Wednesday 4 November 2020

कविता - तितली / विजय शंकर सिंह

पत्थर की हो रही है, 
यह दुनिया, 
जहां न फूल बचे हैं, 
न सुगंध, न तितली, 

इंसान भी हुए तो, 
दिल पत्थर के, 
ज़ुबा, बेजुबां जैसी, 
न कोई जज़्बात, 
न कशिश, न मुहब्बत, 
न मुहज्जब.

बस चलते फिरते बुत, 
खूबसूरत पत्थरों के तराशे, 
किसी काबिल और 
हुनरमंद संगतराश के औजारों 
के खूबसूरत नमूने जैसे.

क्या कीजे, 
इस बेरंग दुनिया का, 
न फूल, न खुशबू, 
न नमी, न तितली, 
न रंग, न रंगत, 
न सोहबत, न इश्क़।

हर तरफ, चलते फिरते, 
दौड़ते भागते, 
बुत, बेजान और बेदिल से.

कहां चली गयी वह दुनिया, 
इसी फिक्र में मुब्तिला है, 
वह नन्ही सी खूबसूरत, 
रंगों  भरी तितली !!

( विजय शंकर सिंह )
यह कविता आप इस लिंक पर मेरी आवाज में सुन भी सकते हैं। 
https://youtu.be/wPvIFuRtc28

3 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना

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  2. बहुत ही सुंदर वर्तमान की पीड़ा समेटे।

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