सुप्रीम
कोर्ट के माननीय न्याय मूर्तियों में भी , धर्म और जाति की संकीर्ण भावनाएं जब जागृत हो जाएँ तो समझिए कि ज़हर बहुत व्यापक स्तर पर फ़ैल गया है। सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायधीश न्यायमूर्ति दत्तू ने न्यायपालिका में सुधार हेतु एक सम्मलेन आयोजित किया । सम्मलेन की तिथि शुक्रवार से रविवार तक राखी गयी। संयोग से शुक्रवार को , गुड फ्राइडे और रविवार को ईस्टर संडे पड़ गया। गुड फ्राइडे को हजरत ईसा मसीह को सूली पर लटकाया गया था और ईस्टर को वह पुनर्जीवित हो गए थे। यह दोनों दिन ईसाई समुदाय के लिए पवित्र दिन हैं। दोनों दिनों पर भारत सरकार सहित सभी राज्य सरकारें अवकाश घोषित करतीं हैं और उस दिन कोई राजकीय कार्य नहीं होता है। इन्ही दिनों में प्रधान न्यायाधीश ने जजों का सम्मलेन आहूत किया। यह सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश का प्रशासनिक निर्णय था। सरकार की इस निर्णय में कोई भूमिका नहीं होती है। लेकिन इस निर्णय का विरोध भी सुप्रीम कोर्ट के ही एक साथी जज ने किया।
सुप्रीम
कोर्ट के ही एक जज न्यायमूर्ति जोजेफ कुरियन ने , जो ईसाई समुदाय से आते हैं ने , इस सम्मलेन के गुड फ्राइडे और ईस्टर के अवसर पर रखे जाने का विरोध किया और उन्होंने इस अवसर पर प्रधान मंत्री जी द्वारा आयोजित भोज में भी भाग लेने से इंकार कर दिया। उन्होंने जो तर्क दिया , उसका कारण ईसाई त्योहारों पर सम्मलेन आयोजित करना रहा है। उन्होंने अपनी व्यथा कथा , पत्र द्वारा न केवल प्रधान न्यायाधीश को , बल्कि प्रधान मंत्री जी को भी पत्र के माध्यम से बता दी। जस्टिस कुरियन ने अपने पत्र में लिखा है कि वह अपने परिवार के साथ , गुड फ्राइडे और ईस्टर की विशेष प्रार्थना में केरल में रहेंगे। आगे उन्होंने लिखा कि हिन्दू और मुस्लिम त्योहारों पर ऐसे सम्मलेन कभी नहीं आयोजित किये जाते रहे हैं। यह देश के धर्म निरपेक्ष क्षवि के लिए भी एक संकट है। जस्टिस कुरियन का पत्र दो प्रश्न खड़ा करता है। क्या अवकाश के दिनों में ऐसे सम्मलेन आयोजित किये जाने चाहिए या नहीं ? क्या होली , दीवाली , ईद , दशहरा आदि पर्वों पर भी ऐसे सम्मलेन कभी आयोजित किये गए हैं ? यदि नहीं तो ईसाई धर्म के पर्वों पर ही क्यों ऐसे सम्मलेन आयोजित किये गए हैं ? जस्टिस कुरियन का पत्र का उत्तर जस्टिस दत्तू ने दिया और यह दो न्यायमूर्तियों के बीच का संवाद है , इस पर कोई टिप्पणी करना या तर्क देना या तर्क का बचाव करना उचित नहीं होगा। हालांकि यह भी जानकारी मिली है कि ऐसे सम्मेलन पहले कभी स्वतंत्रता दिवस और इन्ही त्योहारों पर भी आयोजित किये जा चुके हैं।
जस्टिस
जोजेफ ने अवकाश की जो बात कही है , वह मुझे युक्ति युक्त नहीं लगती है। मैं जिस सेवा से आता हूँ , मुझे याद भी नहीं कि कोई त्यौहार मेरे जवानों का घर पर बीता हो। पुलिस एक आवश्यक सेवा ही नहीं बल्कि सरकार का सबसे महत्वपूर्ण अंग है , इस लिए त्योहारों पर जिम्मेदारी बहुत बढ़ भी जाती है। चिकत्सा , बिजली , पानी आदि और अनिवार्य सेवाएं हैं जिनके अधिकारी और कर्मचारी तो अवकाश के दिनों में भी अहर्निशे सेवा महे के मोड़ में रहते हैं। अगर अवकाश के दिनों में कार्यदिवसों को बाधित न करते हुए , कोई सम्मलेन बुला भी लिया गया तो यह अनुचित भी नहीं है। फिर भी अगर त्यौहार मनाना बहुत ज़रूरी हो, तो भी त्यौहार मनाया जा सकता है पर इस पर यह तर्क देना कि अन्य धर्मों के त्योहारों पर क्यों नहीं सम्मलेन आयोजित किये गए हैं , एक बचकाना और प्रतिक्रिया बोधक तर्क है। इस से यह ध्वनि निकलती है कि ईसाई समुदाय को अपने धर्मानुसार आचरण करने में कोई न कोई बाधा है। जब की वास्तविकता इस से बिलकुल उलट है।
जस्टिस
कुरियन के पत्र से जो ध्वनित हो रहा है , वही पूर्व आई पी एस अधिकारी रिबेरो के कुछ दिनों पूर्व दिए गए एक बयान से झलक रहा है। रिबेरो साहब ने यह बयान दिया था कि उन्हें अब डर लग रहा है। डर का कारण , ईसाई समुदाय के विरुद्ध वातावरण का बनना है। यह भी एक विडम्बना है कि इधर कुछ राज्यों में चर्चों पर हमले हुए और तोड़ फोड़ की घटनाएं हुईं। लेकिन इन सब घटनाओं में पुलिस की कार्यवाहियां भी हुयी है। ईसाई मिशनरियों पर अक्सर लोभ से धर्म परिवर्तन के आरोप लगते रहे हैं। कुछ स्थानों पर पादरी दुष्प्रचार कर के भी धर्म परिवर्तन कराते रहे हैं। पर जितने भी मिशनरी धर्म हैं , उन सब में धर्म परिवर्तन कराने और धर्म प्रसार हेतु विशेष
अभियान चलाये जाते हैं। पोप जो कैथोलिक ईसाइयों के धर्म प्रमुख हैं , के यहां ऐसा करने का एक पूरा विभाग भी है। यह धर्म प्रचार का एक अंग है , और इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इसके विपरीत हिन्दू धर्म में दीक्षा लेने का कोई विधान ही नहीं है। देीक्षा शब्द ही बौद्ध धर्म में दीक्षित होने या प्रवज्या प्राप्त करने के लिए प्रचलित हुआ है। स्वामी दयानंद ने सर्वप्रथम , शुद्धि आंदोलन के द्वारा , हिन्दू धर्म में वापस लाने का मार्ग प्रशस्त किया। यह धर्म परिवर्तन ही दोनों धर्मों के बीच अविश्वास का मुख्य कारण है। पर यही सन्देश भरी बात जब दो अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रबुद्ध लोग कहते हैं तो , उस से उस समुदाय की व्यथा का तो पता चलता ही है , और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इसकी गूँज होती है।
त्योहारों के दिन सम्मलेन बुलाने से देश के धर्म निरपेक्ष स्वरुप को कोई ख़तरा नहीं है। इसे जस्टिस कुरियन भी जानते है और रिबेरो साहब भी। लेकिन इस से ईसाई समुदाय में जो सन्देश जाएगा वह अच्छा नहीं होगा। राष्ट्र विरोधी ताक़तें भी इस सन्देश का दुरुपयोग कर सकती हैं। हिंदुत्व ब्रिगेड इसे बिलकुल दूसरे नज़रिये से देखेगी। इस से दोनों के बीच अविश्वास की खाईं और बढ़ेगी। मूल प्रश्न साख के संकट का है। भाजपा सरकार के आने के बाद , भाजपा के ही कुछ महानुभावों के अनुचित बयानों से यह क्षवि बनी कि सरकार एक छुपे एजेंडे पर काम कर रही है। वह एजेंडा सर्वधर्म समभाव की मूल आत्मा के विरुद्ध है। जब अविश्वास पनप जाता है तो कोई भी कार्य अगर अच्छी नीयत से हो रहा है तो भी उस पर अंगुलियां उठती ही हैं। यहां भी यही हो रहा है। इसके लिए सोशल मीडिया के वे मित्र भी जिम्मेदार हैं जो मोबाइल या कंप्यूटर के की बोर्ड के द्वारा देश में सांस्कृतिक क्रान्ति लाने के लिए उत्सुक हैं। उन्हें यह सोचना होगा कि इस से देश का तो भला होने से रहा , और इसके विपरीत सरकार रोज़ एक न एक नए विवाद में फंसती जाएगी और अंततः अपने मूल उद्देश्य और वादे से भटक जाएगी।
सुप्रीम
कोर्ट का यह विवाद कितना गहरा है यह तो अभी नहीं बताया जा सकेगा , पर धर्म , जाति और सम्प्रदाय के नाम पर एक अविश्वास और क्रैक तो दिख ही रहा हैं। अब सबसे बड़ी भूमिका प्रधान न्यायाधीश की होगी। उन्हें अपने साथी जज और अन्य जजों से इस पर विस्तार और सौहार्दपूर्ण वातावरण में बात कर के , जो मनोमालिन्य हो गया है , उसे दूर करना चाहिए। न्यायपालिका एक स्वतंत्र संस्था है ,सरकार को इसमें किसी भी प्रकार का दखल नहीं देना चाहिए। न्यायपालिका के मुखिया का यह परम दायित्व है कि न्याय पालिका इस विषैले वायरस से न केवल मुक्त रहे बल्कि मुक्त दिखे भी।
( विजय शंकर सिंह )
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