2014 में सरकार बनने के बाद 2 अक्टूबर को जब गांधी जयंती आयी तो वे सारे लोग जो सरकार में थे और संघ की विचारधारा से भाजपा में आये थे एक अजीब धर्म संकट में पड़ गए कि गांधी जयंती को किया क्या जाय। गांधी और उनके विचार के खिलाफ तो वे पिछले 90 सालों से है। जयंती न मने ऐसा हो भी नहीं सकता था। फिर, गांधी के अनेक प्रयोग और विचारों में से सफाई वाला मामला ढूंढा गया। यह थोड़ा सहज था और वैचारिक समझौते से दूर भी था। इसमे वैचारिक विरोध और द्वंद्व की भी संभावना नहीं थी। इस लिये बड़े जोर से स्वच्छता की बात की गयी। प्रधानमंत्री जी ने खुद ही दिल्ली के एक थाने में झाड़ू लगायी। लोग भी साफ सफाई के दिखावे पर उतर आए। कुछ साफ सड़कों पर भी झाड़ू लगाई गई। ये सब झाडूबाज़ी एक प्रतीकात्मक संदेश था। संदेश भी उत्तम था। गांधी जी खुद अपना शौचालय साफ करते थे। इसको ले कर उनका बा से विवाद भी हुआ। गांधी की जीवनी में रुचि रखने वालों को यह प्रसंग अनेक पुस्तकों में मिला होगा। तभी स्वच्छ भारत मिशन का गठन हुआ। गांधी जी के पतली कमानी और गोल शीशे वाले चश्मे को इसका प्रतीक चिह्न बनाया गया। एक पर स्वच्छ और दूसरे पर भारत लिखा गया। सरकार को कोई अभियान चलाने के लिये धन की ज़रूरत होती है। इसके लिये स्वछता सेस या उपकर लगाया गया। यह एक नया कर था।
गांधी जी के अनेक प्रयोग और विचारों जो सत्य बोलने, सामाजिक समरसता की बात करने, अछूतोद्धार से सम्बंधित, सम्पत्ति को ट्रस्टीशिप समझने, बुनियादी तालीम की बात करने, सामाजिक उन्नति करने के अन्य विचारों को हांथ नहीं लगाया गया। इनको छूना राजनीतिक दलों के लिये खतरे से खाली नहीं है। इस लिये वैष्णव जन जो तेने कहिये की एक रामधुन, राजघाट पर सफेद चांदनी बिछी फर्श पर सफेद गावतकिये के सहारे शुभ्र परिधान में थोड़ा मुंह लटका कर बैठ लेने और फिर हे राम से उत्कीर्ण समाधि पर सर टिका कुछ पुष्प अर्पित कर लेने से इस राष्ट्रीय पर्व की इति श्री हो जाती है। कौन पचड़े में पड़े गांधी के अन्य विचारों के।
वर्तमान सरकार जिस विचारधारा से दीक्षित दल की है , वह गांधी विरोधी विचारधारा है। इस विचारधारा का गांधीवाद से तो विरोध है ही अपितु गांधी के नाम से ही है। इनका विरोध नफरत की हद तक है। बल्कि कभी कभी तो यह नफरत भी बेहद है। पर गांधी भी विचित्र हैं। उनकी तमाम बातों से असहमति के बाद भी गांधी को नकारा नहीं जा सकता है। चाहते तो वे गांधी को नकारना ही , पर जब भी वे ऐसा उपक्रम करते हैं गांधी राजघाट से उठ कर जनपथ पर आ जाते हैं। गांधी का साफ सफाई एजेंडा ही सबसे निरापद लगा सो उन्होंने ग्रहण कर लिया। बाकी तो वे छूना भी नहीं चाहते हैं क्यों कि उस से उनकी मूल विचारधारा आहत होती है। यहां गांधी उनकी मजबूरी हैं।
क्या कभी सरकार ने यह बताया कि नियमित कराधान के बाद भी जो स्वच्छता सेस सहित अन्य सेस वसूले जा रहे हैं उनका व्यय कहाँ किया जा रहा है ? नैतिक और वित्तीय अनुशासन के अनुसार यह आवश्यक है कि जिस बात के लिये सेस वसूला जाय उसी में उसे व्यय किया जाय। सेस की ज़रूरत ही इस लिये पड़ती है कि सरकार के पास नियमित बजट में उस कार्य के लिये धन नहीं है जो उसे करना है तो वह अस्थायी रूप से सेस लगाती है। पर नैतिक अनुशासन को तो भूल ही जाइये, वित्तीय अनुशासन की भी जम कर अवहेलना हो रही है। यह हम सबको पता भी नहीं कि स्वछता सेस शिक्षा सेस का व्यय इन्हीं मंदों पर हो रहा है या अन्य कहीं और। जिस प्रकार का वित्तीय प्रबंधन चल रहा है वह कु प्रबंधन ही है। मुझे लगता है हम कहीं वित्तीय अराजकता और वित्तीय आपातकाल की ओर तो नहीं बढ रहे हैं ?
© विजय शंकर सिंह
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