26 नवम्बर को किसानों का दिल्ली कूच कार्यक्रम है। वे वहां पहुंच पाते हैं या नही यह तो अभी नही बताया जा सकेगा, लेकिन तीन नए कृषि कानूनो के असर देश की कृषि व्यवस्था पर पड़ने लगे है। धान की खरीद पर इसका असर साफ दिख रहा है। किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल रहा है और इस प्रकार किसानों का जो शोषण हो रहा है इसके लिये कोई समाधान निकालने के बजाय सरकार खुद ही इस शोषण का एक उपकरण बन गयी है। न सिर्फ किसान अपने उत्पाद के उचित मूल्य से वंचित हैं, बल्कि उनके उत्पाद की जमाखोरी से बिचौलिए भरपूर लाभ कमा रहे हैं और इसका सीधा असर उपभोक्ताओं की जेब पर पड़ रहा है। सरकार ने इन्ही कृषि कानूनो के अंतर्गत आवश्यक वस्तु अधिनियम को खत्म कर दिया है जो जमाखोरी के खिलाफ सरकार को एक मजबूत कानूनी प्राविधान देता था। लेकिन अब कोई ऐसा प्रभावी कानून नहीं रहा। इसका असर महंगाई पर पड़ रहा है।
इन कृषिकानून के कारण, एक तो किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिलना बंद हो गया और दूसरे बाजार पर आधारित कृषि विपणन व्यवस्था पर बाजार के दलालों और बिचौलियों का वर्चस्व हो गया। न्यूनतम समर्थन मूल्य अब केवल फ़र्ज़ अदायगी बन कर रह गया है और सरकारी मंडियां अपनी उपयोगिता और प्रासंगिकता खोती जा रही है। इन्ही सब कारणों से देश भर के किसान आंदोलित हैं और वे नए कृषि कानूनो के खिलाफ हैं। सरकार एमएसपी की बात तो करती है पर जब यह कहा जाता है कि एमएसपी से कम कीमत पर कृषि उपज की खरीद को कानूनन दंडनीय अपराध बना दिया जाय तो, सरकार एक खामोशी ओढ़ लेती है। सरकार का पूरा दृष्टिकोण और रवैया न केवल किसान विरोधी है, बल्कि वह खुल कर पूंजीपतियों के पक्ष में है। इसी से किसान आंदोलित हैं और वे एक निर्णायक आंदोलन की ओर बढ़ रहे हैं।
यह देश का पहला किसान आंदोलन नही है और न ही अंतिम है। देश के इतिहास में किसान आंदोलनों का एक लंबा और समृद्ध इतिहास रहा है। प्रायः यह समझा जाता है कि भारतीय समाज और इतिहास में समय-समय पर होने वाली उथल-पुथल में किसानों की कोई सार्थक भूमिका नहीं रही है, और किसान इन बदलाव की आंधी से अलग रहे हैं, लेकिन यह धारणा, किसान आंदोलनों के इतिहास को देखते हुए सही नहीं है। भारत के स्वाधीनता संग्राम में आदिवासियों, जनजातियों और किसानों के आंदोलनों का अहम योगदान रहा है और व्यापक जन जागरण में उनकी भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। स्वतंत्रता से पहले हुए बड़े किसान आंदोलन, गांधीजी के प्रभाव के कारण हिंसा और बरबादी से भरे नहीं होते थे लेकिन उन आंदोलनों ने ब्रिटिश साम्राज्य को भी अपनी किसान विरोधी नीतियों को बदलने के लिये बाध्य कर दिया था।
ऐसे आंदोलनों में चंपारण का निलहे गोरों के खिलाफ किया गया किसान आंदोलन सबसे महत्वपूर्ण है। दक्षिण अफ्रीका से आते ही महात्मा गांधी ने चंपारण के राज कुमार शुक्ल नामक एक किसान के द्वारा जब बिहार के एक बेहद पिछड़े इलाके चंपारण में किसानों की व्यथा सुनी तो वे वहां गए। वही गांधी जी की पहली गिरफ्तारी होती है और वही भारत मे ब्रिटिश हुक़ूमत ने गांधी जी की दृढ़ता और विनम्रता की पहली झलक भी देखी। हालांकि गांधी, साम्राज्य के लिये अनजान नहीं थे। दक्षिण अफ्रीका में उनके आंदोलनों से अंग्रेजी सरकार भलीभांति परिचित हो चुकी थी। चंपारण में भी गांधी का आंदोलन सफल रहा। यह आंदोलन भी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ किसानों का आंदोलन था। पर पूरी तरह से गांधी जी की अहिंसा और असहयोग पर आधारित था। चंपारण को भविष्य में होने वाले स्वाधीनता संग्राम की एक प्रयोगशाला के रूप में भी देखा जा सकता है।
देश में नील पैदा करने वाले किसानों द्वारा पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चम्पारण का सत्याग्रह और बारदोली के प्रमुख आंदोलन हुए थे, पर किसानों के आंदोलन या उनके विद्रोह की संगठित शुरुआत सन् 1859 से हुई थी। चूंकि अंग्रेजों की मुनाफाखोरी पर आधारित नीतियों से किसान सबसे अधिक प्रभावित और पीड़ित हुए, इसलिए आजादी के पहले भी इन नीतियों के कारण, किसान आक्रोश औऱ आंदोलनों का सूत्रपात हुआ।
सन् 1857 का विप्लव असफल रहा। इसके अनेक कारण हैं। लेकिन इस विप्लव ने अंग्रेजों और भारतीयों को भी कुछ सीखें दी। अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कम्पनी का राज खत्म कर भारत को सीधे क्राउन के अंतर्गत ले लिया और देश लगभग 600 देसी रियासतों को छोड़ कर, सीधे ब्रिटिश साम्राज्य में चला गया। रियासतें भी अपने स्थानीय प्रशासन को छोड़ कर वायसराय के आधीन ही थी। उक्त असफल विप्लव के बाद सरकार की नीतियों के विरोध का नेतृत्व समय समय पर, किसानों ने ही संभाला, क्योंकि अंग्रेजों और देशी रियासतों के सबसे बड़े आंदोलन, किसानों के शोषण के नतीजे थे। सच तो यह है कि, स्वाधीनता के पूर्व, जितने भी 'किसान आंदोलन' हुए, उनमें अधिकांश आंदोलन अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीतियों के विरुद्ध थे। तत्कालीन समाचार पत्रों, जिंसमे वर्नाक्यूलर प्रेस अधिक महत्वपूर्ण हैं, ने भी किसानों के शोषण, उनके साथ होने वाले सरकारी अधिकारियों की ज्यादतियों, पक्षपातपूर्ण व्यवहार और किसानों के संघर्ष को प्रमुखता से प्रकाशित किया।
आंदोलनकारी किसान चाहे तेलंगाना के हों या नक्सलवाड़ी के हिंसक लड़ाके, सभी ने छापामार आंदोलन को आगे बढ़ाने में अहम योगदान दिया था। सन् 1857 के विप्लव को अंग्रेजों ने कुछ देशी रियासतों की मदद और कुछ उनके अनियोजित होने के कारण, दबा तो दिया था, लेकिन देश में कई स्थानों पर आज़ादी के इस संग्राम की ज्वाला लोगों के दिलों में धधकती रही। इसी बीच अनेकों स्थानों पर एक के बाद एक कई किसान आंदोलन होने शुरू हो गए । इन आंदोलनों में, नील की खेती करने वाले किसानों का विद्रोह, पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चम्पारण सत्याग्रह, बारदोली सत्याग्रह, मोपला विद्रोह प्रमुख किसान आंदोलन के रूप में इतिहास में दर्ज हैं।
हालांकि किसानों का सबसे प्रभावी और व्यापक आंदोलन नील पैदा करने वाले किसानों का चंपारण आंदोलन था जो भारतीयों किसानों द्वारा ब्रिटिश नील उत्पादकों के खिलाफ बंगाल में सन् 1859-1860 में किया गया। अपनी आर्थिक मांगों के संदर्भ में किसानों द्वारा किया जाने वाला यह आंदोलन उस समय का एक विशाल आंदोलन था। अंग्रेज अधिकारी बंगाल तथा बिहार के जमींदारों से भूमि लेकर बिना पैसा दिए ही किसानों को नील की खेती में काम करने के लिए विवश करते थे तथा नील उत्पादक किसानों को एक मामूली-सी रकम अग्रिम देकर उनसे करारनामा लिखा लेते थे, जो बाजार भाव से बहुत कम दाम पर हुआ करता था। इस प्रथा को 'ददनी प्रथा' कहा जाता था।
दीन बंधु मित्र द्वारा 1860 में लिखा गया बांग्ला का प्रसिद्ध नाटक, नील दर्पण, निलहे किसानों की व्यथा का एक जीवंत उल्लेख है। नील दर्पण' एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण नाट्यकृति है, जो अपने समय का एक सशक्त दस्तावेज भी है। 1860 में जब यह प्रकाशित हुआ था तब बंगाली समाज और शासक दोनों में इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी। जेम्स लॉग ने नील दर्पण का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया तो अँग्रेज सरकार ने उन्हें एक माह की जेल की सजा सुना दी। यह उन अंग्रेजों का कुकृत्य था जो खुद को दुनियाभर के संसदीय लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी का सिरमौर मानते हैं। शोषक, शोषक ही रहता है और सत्ता का मूल स्वरूप शोषक का ही रहता है। अंग्रेज भी उस पनप रहे पूंजीवादी व्यवस्था में अलग नही थे।
पहला महत्वपूर्ण आंदोलन बंगाल के पबना का किसान आंदोलन था। 1873-76 में बंगाल के पबना नामक जगह में भी किसानों ने जमींदारी शोषणों के विरुद्ध विद्रोह किया था। पबना राजशाही राज की जमींदारी के अन्दर था और यह वर्धमान राज के बाद सबसे बड़ी जमींदारी थी। उस जमींदारी के संस्थापक राजा कामदेव राय थे। पबना विद्रोह जितना अधिक जमींदारों के खिलाफ था उतना सूदखोरों और महाजनों के विरुद्ध नहीं था। 1870-80 के दशक के पूर्वी बंगाल (अभी का बांग्लादेश) के किसानों ने जमींदारों द्वारा बढ़ाए गए मनमाने करों के विरोध में यह विद्रोह किया था। पबना में 1859 में कई किसानों को भूमि पर स्वामित्व का अधिकार दिया गया था। किसानों को मिले इस अधिकार के अंतर्गत किसानों को उनकी जमीन से बेदखल नहीं किया जा सकता था। लगान की वृद्धि पर भी रोक लगाई गई थी। कुल मिलाकर किसानों के लिए पबना में एक सकारात्मक माहौल था. पर कालांतर में जमींदारों का दबदबा पबना में बढ़ने लगा। जमींदार मनमाने ढंग से लगान बढ़ाने लगे. अन्य तरीकों से भी जमींदारों द्वारा किसानों को प्रताड़ित किया जाने लगा।
अंततः 1873 ई. में पबना के किसानों ने जमींदारों के शोषण के विरुद्ध एक संघ बनाया और किसानों की सभाएँ आयोजित की । कुछ किसानों ने अपने परगनों को जमींदारी नियंत्रण से मुक्त घोषित कर दिया और स्थानीय सरकार बनाने की चेष्टा भी की। उन्होंने एक सेना भी बनायी जिससे कि जमींदारों का सामना किया जा सके। जमींदारों से न्यायिक रूप से लड़ने के लिए धन चंदे के रूप में भी किसानों द्वारा जमा किया गया। किसानों ने लगान देना भी कुछ समय के लिए बंद कर दिया। यह आन्दोलन धीरे-धीरे सुदूर क्षेत्रों में भी, जैसे ढाका, मैमनसिंह, त्रिपुरा, राजशाही, फरीदपुर, राजशाही फैलने लगा।
पबना विद्रोह एक शांत प्रकृति का आन्दोलन था। किसान शांतिपूर्ण तरीके से अपने हितों की सुरक्षा की माँग कर रहे थे. उनका आन्दोलन सरकार के विरुद्ध भी नहीं था इसलिए पबना आन्दोलन को अप्रत्यक्ष रूप से सरकार का समर्थन प्राप्त हुआ। 1873 ई. बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर कैंपवेल ने किसान संगठनों को उचित ठहराया. पर बंगाल के जमींदारों ने इस आन्दोलन को साम्प्रदायिक रंग देना चाहा। एक अखबार हिंदू पेट्रियट ने लिखा कि यह आन्दोलन मुसलमान किसानों द्वारा हिन्दू जमींदारों के विरुद्ध शुरू किया गया गई है। पर कुछ इतिहासकार मानते हैं कि इस आन्दोलन को साम्प्रदायिक रंग देना इसलिए गलत है क्योंकि पबना विद्रोह में हिन्दू और मुसलमान दोनों वर्ग के किसान शामिल थे। आन्दोलन के नेता भी दोनों समुदाय के लोग थे, जैसे ईशान चन्द्र राय, शम्भु पाल और खुदी मल्लाह। इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप 1885 का बंगाल काश्तकारी कानून पारित हुआ जिसमें किसानों को कुछ राहत पहुँचाने की व्यवस्था की गई।
उल्लेखनीय है कि किसान चेतना, एक दो स्थानों तक ही सीमित नहीं रही, वरन देश के विभिन्न भागों में इसका व्यापक प्रसार हुआ। यह चेतना दक्षिण में भी फैलने लगी, क्योंकि महाराष्ट्र के पूना एवं अहमदनगर जिलों में गुजराती एवं मारवाड़ी साहूकार सारे हथकंडे अपनाकर किसानों का शोषण कर रहे थे। दिसंबर सन् 1874 में एक सूदखोर कालूराम ने किसान (बाबा साहिब देशमुख) के खिलाफ अदालत से घर की नीलामी की डिक्री प्राप्त कर ली। इस पर किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन शुरू कर दिया। इन साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन की शुरुआत सन् 1874 में शिरूर तालुका के करडाह गांव से हुई।
होमरूल लीग के कार्यकताओं के प्रयास तथा मदन मोहन मालवीय के दिशा निर्देशन के परिणामस्वरूप फरवरी, सन् 1918 में उत्तर प्रदेश में 'किसान सभा' का गठन किया गया। यह उत्तर प्रदेश या तत्कालीन यूनाइटेड प्रविन्सेस का पहला किसान संगठन कहा जाता है। सन् 1919 के अंतिम दिनों में किसानों का संगठित विद्रोह खुलकर सामने आ गया। उत्तर प्रदेश के हरदोई, बहराइच एवं सीतापुर जिलों में लगान में वृद्धि एवं उपज के रूप में लगान वसूली को लेकर अवध के किसानों ने 'एका आंदोलन' नामक एक प्रभावी आंदोलन भी चलाया था। अवध किसान आंदोलन के नायकों में मदारी पासी निराले और हाशिये के समाज के विरले नायक थे। गरीब किसानों की बेदखली, लगान और अनेक गैर कानूनी करों से मुक्ति के लिए उन्होंने संगठित और विद्रोही आंदोलन चलाया था। जब दक्षिणी अवध प्रांत का उग्र किसान आंदोलन सरकार और जमींदारों के क्रूर दमन के कारण 1921 के मध्य में दबा दिया गया था तथा असहयोग आंदोलनकारियों द्वारा निगल लिया गया था, ठीक उसी समय, मदारी पासी का ‘एका आंदोलन’ हरदोई जिले के उत्तरी और अवध के पश्चिमी जिलों में 1921 के अंत में और 1922 के प्रारम्भ में प्रकाश में आया।
मोपला लोग केरल के मालाबार क्षेत्र में रहने वाले इस्लाम धर्म में धर्मांतरित अरबी एवं मलयाली मुसलमान थे।अधिकांश मोपला छोटे किसान या व्यापारी थे, जो अपनी गरीबी और अशिक्षा के कारण थंगल कहे जाने वाले काजियों और मौलवियों के प्रभाव में थे। मोपला किसान मालाबार के हिन्दू नम्बूदरी एवं नायर उच्च जाति , भूस्वामियों के बटाईदार या आसामी काश्तकार थे। नम्बूदरी और नायर जैसे उच्च जाति के भूस्वामियों को शासन, पुलिस और न्यायालय से संरक्षण प्राप्त था। मोपला या मोपला विद्रोह इसलिए सांप्रदायिक हो गया क्योंकि अधिकांश जमींदार या भूस्वामी हिन्दू थे और काश्तकार अधिकांश मुसलमान थे। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उन्नीसवीं सदी का मोपला विद्रोह ग्रामीण विद्रोह का विशिष्ट उदाहरण है,जिसकी जड़ें स्पष्टत: कृषि व्यवस्था में थीं। यह मोपला विद्रोह का प्रथम चरण था। 1920 - 21 में द्वितीय मोपला विद्रोह हुआ जिसके कारणों में भी कृषिजन्य असंतोष था, लेकिन कालांतर में असहयोग आंदोलन स्थगित किए जाने पर इस आंदोलन ने साम्प्रदायिक, राजनैतिक स्वरूप धारण कर लिया। 1921 में केरल के मालाबार जिले के काश्तकारों ने जमींदारों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। 15 फरवरी 1921 को सरकार ने इस क्षेत्र में निषेधाज्ञा घोषित कर खिलाफत तथा कांग्रेस के नेता यू गोपाल मेनन, पी मोइनुद्दीन कोया, याकूब हसन तथा के माधवन नायर को गिरफ्तार कर लिया। मोपला विद्रोह की उग्रता को देखते हुए सरकार ने सैनिक शासन की घोषणा कर दी और परिणामस्वरूप मोपला विद्रोह को कुचल दिया गया।
इसी प्रकार पंजाब में 1871 - 72 में
कूका लोगों (नामधारी सिखों) द्वारा एक सशस्त्र विद्रोह किया गया था। कूका लोगों ने पूरे पंजाब को बाईस जिलों में बाँटकर अपनी समानान्तर सरकार बना ली थी। कूका वीरों की संख्या सात लाख से ऊपर थी लेकिन अधूरी तैयारी में ही विद्रोह भड़क उठा और इसी कारण वह दबा भी दिया गया। सिखों के नामधारी संप्रदाय के लोग कूका भी कहलाते हैं। इस पन्थ का आरम्भ 1840 ईस्वी में हुआ था। इसे प्रारम्भ करने का श्रेय सेन साहब अर्थात भगत जवाहर मल को जाता है। कूका विद्रोह के दौरान 66 नामधारी सिख शहीद हो गए थे। नामधारी सिखों की कुर्बानियों को भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास में 'कूका लहर' के नाम से अंकित किया गया है। कृषि संबंधी समस्याओं के खिलाफ अंग्रेज़ सरकार से लड़ने के लिए बनाए गए इस संगठन के संस्थापक भगत जवाहरमल थे। सन् 1872 में इनके शिष्य बाबा रामसिंह ने अंग्रेजों का कड़ाई से सामना किया। कालान्तर में उन्हें कैद कर रंगून (अब यांगून) भेज दिया गया, जहां पर सन् 1885 में उनकी मृत्यु हो गई।
इसी प्रकार वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में रामोसी किसानों ने जमींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह किया। इसी तरह आंध्रप्रदेश में सीताराम राजू के नेतृत्व में औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध यह विद्रोह हुआ, जो सन् 1879 से लेकर सन् 1920-22 तक छिटपुट ढंग से चलता रहा।
बिहार में एक अन्य किसान आंदोलन भी हुआ था, जिसे ताना भगत आंदोलन के नाम से जानते हैं। इस आन्दोलन की शुरुआत सन् 1914 में हुई थी। यह आन्दोलन लगान की ऊंची दर तथा चौकीदारी कर के विरुद्ध किया गया था। इस आन्दोलन के प्रवर्तक 'जतरा भगत' थे। 'मुण्डा आन्दोलन' की समाप्ति के करीब 13 वर्ष बाद 'ताना भगत आन्दोलन' शुरू हुआ। यह ऐसा धार्मिक आन्दोलन था, जिसके राजनीतिक लक्ष्य थे। यह आदिवासी जनता को संगठित करने के लिए नए 'पंथ' के निर्माण का आन्दोलन था। इस मायने में यह बिरसा मुण्डा आन्दोलन का ही विस्तार था। मुक्ति-संघर्ष के क्रम में बिरसा मुण्डा ने जनजातीय पंथ की स्थापना के लिए सामुदायिकता के आदर्श और मानदंड निर्धारित किए थे।
किसान आन्दोलनों के इतिहास में सन् 1946 का बंगाल का तेभागा आन्दोलन सर्वाधिक सशक्त आन्दोलन था, जिसमें किसानों ने 'फ्लाइड कमीशन' की सिफारिश के अनुरूप लगान की दर घटाकर एक तिहाई करने के लिए संघर्ष शुरू किया था। बंगाल का 'तेभागा आंदोलन' फसल का दो-तिहाई हिस्सा उत्पीड़ित बटाईदार किसानों को दिलाने के लिए किया गया था। यह बंगाल के 28 में से 15 जिलों में फैला, विशेषकर उत्तरी और तटवर्ती सुन्दरबन क्षेत्रों में। 'किसान सभा' के आह्वान पर लड़े गए इस आंदोलन में लगभग 50 लाख किसानों ने भाग लिया और इसे खेतिहर मजदूरों का भी व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ।
आंध्रप्रदेश का तेलंगाना आन्दोलन जमींदारों एवं साहूकारों के शोषण की नीति के खिलाफ सन् 1946 में शुरू किया गया था। सन् 1858 के बाद हुए किसान आन्दोलनों का चरित्र पूर्व के आन्दोलन से अलग था। अब किसान बगैर किसी मध्यस्थ के स्वयं ही अपनी लड़ाई लड़ने लगे। इनकी अधिकांश मांगें आर्थिक होती थीं। किसान आन्दोलन ने राजनीतिक शक्ति के अभाव में ब्रिटिश उपनिवेश का विरोध नहीं किया। किसानों की लड़ाई के पीछे उद्देश्य व्यवस्था-परिवर्तन नहीं था, लेकिन इन आन्दोलनों की असफलता के पीछे किसी ठोस विचारधारा, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कार्यक्रमों का अभाव था।
एक अनोखा आंदोलन, बिजोलिया किसान आंदोलन का भी उल्लेख मिलता है। यह 'किसान आन्दोलन' भारतभर में प्रसिद्ध रहा जो मशहूर क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक के नेतृत्व में चला था। बिजोलिया किसान आन्दोलन सन् 1847 से प्रारंभ होकर करीब अर्द्ध शताब्दी तक चलता रहा। किसानों ने जिस प्रकार निरंकुश नौकरशाही एवं स्वेच्छाचारी सामंतों का संगठित होकर मुकाबला किया, वह इतिहास बन गया।
आंदोलनों के साथ साथ किसान संगठन भी अस्तित्व में आये। सन् 1923 में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने 'बिहार किसान सभा' का गठन किया। सन् 1928 में :आंध्र प्रान्तीय रैय्यत सभा' की स्थापना एनजी रंगा ने की। उड़ीसा में मालती चौधरी ने 'उत्कल प्रान्तीय किसान सभा' की स्थापना की। बंगाल में 'टेंनेंसी एक्ट' को लेकर सन् 1929 में 'कृषक प्रजा पार्टी' की स्थापना हुई। अप्रैल, 1935 में संयुक्त प्रांत में किसान संघ की स्थापना हुई। इसी वर्ष एनजी रंगा एवं अन्य किसान नेताओं ने सभी प्रान्तीय किसान सभाओं को मिलाकर एक 'अखिल भारतीय किसान संगठन' बनाने की योजना बनाई। चंपारण का मामला बहुत पुराना था। चम्पारण के किसानों से अंग्रेज बागान मालिकों ने एक अनुबंध करा लिया था, जिसके अंतर्गत किसानों को जमीन के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था। इसे 'तिनकठिया पद्धति' कहते थे। 19वीं शताब्दी के अंत में रासायनिक रंगों की खोज और उनके प्रचलन से नील के बाजार समाप्त हो गए।
चंपारण के बाद गांधीजी ने सन् 1918 में खेड़ा किसानों की समस्याओं को लेकर आन्दोलन शुरू किया। खेड़ा गुजरात में स्थित है। खेड़ा में गांधीजी ने अपने प्रथम वास्तविक 'किसान सत्याग्रह' की शुरुआत की। खेड़ा के कुनबी-पाटीदार किसानों ने सरकार से लगान में राहत की मांग की, लेकिन उन्हें कोई रियायत नहीं मिली। गांधीजी ने 22 मार्च, 1918 को खेड़ा आन्दोलन की बागडोर संभाली। अन्य सहयोगियों में सरदार वल्लभभाई पटेल और इन्दुलाल याज्ञनिक थे। सूरत, (गुजरात) के बारदोली तालुका में सन् 1928 में किसानों द्वारा 'लगान' न अदायगी का आन्दोलन चलाया गया। इस आन्दोलन में केवल 'कुनबी-पाटीदार' जातियों के भू-स्वामी किसानों ने ही नहीं, बल्कि सभी जनजाति के लोगों ने हिस्सा लिया। इसी आंदोलन के बाद गांधी जी के बल्लभभाई पटेल को सरदार कह कर सम्बोधित किया और सरदार, सच मे स्वाधीनता संग्राम के सरदार ही सिद्ध हुए।
( विजय शंकर सिंह )
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