पत्थर की हो रही है,
यह दुनिया,
जहां न फूल बचे हैं,
न सुगंध, न तितली,
इंसान भी हुए तो,
दिल पत्थर के,
ज़ुबा, बेजुबां जैसी,
न कोई जज़्बात,
न कशिश, न मुहब्बत,
न मुहज्जब.
बस चलते फिरते बुत,
खूबसूरत पत्थरों के तराशे,
किसी काबिल और
हुनरमंद संगतराश के औजारों
के खूबसूरत नमूने जैसे.
क्या कीजे,
इस बेरंग दुनिया का,
न फूल, न खुशबू,
न नमी, न तितली,
न रंग, न रंगत,
न सोहबत, न इश्क़।
हर तरफ, चलते फिरते,
दौड़ते भागते,
बुत, बेजान और बेदिल से.
कहां चली गयी वह दुनिया,
इसी फिक्र में मुब्तिला है,
वह नन्ही सी खूबसूरत,
रंगों भरी तितली !!
( विजय शंकर सिंह )
यह कविता आप इस लिंक पर मेरी आवाज में सुन भी सकते हैं।
https://youtu.be/wPvIFuRtc28
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर वर्तमान की पीड़ा समेटे।
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन।
ReplyDelete