सदन अगर विपक्ष चलने नहीं दे रहा है तो उपवास पर लोकसभा के स्पीकर को बैठना चाहिये न कि प्रधानमंत्री जी को। जब पांच मिनट में देश का बजट जो सबसे महत्वपूर्ण वित्तीय बिल होता है को, बिना विचार विमर्श के लोकसभा अध्यक्ष ने पारित करवा दिया तब संसदीय लोकतंत्र की गरिमा बहुत समृद्ध हुयी थी न मित्रों ?
सरकार अगर यह मानती है कि सदन चलाना उसकी जिम्मेदारी है तब तो ठीक है वह उपवास पर बैठें । लेकिन तब प्रधानमंत्री जी को स्पीकर के साथ , सभी विरोधी दल के नेताओं सहित मिल कर सदन चलाने का रास्ता निकालना चाहिये था। जब भूमि अधिग्रहण कानून पर संसद ठप हो रही थी तब प्रधानमंत्री जी ने विरोधी दल के नेताओं के साथ मिल कर गतिरोध दूर करने का प्रयास किया था और गतिरोध दूर भी हुआ था। उपवास का यह कदम समस्या के समाधान के बजाय अनेक सवाल भी खड़े करेगा। विपक्ष द्वारा सदन की गति पहली बार अवरुद्ध नहीं की गयी है। यह पहले भी होता रहा है। आगे भी होता रहेगा। यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। संसदीय लोकतंत्र में यह अलबेली चीज़ नहीं है ।
पहले यह कहा जाता था कि सदन चलाना सत्ता पक्ष का दायित्व है। लेकिन अब यह दायित्व विपक्ष का हो गया है। यह दायित्व बोध भी बड़ा फितरती है। सुविधानुसार इसकी व्याख्या बदलती रहती है। जब से सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश हुआ है तब से सदन की गति अवरुद्ध है। यह प्रस्ताव और इस पर होने वाली बहस सरकार को असहज भी कर सकती है। लगातार गतिरोध के बीच, लोकसभा के स्पीकर ने क्यों नहीं सदन के नेता सहित सभी विपक्षी दलों के नेताओं की बैठक बुला कर इस गतिरोध को दूर करने का प्रयास किया ? क्यों यह मामला इतना संगीन हो गया कि संसद के गतिरोध के समाधान के लिये प्रधानमंत्री , जो नेता सदन भी हैं को सड़क पर उपवास के लिये उतरना पड़ा ?
संसद के इस गतिरोध के लिये प्रधानमंत्री और नेता सदन को सड़क पर उतरना पड़े, यह लोकसभा अध्यक्ष की विफलता है और उनकी संसदीय क्षमता पर एक प्रश्नचिह्न भी। यह संसदीय लोकतंत्र को अप्रासांगिक करने की ओर जाने अनजाने में बढाया गया एक कदम है। राजा का दायित्व और कृत्य, राजधर्म का पालन करना है, उपवास नहीं। उपवास अगर प्रायश्चित और आत्मशुद्धि नहीं है तो, पाखंड है।
© विजय शंकर सिंह
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