Saturday, 21 April 2018

Ghalib - Imaan mujhe roke hai / ईमां मुझे रोके है - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 62.
ईमाँ मुझे रोके है तो, खींचे है मुझे कुफ्र,
काबा मेरे पीछे है, कलीसा मेरे आगे !!

Iimaan mujhe roke hai to, khiinche hai mujhe kufra,
Kaabaa mere piichhe hai, kaliisaa mere aage !!
- Ghalib

मेरा ईमान मुझे विचलित होने से रोकता है। कभी कभी कुफ्र भी मुझे आकर्षित करता है। कभी लगता है, काबा मेरे पीछे हैं और कलीसा गिरजाघर मेरे सामने है।
यह विभ्रम की एक आदर्श स्थिति है ! ग़ालिब मुसलमान तो हैं पर उनकी आस्था कभी कभी डगमगा जाती है। कभी उन्हें गैर इस्लामी विचार, रवायतें, इबादत के तरीके जिन्हें इस्लाम मे कुफ्र माना गया है आकर्षित करते लगते  हैं, तो कभी वे काबा को पीछे छोड़ कर कलीसा ( गिरिजाघर ) की ओर चल पड़ते है। यह विभ्रम है या धर्म, ईश्वर और सत्य को जानने की ललक या मन का आवारापन या उसका कुरंग भाव यह तो ग़ालिब ही जानें।

अब एक कहानी पढ़ लीजिए।
1857 का विप्लव दबा दिया गया था। बहादुर शाह जफर को रंगून रवाना कर दिया गया था। लाल किला पर यूनियन जैक आ गया था। पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक और अन्य गलियों में अफरातफरी मची थी। फिरंगी देख कर लोग सहम जाते थे। गुलज़ार दिल्ली भूतों और जिन्नों का शहर बन गयी थी। ऐसे ही एक रोज़ मिर्ज़ा ग़ालिब शहर में घूमते हुये पुलिस द्वारा पकड़ लिए गए। उन्हें अंग्रेज़ हाकिम के यहां पेश किया गया। उनका नाम पता पूछा गया। तभी ग़ालिब के चाहने वाले उन्हें छुड़ाने के लिये और उनके विरोधी इस घटना का मज़ा लेने के लिये आ गए। कुछ मौलाना भी थे। अंग्रेज़ हाकिम ने पूछा,
" तुम्हारा मजहब क्या है ? "
ग़ालिब ने कहा,
" मुसलमान हूँ। पर आधा । "
अदालत में लोग हंस पड़े। मौलाना की आंखे लाल हो गयीं। अंग्रेज़ हाकिम ने हैरानी से पूछा,
" आधा मुसलमान ? क्या मतलब ? "
ग़ालिब ने पूरी गम्भीरता से उत्तर दिया,
" शराब पीता हूँ। पर सूअर का गोश्त नहीं खाता हूं । इस्लाम मे मनाही है शराब की। तो आधा ही हुआ न । "
तभी कोतवाल जो ग़ालिब का प्रशंसक था ने अदालत से गुजारिश की,
" सरकार यह एक बहुत बड़े शायर हैं। दरबार मे इनकी धाक थी। बड़े मोअज्जिज़ अमीर भी रहे हैं। अब जब से दरबार का रुतबा गया तो थोड़ा परेशान रहने लगे हैं। इन्हें छोड़ दिया जाय । "
ग़ालिब जो रात को गलियों में घूमते पकड़े गए थे रिहा हो गये। शहर में यूं ही आवारापन से घूमना अंग्रेज़ो ने मना कर रहा था। बड़ी मुश्किल से दिल्ली जीती थी उन्होंने ।

इस बेहतरीन और विचारोत्तेजक शेर की एक आध्यात्मिक व्याख्या भी की जा सकती है। कोई भी धर्म पूर्ण नहीं है। और न ही वह यह दावा करता है कि उसी का मार्ग सबसे पूर्ण है। एक अनुसंधित्सु और जिज्ञासु मस्तिष्क अक्सर ही ईश्वर और धर्म के बारे में तर्क वितर्क करता रहता हैं। कभी कोई तो कभी कोई सवाल उसे मथता रहता है। यह स्थिति विभ्रम या कन्फ्यूजन की नहीं है, बल्कि चीजों को जानने की है। ग़ालिब एक सूफी दर्शन से प्रभावित शायर थे। वे कहते भी हैं खुद को, कि अगर वे मद्यपी न होते तो लोग उन्हें वली ( संत या धर्मगुरु ) समझते।
" वली हमे समझते जो न वादख्वार होता ! "

© विजय शंकर सिंह

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