ियाँ हैं. एक ट्रेन के अंदर रहते उस आदमी के पास जिसने चलती ट्रेन से पत्थर गिराया और दूसरी ट्रेन के बाहर जमीन पर खड़े उस आदमी के पास जिसने इस ‘कुकर्म’ को देखा. दोनों अपनी अपनी घड़ी से देखते हुए हर समय उस पत्थर की स्थिति अपने अपने सन्दर्भ के कॉओर्डिनटे सिस्टम में तय करते हैं.
(इसमें प्रकाश की गति के चलते जरूरी होते सुधार नहीं किये गए हैं. जमीन पर खड़े व्यक्ति को ट्रेन में खड़े व्यक्ति की अपेक्षा पत्थर कुछ देर बाद दिखेगा; यदि वह पचास मीटर अधिक दूर हो तो 0.000000167 सेकण्ड बाद.)
(क्रमशः)
सच्चिदानंद सिंह
© Sachitanand Singh
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