Thursday, 12 April 2018

खलील जिब्रान की एक लघुकथा - अंधेर नगरी / विजय शंकर सिंह

राजमहल  में एक रात भोज दिया गया.
एक आदमी वहां आया और राजा के आगे दंडवत लेट गया. सब लोग उसे देखने लगे. उन्होंने पाया कि उसकी एक आंख निकली हुई थी और खखोड़ से खून बह रहा था.

राजा ने उससे पूछा, “तुम्हारा यह हाल कैसे हुआ?”
आदमी ने कहा, “महाराज! पेशे से मैं एक चोर हूं. अमावस्या होने की वजह से आज रात मैं धनी को लूटने उसकी दुकान पर गया. खिड़की के रास्ते अंदर जाते हुए मुझसे ग़लती हो गई और मैं जुलाहे की दुकान में घुस गया. अंधेरे में मैं उसके करघे से टकरा गया और मेरी आंख बाहर आ गई. अब, हे महाराज! उस जुलाहे से मुझे न्याय दिवलाइए.”

राजा ने जुलाहे को बुलवाया. वह आया. निर्णय सुनाया गया कि उसकी एक आंख निकाल ली जाए.
“महाराज!” जुलाहे ने कहा, “आपने उचित न्याय सुनाया है. वाकई मेरी एक आंख निकाल ली जानी चाहिए. किंतु मुझे दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि कपड़ा बुनते हुए दोनों ओर देखना पड़ता है इसलिए मुझे दोनों ही आंखों की ज़रूरत है. लेकिन मेरे पड़ोस में एक मोची रहता है, उसके भी दो ही आंखें हैं. उसके पेशे में दो आंखों की ज़रूरत नहीं पड़ती है.”

राजा ने तब मोची को बुलवा  लिया. वह आया. उन्होंने उसकी एक आंख निकाल ली.
न्याय सम्पन्न हुआ.

( खलील जिब्रान )

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