Wednesday, 25 February 2015

एक कविता, अस्तित्वहीन नहीं हूँ मैं ! / विजय शंकर सिंह




चुनौती जब भी मिली ,
मेरी अस्मिता को मित्र ,
खुद को मैंने ,
समेट लिया खुद में ,

खुदी  को बुत बनाया,
गुफ्तगू भी खुदी से की ,
खुदी से की मोहब्बतें ,
और , जो शिकवे थे ,
खुदी को किये बयाँ।
खुदी में जब डूबा ,
तो उसी को पाया !

किस  ने कहा ?
अस्तित्वहीन हूँ मैं ,
वही तो है भीतर मेरे ,
जिस के वज़ूद से रोशन है ,
सारी क़ायनात !!
-vss

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