Thursday, 26 February 2015

मुद्दों को मत भटकाइये / विजय शंकर सिंह


न तो मदर टेरेसा से जुड़े कोई आयोजन हो रहे हैं , न ही उनपर कोई नयी किताब प्रकाशित हुयी है , और न ही सरकार ने उनसे जुड़े किसी कार्यक्रम घोषणा की है , फिर भी संघ प्रमुख को अचानक यह इलहाम क्यों हुआ  कि मदर टेरेसा सेवा की आड़ में धर्म परिवर्तन कराती थीं। यह सवाल मुझे थोड़ा हैरान कर रहा है। इधर आप गौर करें तो पाएंगे कि जब भी जनता से जुड़े मुद्दे संसद या सड़क पर उठते हैं या उठने वाले होते हैं और धर्म की दीवारें स्वतः लोप होने लगती है तो ऐसे बयान जान बूझ कर फैलाये जाते हैं। इसे हम सैन्य या पुलिस की भाषा में कवरिंग फायर कहते हैं। मदर पर बहुत ही कम विवाद रहा है। ईसाई मिशनरियों पर धर्म परिवर्तन कराये जाने के आरोप लगते रहे हैं , और वे कराते भी रहते हैं , पर इधर बिना विवाद के यह विवाद या प्रश्न उठाना , एक शातिर चाल भी हो सकती हैं।

संसद का  सबसे  महत्वपुर्ण अधिवेशन बजट अधिवेशन होता है। यह देश की आर्थिक दशा और दिशा दोनों ही तय करता है। आज रेल बजट, और सामान्य बजट 28 को पेश होगा। सरकार ने जो अध्यादेश जारी किये हैं उनका भी संसद द्वारा अनुमोदन किया जायेगा और वह भी विधेयक बनेंगे। सबसे महत्वपूर्ण बिल भूमि अधिग्रहण से जुड़ा है। इसे लेकर संसद में तो गतिरोध हुआ ही है सड़क पर भी किसान आंदोलित हैं। ऐसी परिस्थितियों में मोहन भागवत का बयान जो मदर टेरेसा पर है वह कहीं न कहीं बहस को भटकाने की चाल है। जब जब कोई भी ऐसा मुद्दा जो जान सरोकारों से , धर्म और जाति के कठघरे से इतर सामने आता है तो कुछ ताक़तें जो मूलतः जन विरोधी होती हैं इन्हे भटकाने का प्रयास करती हैं। हाल ही की कुछ घटनाओं को देखें। लोकसभा चुनाव के पूर्व , मुज़फ्फरनगर , कुछ उपचुनाओं के पूर्व घर वापसी , और दिल्ली चुनाव के पूर्व दिल्ली में हुयी छिटपुट साम्प्रदायिक वारदातें , और रामज़ादा और हरामज़ादे का बयान। इसी क्रम में आज आर एस एस प्रमुख का बयान मुझे लग रहा है कि यह भी कोई रणनीति है।

शायद अपने राज-धर्म का अहसास कर लम्बी चुप्पी तोड़ते हुए प्रधानमंत्री मोदी ईसाई संतों के बीच यह कह आए कि धार्मिक घृणा और हिंसा की गतिविधियाँ बरदाश्त नहीं होंगी; लेकिन उनको उन्हीं की बिरादरी से फौरन जवाब भी मिल गया है। परसों मोहन भागवत ने देवीसरीखी मदर टेरेसा के निस्स्वार्थ सेवा-कर्म को पोतने की चेष्टा की; कल योगी आदित्यनाथ ने कहा कि घर-वापसी का अनुष्ठान जारी रहेगा; प्रवीण तोगड़िया रोज कह रहे हैं कि घर-वापसी संवैधानिक कर्म है!

आर एस एस और हिंदुत्व के थिंक टैंक से जुड़े महानुभावों को चाहिये कि वह पिछले पचास साल में हुए धर्मांतरण पर शोध कर तथ्य एकत्र करें। एक अध्ययन इस बारे में भी हो कि कौन सी मिशनरियाँ धर्म परिवर्तन के काम में लगी हुयी हैं और उनके तरीके क्या हैं ? इस पर भी शोध और अध्ययन हो कि हिन्दुओं के किस वर्ग या जाति के लोगों ने ईसाई धर्म को स्वीकार प्रमुखता से किया है। लेकिन जब तक ऐसा कोई शोध या अध्ययन नहीं होता और तथ्य सार्वजनिक नहीं किया जाता तब तक ऐसे आरोप स्वयं की कमज़ोरी ही उजागर करेंगे। ईसाई मिशनरियां और चर्च देश में लोकप्रिय हों या न हों पर इनसे जुड़े स्कूल सबसे अधिक लोकप्रिय माने जाते हैं। छोटे छोटे गाँव में, शहरों के दूर दराज़ के मुहल्लों में संत जोजेफ , संत पैट्रिक , होली चाइल्ड , मरियम आदि के नाम पर आपको स्कूल मिल जायेंगें। पर ज़रूरी नहीं कि उसके संचालक ईसाई ही हों। पर वह नाम सिर्फ के ईसाई नाम से मिलता जुलता इस लिए रखते हैं ताकि लोग आकर्षित हो सकें। आखिर भारतीय मनीषा के संतों के नाम पर , जिनकी कोई कमी नहीं है ,ये स्कूल क्यों नहीं खोले जाते। या तो अवचेतन में दबी हुयी दासता के जीन्स हैं या  हमारी  खुद की हीन भावना , यह आत्म विश्लेषण अपेक्षित है। आप दूसरों के धर्म को बुरा भला कर के , कोस के , और कमियां निकाल के खुद के धर्म को श्रेष्ठ नहीं ठहरा सकते हैं। स्वप्रच्छालन की प्रक्रिया खुद ही शुरू करनी होगी। मन ईमानदारी से तभी आत्म निरीक्षण कर सकता है जब वह पूर्वाग्रह और द्वेष से मुक्त हो। द्वेष से मुक्त होने के लिए घृणा का मार्ग छोड़ना ही होगा.

जिस संगठन में विरोध के स्वर न उभरें, जिस संगठन में शीश झुका कर सब कुछ शिरोधार्य कर लिया जाय. जिस संगठन में कोई दिशा न हो. जिस संगठन में नेतृत्व को चुनने की कोई लोकतांत्रिक परंपरा न हो। जिस संगठन अतीत के प्रति भरम हो। जिस संगठन वर्तमान की कोई परख न हो। जिस संगठन भविष्य की कोई योजना न हो।
जिस संगठन रीति नीति में कोई पारदर्शिता न हो , जिस संगठन वह संगठन सिर्फ और सिफ भटकाता है।

मोदी सरकार , पिछली सरकार के घोटालों और कमियों के कारण जो जन असन्तोषः फैला था उसी का परिणाम था। जान अपेक्षाएं बहुत बढ़ी थीं और नयी सरकार का बहुत उत्साह से स्वागत भी हुआ। सरकार के गठित हुए , लगभग 10 माह हो चुके हैं ,सरकार का मूल एजेंडा जो  चुनाव के दौरान प्रस्तुत किया गया था , वह सबका साथ और सबका विकास था। प्रधान मंत्री के पद भार ग्रहण के बाद  बहुत संतुलित तरीके से अपनी बात भी रखी. पर बाद में जो फैसले आये वह जनता के कम और उद्योगपतियों के हित में अधिक दिखे। नए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के कुछ प्राविधान तो साफ़ साफ जन विरोधी दिखी। लेकिन इन सब के बीच जब जब विकास की बात आती रही और सरकार घिरती रही तो वे ताक़तें , जो घृणा और वैमनस्य फैलाती रहीं है अचानक सक्रिय हो गयीं। जैसे घर वापसी का एजेंडा , साक्षी महाराज का चार बच्चे पैदा करने वाला बयान , साध्वी का रामज़ादा और हरामजादा वाला बयान , और इसी तरह के अन्य मिलते जुलते बयान। दुर्भाग्य से देश में जितना आक्रोश धर्म और जाति के नाम पर उबलता है उतना आक्रोश भूख और गरीबी के नाम पर नहीं उबलता है। इसी लिए बहस मूल उद्देश्य से भटक जाती है और देश में जो घृणा फैलती है वह अलग। जो संगठन ऐसा करते हैं वे सभी भाजपा से जुड़े हैं या भाजपा के लोग उनसे सहमति रखते हैं  . अगर इन सब बयानों से देश की फ़िज़ा खराब होती है तो इस से सरकार को क्या लाभ हो रहा है यह समझ में नहीं आ रहा है। लेकिन इन सब बयानबाज़ी से असली मुद्दे नेपथ्य में ही चले जा रहे हैं। यह स्थिति देश के लिए हितकर नहीं होगा।  
-vss.



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