अब इस वितंडावाद से मुक्त हो कर हम भाषा और इसके पर्यायों पर विचार कर सकते हैे। जरूरी नहीं कि सभी का सीधा संंबंध मुख से निकलने वाली किसी न किसी ध्वनि से हो, या जिस रूप में हम इन्हें संस्कृत ग्रंथों और धातुओं में पाते है वैसा रहा हो। इसकी संभावना अधिक है कि वह बोलियों में उपलब्ध सजात शब्द जैसा रहा हो यद्यपि बोलियों में भी सीमित प्रयोग के कारण उनकी प्रतिष्ठा इतना गिर गई हो कि वह उपयोगी से अधिक हास्यास्पद प्रतीत हो। शब्दों की सामाजिक हैसियत पर यहाँ चर्चा संभव नहीं, पर इतना याद रखा जा सकता है कि हम जहाँ, उसका अर्थ जानते हैं, यह भी पाते हैं कि किसी विशेष भाव को प्रकट करने के लिए वह अधिक सटीक है फिर भी हम कुछ अधिक ‘संभ्रांत’ पर्याय की तलाश करते हैं।
मुझे यह समझ में नहीं आता कि भण् ध्वनि काे वाग्यंत्र के किसी अस्पष्ट या स्पष्ट उच्चारण के अनुरूप माना जा सकता था। किसी पात्र के या खोखले भंगुर वस्तु के गिर कर टूटने से यह ध्वनि अवश्य पैदा हो सकती थी पर मनुष्य की वाणी के लिए - भणन, भणित, भणिति - का प्रयोग, या अर्थोत्कर्ष, चकित करता है।
किसी नाद का भण् को रूप में श्रवण और उच्चारण पूरबी बोलियों में संभव न था। ‘ण’ ध्वनि का उनमें अभाव है। कौरवी और बाँगड़ू में भी इसका उच्चारण संभव न था क्योंकि सघोष महाप्राण ध्वनि, भ’ का उनमें अभाव था। (हम संस्कृत के ऐसे सभी शब्दों काे जिनमें सघोष महाप्राण ध्वनियाँ पाई जाती हैं, उन्हें पूरबी से आया हुआ और शब्द भंडार में अपेक्षाकृत पुराना मान सकते हैं। यद्यपि भण् रूप लंबे समय तक कौरवी क्षेत्र में पहुंचने वाले पूर्वी जमातों के कौरवी ध्वनि माला से अवगत और कौरवी के पूर्वी ध्वनिमाला का अभ्यस्त हो जाने के बाद ही संभव था, परंतु उसके बाद भी सघोष महाप्राण ध्वनियों से बचने की जो प्रवृत्ति है (पू. घना > गहन; घन् > हन्) उसे देखते हुए यह मानना होगा यह शब्द पूर्वी से कौरवी में पूरबी से आया और इसका प्राचीन रूप भन् था , जो भनक, भान, (भानमती का अर्थ क्या डींग हाँकने वाली था?) भनभनाइल, भन्नाइल, भन्नाहट, आदि में आज भी बचा रह गया है।
भनभनाइल, भन्नाइल का समीकरण मक्खियों और मच्छरों की गूंज से होने के कारण इसमें अर्थह्रास आ गया, इसलिए मनुष्य की बड़बड़ाहट के लिए भुनभुनाइल, और मक्खियों के लिए भिनभिन्नाइल रूप को वरीयता मिलने लगी।
जो भी हो भण के कौरवी में प्रचलन के बाद भी, यह उसकी प्रकृति के अनुरूप नहीं था, इसलिए इस क्षेत्र में यह अधिक शब्दों का जनक नहीं बन सका परंतु इसका जिस रूप में अनुकूलन हुआ उससे भण् > बण > वण में बदला और दोनों में अभेद हो गया। इसे ही हम ‘वण् भण खंडने’ सूत्र में धातु के रूप में स्वीकृत पाते हैं। इसी नियम से भणिति - वाणी बन गई और इसमें एक नया अर्थ यांत्रिक भण् की ध्वनि के कारण जुड़ गया जो भान, भनक, आदि में नहीं था, जिनका प्रयोग उसमें वाणी के लिए होता था।
दूसरे शब्दों में कहें तो भणिति या वाणी का मुख से उच्चरित ध्वनियों से सीधा संबंध नहीं था, पर इनके पूर्वरूप -भन् का था। एक यांत्रिक ध्वनि के योग और समायोजन इन दोनों के आशय - कथन और विच्छेदन वाणी में समाहित हो गए। कहें, भन् की भूमिका में पहले (पूरबी में) इसका अर्थ व्यक्त करना ही रहा लगता है, परन्तु अब उसमें विखंडन और भीतरी मर्म को बारीकी से समझना जुड़ जाता है। विवेचन स्वतः हथियार बन जाता है। वण् में अलगाने, वितरण करने के आशय के कारण, आयात वस्तुओं के समाज में वितरित करने वाले वणिक कहे जाने लगते हैं, उनका पेशा - वाणिज्य कहा जाने लगता है। परन्तु भण् से वण् बनने के बीच बण रूप से बाण बनता है जिसका काम आघात पहुँचाना है। कौरवी क्षेत्र की र-कार प्रियता के फलस्वरूप यदि वण् में रकार के आगम से वर्ण बनता है जिससे वर्णन बनता है तो बाण के आघात की दिशा में व्रण - घाव बनता है। अब अक्षर के लिए प्रयुक्त वर्ण का शाब्दिक अर्थ होना चाहिए, वाचिक ध्वनियों का विश्लिष्ट या अलग- अलग किया रूप।
(पर हम जो लिखते हैं उसे स्थापना की जगह ऊहापोह (musing) मान कर पढ़ना हमारे लिए भी हितकर है और आप के लिए भी। दावे के साथ कुछ कहने की स्थिति में हम इस पड़ताल के बाद ही आ सकेंगे।)
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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