ग़ालिब - 68.
उस अंजुमन ए नाज़ को क्या बात है ग़ालिब,
हम भी गये वां और तेरी तक़दीर को रो आये !!
Us anjuman e naaz ko kyaa baat hai Ghalib,
Ham bhii gaye waan aur teree taqdeer ko ro aaye !!
- Ghalib
उस शान ओ शौकत और नज़ाक़त से भरपूर महफ़िल का क्या वर्णन करूँ। हम भी उस खूबसूरत महफ़िल में गये थे, पर अपने दुर्भाग्य का रोना रो कर वापस उस गोष्ठी से लौट आये।
गालिब के इस शेर में गुणी और ज्ञानवान शायरों की महफ़िल का ज़िक्र है। यह गोष्ठी सभी योग्य और प्रसिद्ध सुखनवरों से भरी पड़ी है। ग़ालिब को भी उस महफ़िल में जाने का अवसर मिला । पर ग़ालिब का दुर्भाग्य वहां भी उनका पिंड नहीं छोड़ा और वह वहां से भी अपनी किस्मत को कोसते वापस आ गए। ग़ालिब के प्रतिभा की गहराई उस शानो शौकत में कहीं खो दी गयी। दिखावटीपन के दौर में उन्हें उचित सम्मान और महत्व नहीं मिला।
ग़ालिब के अधिकतर शेरों में, उनका दुर्भाग्य छलक आता है। यह दुर्भाग्य उन्हें जीवन भर उनके साथ रहा। 13 वर्ष की उम्र में ग़ालिब को मीर तक़ी मीर की शाबाशी मिल चुकी थी। उनकी काव्य प्रतिभा का प्रस्फुटन हो गया था। शुरू में उन्होंने फारसी में लिखते थे। बाद में उन्होंने उर्दू में लिखना शुरू किया। उर्दू शायरी के एक ख्यातनाम हस्ताक्षर मौलवी फ़ज़ल हक़ खैराबादी का स्नेह उन्हें मिल चुका था। वे मुग़ल दरबार मे भी उनकी पैठ हो चुकी थी। पर उस दरबार मे भी दरबार की राजनीति के वे शिकार हुये। पारिवारिक समस्याएं तो थी हीं। अंतिम समय मे पेंशन के लिये अंग्रेजों के सामने हांथ पसारना पड़ा। कदम कदम दुश्वारियां, कदम कदम बदबख्ती। यही बात उनके इस शेर में उभर कर आई है। जीवन के हर खूबसूरत महफ़िल में उन्हें शरीक होने का अवसर तो मिला पर क्या करते वे वहां मिसफिट समझे गये।
प्रतिभा और नियति के इस विचित्र खेल में ग़ालिब ही नहीं बल्कि हम सब भी है । ग़ालिब शायर थे, शब्दों के जादूगर थे, उनका अंदाज़ ए बयां और ही था तो उन्होंने यह खूबसूरत शेर कह दिया।
© विजय शंकर सिंह
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