Friday, 13 April 2018

Ghalib - Ishq taaseer se naumeed nahin / इश्क़ तासीर से नौमीद नहीं - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह


ग़ालिब - 54.
इश्क़ तासीर से नौमीद नहीं,
जां सुपारी शजरे बेद नहीं !!

Ishq taseer se naumeed nahin
Jaan supaaree shajre bed nahiin !!
- Ghalib

प्रेम की प्रकृति ही ऐसी है कि वह कभी निराश नहीं करती है। वह जब सब कुछ सूख जाता है जब भी लहलहाता रहता है ।

यह शेर को इश्क़ ए हाकीकी के रूप में देखिये। प्रेम का समर्पण कभी निराश नहीं करता है। प्रेम की प्रकृति में नैराश्य है ही नहीं। जब सब कुछ खो जाता है तो प्रेम का भाव जीवंत किये रहता है। प्रेम ही एक ऐसा आसरा है जो वनस्पति विहीन धरा पर भी एक राह दिखाता रहता है। यह आशावाद प्रेम के बिना शून्य है।

इसी तर्ज पर कबीर का यह दोहा प्रस्तुत है ।

राम नाम करि बोहड़ा बाहीं बीज अघाइ,
अति काली सूखा पड़े, तौं निरफल कदै न जाय !!

हृदय में बोया गया राम नाम का बीज, यदि दुर्लभ सूखा पड़ता है तो भी वह हृदय में लहलहायेगा, वह बीज निष्फल नहीं होगा।

कबीर और ग़ालिब के समय, परिवेश और रचना धर्मिता में  में बहुत अंतर है। फिर भो कबीर के इस दोहे में मैने ग़ालिब को ढूंढने का प्रयास किया है। राम नाम का बीज, प्रेम का प्रतीक है। यह बीज जब सब कुछ सूख जाएगा तब भी एक सुप्त जीवन की आशा लिये ज़िंदा रहेगा ।

इश्क़ इक उम्मीद है,
उम्मीद पर ही इश्क़ है,
नाउम्मीदी कुफ्र है,
और इश्क़ कुफ्र नहीं है !!

© विजय शंकर सिंह

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