सूट आया भी. सूट गया भी. पर अफ़साना ए सूट अभी ख़त्म नहीं हुआ. गोष्ठिया , परिचर्चाएं, हो रही हैं. सूट पुराण में कितने क्षेपक जोड़ें जाएंगे यह अभी भी स्पष्ट नहीं है. पहले सूट के प्रधान मंत्री के नाम से अलंकृत होने पर विवाद, फिर इसकी कीमत को लेकर तरह तरह के कयास, फिर इसे उपहार में प्राप्त होने की बात, अब इसके नीलाम होने और उस राशि से गंगा की सफाई का संकल्प सामने आया. यह भी सर्वविदित हुआ कि मोदी जी प्राप्त उपहारों की नीलामी पहले से ही करते रहे हैं, और उस धन राशि को वह दान में या पूण्य कार्य में लगाते रहे हैं।
प्रधान मंत्री या सेलेब्रिटीज़ के परिधानों पर यह पहली चर्चा नहीं है. पहले भी ऐसे महानुभावों के वस्त्र और परिधान अखबारों की सुर्खियां बनते रहे हैं. पर न सोशल मीडिया था, न टी वी चैनेल, तो चर्चाएं सुबह के अखबार के साथ शुरू होती थीं और शाम तक बासी हो जाती थी. आज की तरह, नित नूतन ब्रेकिंग न्यूज़ और पैनल डिबेट का चलन नहीं था. लोग इतना टेंशन भी नहीं लेते थे. पढ़ लिया, और रद्दी में उसे रख दिया बस अब तो ट्वीट, रीट्वीट, शेयर, कॉमेंट, लाइक का ज़माना है तो जो बात निकलने लगी, वह दूर तक जाने लगी. हर शक्श क़ासिद बन गया. और हर अफ़साना दिल फरेब.
गांधी 1915 में जब साउथ अफ्रीका में अपने सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन का प्रैक्टिकल कर स्वदेश लौटे तो, उस समय के अग्रणी नेता और गांधी के गुरु गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें देश भ्रमण की सलाह दी. गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में ही विदेशी परिधानों का त्याग कर दिया था. वह गुजराती परिधान और काठियावाड़ी पगड़ी धारण करने लगे थे. स्वदेश आने पर उन्होंने शुद्ध देसी वस्त्र अपना लिया, घुटने तक की धोती, उस पर लटकती जेब घड़ी और एक लाठी यह उनकी पहचान बन गया. तब कांग्रेस के नेता सूटेड बूटेड और अंग्रेज़ी भद्र समाज से प्रभावित लोग होते थे. उनके बीच गांधी एक अजूबे की तरह अवतरित हुए. आज़ादी की बात जो अंग्रेज़ी में और ड्राइंग रूमों तथा उच्च स्तरीय सभा सोसाइटियों में चल रही थी वह गांधी के रूप में गांव गांव तक फ़ैली और यह अजूबा न सिर्फ अपने परिधान में ही अलग था, बल्कि अपनी विरोध की अनुपम शैली में भी अलग था. वह शीघ्र ही आज़ादी की लड़ाई का सर्वमान्य व्यक्तित्व बन गया. गांधी के परिधान भी चर्चा और कटाक्ष के कारण बने. चर्चिल की एक बेहद प्रसिद्ध उक्ति है, जब वे कहते थे कि घुटने तक कपड़ा लपेटे यह नंगा फ़क़ीर जब वायसरीगल लॉज की भव्य सीढीयों पर चढ़ता मुझे दिखाई देता है तो मुझे बहुत कोफ़्त होती है. वायसरीगल लॉज यानी आज का राष्ट्रपति भवन. गांधी की एक बेहद चर्चित फोटो इस प्रासाद की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए है. हो सकता है वह इतनी अधिक चर्चिल के सामने से गुज़री थी कि उनके अवचेतन में वह समा गयी हो. आधुनिक नेट भाषा में कहें तो वह वायरल हो गयी थी.
सूना है, नेहरू के कपडे पेरिस में धुलने जाते थे ? पर कोई आधिकारिक सूचना नहीं है. पर यह चर्चा आम रही है. नेहरू एक संपन्न, अभिजात्य परिवार से थे वह, अंग्रेज़ी के एक मुहावरे के अनुसार मुंह में चांदी का चम्मच ले कर पैदा हुए थे पर जब उन्हीने आज़ादी की लड़ाई और राजनीति में क़दम रखा तो, उनका परिधान भी बदल गया. धोती कुरता और जवाहर जैकेट उनकी पहचान बन गया. गांधी टोपी, जिसे गांधी जी कभी नहीं पहनते थे, वह नेहरू के सिर पर बराबर दिखने लगी. लेकिन आज़ादी के पूर्व जब वे जब यूरोप जाते थे तो कोट पैंट और हैट में भी दिखते थे. घुड़सवारी के दौरान ब्रीचीस भी पहनते थे. प्रधान मंत्री होने पर वह चूड़ीदार पाजामा, और अचकन पहनने लगे. यही भारत की राष्ट्रीय पोशाक भी बन गयी. पर कोट के बटन होल में लगा गुलाब उनका प्रतीक चिह्न बन गया.
नेहरू के बाद अलप अवधि के लिए लाल बहादुर शास्त्री जी आये.वह सरल और सादगी पसंद थे. उनके परिधान में कोई भी परिवर्तन नहीं आया. वह धोती कुरता और सदरी के साथ गांधी टोपी लगाते थे.
इनके बाद इंदिरा गांधी आयी. वह साड़ी ही पहनती थी इसी में वह भव्य दिखती भी थी. पाश्चात्य वेश भूषा में वह प्रधान मंत्री बन्ने के बाद नहीं दिखी. थोड़े थोड़े समय के लिए आने वाले मोरार जी देसाई, चरण सिंह, भी भारतीय परिधान धोती कुरता या चूड़ीदार कुरता या अचकन पहनते रहे. गांधी टोपी अनिवार्यतः 1980 तक के प्रधान मंत्रियों के सिर पर ज़रूर रही.
1984 में इंदिरा जी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधान मंत्री बने. उन्होंने परिधान को आधुनिक रूप दिया. वे पाजामा कुरता, सदरी, या प्रिंस सूट, या राष्ट्रीय पोशाक में भी नज़र आये. उनके परिधान में जो विशिष्टता मुझे दिखी, वह उनके द्वारा सर्दियों में शाल का लपेटना था. उस समय के युवा कांग्रसियों में भी सर्दियों में उसी प्रकार से , जिसमें एक तरफ शाल लपेटा जाता है, लपेटने का चलन दिखा. अब या तो फैशन बदल गया या लोगों ने नक़ल छोड़ दी, जो भी हो, अब लोग वैसे शाल लपेटे नहीं दिखते.
विश्वनाथ प्रताप सिंह , चूड़ीदार पाजामा और अचकन तो पहनते ही थे, पर वे गांधी टोपी नहीं बल्कि ऊनी टोपी जो कश्मीरी पहनते हैं वह पहनने लगे. चंद्रशेखर तो धोती कुरता ही पहने दिखे. सर्दियों में पूरी शाल लपेट लेते थे.
परिधान के रूप में सर्वाधिक चर्चित वर्तमान प्रधान मंत्री ही रहे है. मोदी कुरता, मोदी जैकेट, और अब सूट तो विश्व विश्रुत हो ही गया है. इसका कारण यही नहीं है केवल कि मोदी जी को अच्छे वस्त्र पहनना पसंद है, बल्कि इसका एक बड़ा कारण यह भी है पिछले चुनाव में, उन्हें उपलब्ध सभी नेताओं की तुलना में ज्यादा अच्छा, ज्यादा योग्य और ज्यादा प्रभावशाली दिखाना भी रहा है. 2014 के चुनाव प्रचार को याद कीजिए, कभी उन्हें अनकरप्टबल, तो कभी उन्हें आक्रामक, तो कभी उन्हें दिन रात परिश्रम करने वाला तो कभी उन्हें योग्यतम प्रशासक के तौर पर पेश किया जाता था. चुनाव प्रचार में यह अनोखी बात नहीं है, सभी खुद को सबसे अच्छा कह कर जनता के सामने पेश करते हैं. इसमें गलत भी नहीं है. पहले के चुनावों में जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया के आगमन के पूर्व होते थे, उनमे इस प्रकार के प्रचार की गुंजाइश भी नहीं थी. झंडे, बैनर, पोस्टर आदि छपते थे, और नुक्कड़ सभाएं होती थीं. पर संचार क्रान्ति और वाहट्सअप जैसे साधनों ने सबको सबको मुट्ठी में कर दिया. इस से प्रचार की तो सुविधा बढी पर दुष्प्रचार के खतरे भी बढ़ गए.
ऐसा नहीं कि त्वरित परिधान परिवर्तन को ले कर मोदी पहले और अकेले राजनेता हों जिनकी आलोचना या चर्चा हुयी हो. यू पी ए सरकार में कांग्रेस के गृह मंत्री शिवराज पाटिल भी इस सम्बन्ध में बहुत आलोचना झेल चुके हैं. उनके इस आचरण की आलोचना भाजपा ने जो उस समय मुख्य विपक्षी दल था ने खूब किया है. 26 / 11 की घटना और दिल्ली में बम विस्फोट की वारदातें याद कीजिए , उनमे देर से पहुँचने और कार्यवाही करने का एक कारण , परिधान प्रेम भी रहा है.
भारतीय संस्कृति सारी रंगीनियों के बावज़ूद भी सादगी और सरल जीवन की पक्षधर रही है. सादा जीवन उच्च विचार एक प्रसिद्ध उक्ति ही नहीं, सम्मान का महत्वपूर्ण कारण भी रहा है. इसी लिए महान प्रतापी और ऐश्वर्यशाली राजाओं के बीच जनक, विदेह की अलग भूमिका रही है. प्रजावत्सल राजा की एक विशिष्ट ही क्षवि होती है. इस लिए सादगी और सरलता का महत्व सदैव रहा है.
( विजय शंकर सिंह )े
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