' आप ' की नयी सरकार ने शपथ ले ली. लोकतंत्र की यही खूबी है, जिसे आप चाहते हैं, उसे चुनते हैं और जिस से आब ऊब चुके हैं, उस को हटा देते है. यह पहला सत्ता परिवर्तन नहीं है. ऐसा ही उन्माद, ऐसा ही उत्साह,
1971 में इंदिरा गांधी के चुने जाने के समय भी था. और ऐसा ही उत्साह 1977 में इंदिरा को नकारने के लिए भी था. अभी लोक सभा के चुनाव में नरेंद्र मोदी के पक्ष में भी गज़ब का उत्साह था. मोदी सरकार को अभी बहुत दिन नहीं हुए हैं. वह अपना काम कर भी रही है. इसी तरह अरविन्द केजरीवाल की सरकार, जिसने आज शपथ ली है, भी व्यापक जन समर्थन और उत्साह के साथ चुनी गयी है. इनका दावा है कि यह राजनीति की सूरत बदलेंगे, राजनीति की एक नयी परिभाषा गढ़ेंगे. अब इसे वक़्त ही बताएगा कि राजनीति कोई नया पथ चुनती है या उसी पथ पर चलती है. फिलहाल तो शुभकामनायें !!
कुछ लोग बेहट चिंतातुर हैं. दिल्ली के ख़ज़ाने को लेकर. सब अपने अपने बजट बना रहे है . वाई फाई, फ्री पानी आधे दाम पर बिजली , का जोड़ घटाना कर रहे हैं. कोई कह रहा है, कैसे होगा. मेरे गांव के दोस्त ने पूछा सुबह सुबह, कि इहो झूठ बोलले ह का हो. ई सरवा कैसे आपन कहल पूरा करी ! चिंता उन्हें भी है जो दिल्ली कभी कभार गए हैं या जाते हैं. और चिंता उन्हें भी जो दिल्ली में ही हैं. यह नयी राजनीति का सूचक है, या देश की जागरूकता का सुबूत, वक़्त ही बता पायेगा. पर अरविन्द केजरीवाल को जो लोग नकार रहे थे, नापसंद कर रहे थे, वही उनके लिए फ़िक्रमंद हैं कि यह भगोड़ा अपना वादा पूरा कैसे करेंगे. जिसके लक्ष्य प्राप्ति के लिए विरोधी चिंतातुर रहें उस का क्या कहना है.
सारी सरकारें वादे पर ही चुनी जाती रही हैं . यह लोकतंत्र की एक तय शुदा खूबी है. चुनाव घोषणा पत्र मूलतः एक आश्वासन दस्तावेज़ होता है. जिसमें सारी बातों का व्योरा रहता है. लोग उसे पढ़ें या न पढ़ें, उसके आधार पर वोट दें या न दें, पर हर दल का मूल्यांकन उसी दस्तावेज़ के आधार पर होता है. लेकिन शायद ही किसी दल ने अपने घोषणा पत्र का वादा पूरी तरह से निभाया हो. न तो कांग्रेस ने और न ही मौजूदा दल ने. पर किसी ने भी इस पर चिंता नहीं जताई कि ये सरकारें अपना वादा कैसे निभा पाएंगी. किसी ने पूछा भी नहीं. शायद कोई सोचता भी नहीं है. पर एक आधी अधूरी राज्य की सरकार के वादे पर सब की निगाह है और सभी उस सरकार का बजट अनुभवी वित्त सचिव की तरह बनाने में लगे हैं. अरविन्द केजरीवाल नसीब वाले हैं कि उनको इतने शुभचिंतक प्राप्त हैं .
1952 का चुनाव पहला आम चुनाव था. नेहरू कांग्रेस के निर्विवाद नेता थे. कहा करते थे कि एक लैंप पोस्ट भी खड़ा कर दूंगा तो वह कांग्रेस से चुनाव जीत जाएगा. एक वादा था उनका. बेहद मार्मिक वाक्य उन्होंने कहा था. हर आँख के आंसू पोंछना है मुझे. मुझे उनकी अचकन, पहने हुयी, कोट के बटन होल में गुलाब खुँसे हुए बेहद मोहन तस्वीर, जो कुछ विपन्न बच्चों के साथ पोस्टर पर नुमाया हुयी थी, याद है. मतलब गरीब नहीं रहेंगे. देश की प्रगति होगी. प्रगति हुयी, देश में बहुत कुछ बदला पर आज भी आँखों में निर्धनता और बेचारगी के आंसू विद्यमान है.
1971 में इंदिरा जी ने वादा किया था, गरीबी हटाओ. दो शब्दों के इस बेहद आकर्षक और चर्चित वादे ने राजनीति के धुरंधरों को घूल चटा दिया. संसद में उन्हें प्रचंड बहुमत मिला. कुछ काम उन्होंने अपने वादों के अनुसार किया भी. पर अतिशय सफलता जो मद उत्सर्जित करने लगती है उसे बच पाना असंभव भी कभी कभी हो जाता है. वह अपने वादे और घोषणापत्र से भटक गयीं और जो हुआ वह सर्व विदित है. 1977 में वह अपने वादे पूरा न करने के लिए नहीं, बल्कि अपने अहंकार और तानाशाही रवैय्ये के कारण भूलुंठित हुयी.
क्या मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा, महाराष्ट्र की सरकारें बिना वादों के अवतरित हुयी है ?
क्या इन्होंने चुनाव में कोई घोषनापत्र नहीं जारी किया था ?
क्या उस घोषनापत्र में किये गए वादों को पूरा करने का इनका कोई दायित्व नहीं है ?
क्या इनसे कभी इसकी कैफियत तलब की गयी ?
क्या किसी ने पूछा कि वादों को कैसे और किस तरह से पूरा किया जाएगा ?
मित्रगण इस पर कभी चिंतातुर नहीं दिखे मुझे. दर असल अहंकार इतना है कि वे यह सोच ही नहीं पा रहे हैं कि लोकतंत्र में अर्श से फर्श तक जनता तुरंत ला देती है और फिर फर्श से अर्श तक पहुंचा भी देती है. लोकसभा के चुनाव में दिल्ली ने भाजपा को सातों सीट जिता दिया जब कि इस बार केवल तीन पर ही समेट दिया.
आखिर क्यों ?
केजरीवाल के झूठ पर जैसा कि कुछ लोग कहते हैं, जनता को क्यों भरोसा हुआ ?
भाजपा का 8 महीने का कार्यकाल क्यों अनदेखा कर दिया गया ?
निश्चित रूप से कुछ न कुछ कारण होंगे मित्रों कारण ढूँढिये, निदान की तलाश कीजिए. खांसी, मफलर, नक्सल, अराजक, भगोड़ा आदि शब्दों से परहेज़ कीजिए और जो वादे केंद्र सरकार पूरे कर सकती है, वह पूरा करे. यही परामर्श दिल्ली की सरकार के लिए भी है. जो करेगा, वह चुना जाएगा, अन्यथा इतिहास का कूड़ादान तो है ही.
क्या इन्होंने चुनाव में कोई घोषनापत्र नहीं जारी किया था ?
क्या उस घोषनापत्र में किये गए वादों को पूरा करने का इनका कोई दायित्व नहीं है ?
क्या इनसे कभी इसकी कैफियत तलब की गयी ?
क्या किसी ने पूछा कि वादों को कैसे और किस तरह से पूरा किया जाएगा ?
मित्रगण इस पर कभी चिंतातुर नहीं दिखे मुझे. दर असल अहंकार इतना है कि वे यह सोच ही नहीं पा रहे हैं कि लोकतंत्र में अर्श से फर्श तक जनता तुरंत ला देती है और फिर फर्श से अर्श तक पहुंचा भी देती है. लोकसभा के चुनाव में दिल्ली ने भाजपा को सातों सीट जिता दिया जब कि इस बार केवल तीन पर ही समेट दिया.
आखिर क्यों ?
केजरीवाल के झूठ पर जैसा कि कुछ लोग कहते हैं, जनता को क्यों भरोसा हुआ ?
भाजपा का 8 महीने का कार्यकाल क्यों अनदेखा कर दिया गया ?
निश्चित रूप से कुछ न कुछ कारण होंगे मित्रों कारण ढूँढिये, निदान की तलाश कीजिए. खांसी, मफलर, नक्सल, अराजक, भगोड़ा आदि शब्दों से परहेज़ कीजिए और जो वादे केंद्र सरकार पूरे कर सकती है, वह पूरा करे. यही परामर्श दिल्ली की सरकार के लिए भी है. जो करेगा, वह चुना जाएगा, अन्यथा इतिहास का कूड़ादान तो है ही.
वादा भाजपा ने भी किया था, यह सरकार जो सर ए नौ से विकास करना चाहती है, और जो यह मानती है कि पिछले साठ सालों में कोई भी विकास कार्य नहीं हुआ है, वह भी वादे पर ही आये है. अपना वादा उन्हें याद भी है अभी. उन वादों को पूरा करने के लिए बड़ी सरकार कुछ न कुछ सोच भी रही होगी. पर मैंने किसी मित्र को यह चिंता करते नहीं देखा कि आखिर, भाजपा अपने किये वादे कैसे पूरा करेगी. न तो किसी ने राम मंदिर के वादे की फ़िक़्र की, न 370 धारा कि, न सामान नागरिक संहिता की. इन्ही वादों को मैं विशेषकर याद कर रहा हूँ क्यों कि यही वादे भाजपा को अन्य दलों से एक अलग आधार पर रखते हैं. पर मित्रों को इन सब की हक़ीक़त जन्नत की तरह मालूम है. और दिल को बहलाने को ये वादे रखे गए हैं, इसे वे भी जानते हैं.
इन्होंने ने तो अभी शपथ भी नहीं ली. जब कि केंद्र सरकार 9 माह और कुछ राज्यों की सरकारें एक साल पूरा कर रही हैं , पर न उनके कामों की समीक्षा कोई मित्र कर रहे हैं और न ही उनके द्वारा किये गए वादों की फ़िक़्र भी. हो सकता है, उन्हें इन सरकारों से उम्मीद ही न हो. और सारी उम्मीद इसी भगोड़े, और अराजक घोषित हो चुके आधे अधूरे राज्य के मुख्य मंत्री से ही हो. यह आशा एक पोसिटिव संकेत है. दिल्ली की राज्य सरकार को हर हालत में अपना वादा पूरा करना चाहिए. लोकतंत्र में अगर उम्मीद टूटती है तो अराजकता का ही जन्म हआता है. मित्र गण याद दिलाते रहें, सोशल ऑडिट करते रहें, इस से सरकार सतर्क रहेगी. देखना है वादे कैसे पूरे होते हैं.
फिलहाल तो,
मंज़िल मिले न मिले, इसका गम नहीं,
मंज़िल की जुस्तजू में मेरा कारवां तो है !!
मंज़िल मिले न मिले, इसका गम नहीं,
मंज़िल की जुस्तजू में मेरा कारवां तो है !!
( विजय शंकर सिंह )
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