Tuesday, 24 April 2018

24 अप्रैल, दिनकर की पुण्यतिथि पर उनका विनम्र स्मरण / विजय शंकर सिंह


रामधारी सिंह दिनकर मूलतः एक कवि थे। 1964 से 72 तक जब मैं यूपी कॉलेज में था तो 1968 में दिनकर आये थे। उनकी कविता सुनी थी हमने। उनसे मिलने का न कोई अवसर मुझे मिला और न ही अवसर की इच्छा थी। बस उनको सुना। यह पता लगा कि वे एक बहुत बड़े कवि है। फिर जब रश्मिरथी पढ़ी तो दिमाग खुलने लगा। फिर जो जो पुस्तकें मिलती गयीं पढता गया। कुछ समझ मे आयीं कुछ ऊपर से निकल गयीं। लिखा भी तो इन्होंने कम नहीं है। पद्य और गद्य मिला कर इन्होंने कुल 63 रचनाएं लिखी है। कविता संग्रह, खण्ड काव्य, महाकाव्य इतिहास, समकालीन राजनीति, आज़ादी के आंदोलन, नेहरू, गांधी सभी पर तो कलम चली इनकी।
इतिहास और संस्क्रति पर इनकी बहुत ही प्रमाणिक और अच्छी पुस्तक है संस्कृति के चार अध्याय। यह पुस्तक भारतीय इतिहास और संस्क्रति की एक रूपरेखा है। कोई भी व्यक्ति अगर भारतीय सांस्कृतिक धारा का आद्योपांत अध्ययन एक ही पुस्तक में करना चाहता है तो उसे यह पुस्तक ज़रूर पढ़नी चाहिये। यह न तो शुष्क अकादमिक इतिहास की पुस्तक है और न ही गल्प के क्षेपकों से सजी धजी कोई हल्की फुल्की किताब। यह रोचक और ज्ञानवर्धक विवरण है। कवि दिनकर इस पुस्तक में बिल्कुल दूसरी भूमिका , इतिहास और संस्कृति के एक सजग और सतर्क अध्यापक की भूमिका में नज़र आते हैं।

दिनकर की एक कविता शायद मेरे इंटर के कोर्स में थी कि आखिरी कुछ पंक्तियां यहां स्मरण से लिख रहा हूँ। यह उनके किस संग्रह में है नहीं बता पाऊंगा। यह कविता है पाटलिपुत्र की गंगा। पटना यानी प्राचीन पाटलिपुत्र के वैभव को याद करते हुए दिनकर कहते हैं,

अस्तु आज गोधूलि लग्न में,
गंगे मंद मंद बहना,
गावों नगरों के समीप चल,
दर्द भरे स्वर में कहना।
करते हो तुम विपन्नता का,
जिसका अब इतना उपहास,
वहीं कभी मैंने देखा है,
मौर्य वंश का विभव विलास।

उनकी कुछ रचनाओं के कुछ अंश भी देखें। यह स्मरण से नहीं हैं बल्कि उद्धरित हैं।

किस भांति उठूँ इतना ऊपर ?
मस्तक कैसे छू पाँऊं मैं .
ग्रीवा तक हाथ न जा सकते,
उँगलियाँ न छू सकती ललाट .
वामन की पूजा किस प्रकार,
पहुँचे तुम तक मानव,विराट .
O
रे रोक युधिष्ठर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फिरा हमें गांडीव गदा,
लौटा दे अर्जुन भीम वीर
(हिमालय से)
O
क्षमा शोभती उस भुजंग को,
जिसके पास गरल हो;
उसको क्या जो दन्तहीन,
विषहीन, विनीत, सरल हो।
( कुरुक्षेत्र से)
O
पत्थर सी हों मांसपेशियाँ,
लौहदंड भुजबल अभय;
नस-नस में हो लहर आग की,
तभी जवानी पाती जय। -
( रश्मिरथी से )
O
हटो व्योम के मेघ पंथ से,
स्वर्ग लूटने हम जाते हैं;
दूध-दूध ओ वत्स तुम्हारा,
दूध खोजने हम जाते है।
सच पूछो तो सर में ही,
बसती है दीप्ति विनय की;
सन्धि वचन संपूज्य उसी का,
जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है;
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।"
दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।-
( रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 3)
O
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
(रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 3)।।

दिनकर राष्ट्रवादी कवि से। उनका राष्ट्रवाद राष्ट्रीय चेतना से जुड़ा था। वे आज़ादी के संघर्ष में भी शामिल रहे हैं। वे आज़ादी के प्रबल पक्षधर थे। मूलतःवीर रस और स्वतंत्र चेतना के वाहक दिनकर के हर काव्य में सुप्त राष्ट्रवाद के दर्शन होते हैं। उनका राष्ट्रवाद, किसी धर्म को ही राष्ट्र मानने के भ्रम से दूर था। जितनी पकड़ उनकी वीर रस के काव्य पर थी उससे कम पकड़ उनकी शृंगार रस के साहित्य पर नहीं थी।

दिनकरजी को उनकी रचना कुरुक्षेत्र के लिये काशी नागरी प्रचारिणी सभा, उत्तरप्रदेश सरकार और भारत सरकार से सम्मान मिला। संस्कृति के चार अध्याय के लिये उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें 1959 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया। भागलपुर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलाधिपति और बिहार के राज्यपाल जाकिर हुसैन, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने, ने उन्हें डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया। गुरू महाविद्यालय ने उन्हें विद्या वाचस्पति के लिये चुना। 1968 में राजस्थान विद्यापीठ ने उन्हें साहित्य-चूड़ामणि से सम्मानित किया। वर्ष 1972 में काव्य रचना उर्वशी के लिये उन्हें ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया। 1952 में वे राज्यसभा के लिए चुने गये और लगातार तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे। भारत सरकार ने मरणोपरांत उन पर डाक टिकट भी जारी किया था।
इस महान साहित्यिक विभूति को नमन और उनका विनम्र स्मरण।

© विजय शंकर सिंह

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