आज हिंदुस्तान की वीरांगना बेटी, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की जयंती है....
19 नबम्बर 1828 को बनारस के मराठी ब्राह्मण परिवार में जन्मी मणिकर्णिका तांबे (पिता मोरोपन्त तांबे, माता भागीरथी सापरे) झांसी नरेश महाराज गंगाधर राव नेवालकर से विवाह कर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई कहलाई। उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति भी हुई, मगर उनका वो पुत्र, मां की गोद से ही अकाल मृत्यु की गोद मे चला गया। महाराज गंगाधरराव की भी आकस्मिक मृत्यु हो गई। ऐसे में राज्य की बागडोर संभाली रानी लक्ष्मीबाई ने। वे अच्छा शासन कर रही थीं, लेकिन अंग्रेजों की हड़पनीति के आगे उनकी नहीं चली। उन्होंने जिस बच्चे को दत्तक(गोद) लिया था, अंग्रेजों ने उसे मान्यता नहीं दी और रानी को गद्दी से हटा कर झांसी के एक महल में नजरबंद कर दिया और किले पर क़ब्ज़ा कर लिया। रानी को अंग्रेजों का ये व्यवहार बिलकुल पसंद नहीं आया, लेकिन वे खामोश थीं। इधर रानी खामोश थीं, तो उधर बांदा के नवाब श्रीमंत अली बहादुर सानी(द्वितीय) भी खामोश थे। दरअसल ये तूफान के आने के पहले की खामोशी थी।
उत्तर भारत में ये दौर अंग्रेजों के चौतरफा विरोध का था, लेकिन ये विरोध छोटी-छोटी रियासतों, छोटे राजा-नवाबों, जागीरदारों और अंग्रेज़ी सेना के कुछ बागी सैनिक ही कर रहे थे( बड़े राजे-रजवाड़े तो सब अंग्रेजों की जूतियां उठाने में लगे थे)। धीरे-धीरे इन्हें आम नागरिकों-किसानों का भी समर्थन भी मिलने लगा। ऐसे ही क्रान्तिकातियों के एक समूह की मदद से झांसी की रानी लक्ष्मी बाई ने भी अंग्रेजों से विद्रोह किया और झांसी के किले पर फिर से क़ब्ज़ा कर लिया और अंग्रेजों को वहां से भगा दिया। कुछ दिनों की खामोशी के बाद अंग्रेज़ एक बड़ी फ़ौज लेकर झांसी आए और किले को घेर लिया। ऐसे में रानी ने एक चिट्ठी लिखी और अपने डाकिए दुलारे लाल को किले के खुफिया दरवाज़े से निकाल दिया। इधर बांदा में नवाब साहब भी अंग्रेजों की हरकतों से परेशान थे और आज़ादी की इस आंधी ने बह जाना चाहते थे। वे इंतज़ार में थे और उन्हें जून 1857 में वो मौक़ा मिल गया जिसके इंतज़ार में वे पिछले 8 सालों से झटपटा रहे थे।
उस वक़्त बांदा के नवाब अली बहादुर को दो तरफा आदेश और स्वीकृति मिली, जिसमें बहादुर शाह का संदेशा भी था और तत्कालीन पेशवा नाना साहेब का आग्रह भी। नवाब अली बहादुर मराठा साम्राज्य के सबसे पराक्रमी पेशवा बाजीजीराव व मस्तानी की पांचवी पीढ़ी की संतान थे(यानी श्रीमंत बाजीराव का असल खून, कोई दत्तक नहीं)। इसी नाते वे नाना साहेब( पेशवा बाजीराव 2 के दत्तक पुत्र) की ना सिर्फ इज़्ज़त करते थे बल्कि उन्हें काका साहेब बुलाते थे। लेकिन इस सब से ज़्यादा बड़ा काम किया एक चिट्ठी ने, जिसे डाकिया (दुलारे लाल) झांसी से लेकर आया था। ये कोई मामूली चिट्ठी नहीं थी, इसमें शब्दों के साथ एक बहुत ही पवित्र रिश्ता भी बंधा हुआ था। जी हां लिफाफे में ख़त के साथ एक राखी भी थी, जिसे देख कर नवाब साहब का हाथ सीधे अपनी तलवार पर गया...उस राखी के बंधन की रक्षा के लिए...और ये चिट्ठी थी, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की।
इतिहास बताता है कि जब अंग्रेज सेना ने झांसी के किले को घेर लिया था और रानी के पास बचाव का कोई रास्ता नहीं था, तब रानी ने ये चिट्ठी नवाब बांदा को लिखी थी। इतिहासकार राधाकृष्ण बुंदेली लिखते हैं कि रानी ने शुद्घ बुंदेली भाषा में अपने डाकिए लाला दुलारेलाल के हाथ चैत्र सुदी संवत्सर 1914 (जून, सन् 1857) को बांदा के नवाब अली बहादुर को राखी के साथ जो चिट्ठी भेजी थी, वो ठेठ बुंदेली भाषा मे लिखी हुई थी और उस चिट्ठी में लिखा था कि- "हमारी राय है कै विदेसियों का सासन भारत पर न भओ चाहिजे और हमको अपुन कौ बड़ौ भरोसौ है और हम फौज की तैयारी कर रहे हैं शो अंगरेजन से लड़वौ बहुत जरूरी है पाती समाचार देवै में आवे" । बुंदेली ने ये भी लिखा कि यह पत्र कलम और स्याही से लिखा प्रतीत होता है, इसमें न तो कोई विराम है और न ही शब्दों में जगह छूटी है।
बहरहाल, पत्र और राखी मिलते ही नवाब अली बहादुर अपनी दस हजार सैनिकों की फौज लेकर बहन की रक्षा हेतु झांसी कूच कर गए थे, मगर नवाब के पहुंचने से पूर्व रानी किले से कूद कर कालपी की ओर निकल गईं थीं। नवाब और फिरंगी सेना में भीषण संग्राम हुआ था, भारी तादाद में अंग्रेजी सैनिक मारे गए थे।" उधर बांदा में भी फिरंगियों ने बांदा के 3000 सैनिकों को शहीद कर दिया था। जिनकी लाशें पेड़ों पर लटका दी गई थीं। कालपी में नवाब साहब, तात्या टोपे और रानी झांसी की सेनाएं एक हुईं। इतिहास में दर्ज है कि नवाब अली बहादुर की दस हज़ार की सेना ने इस जंग के क्रांतिकारी सैनिकों में जान फूंक दी थी। ये सभी लोग मिल कर ग्वालियर पहुंचे, जहां से जयाजी राव सिंधिया भाग निकला था और आगरा में अंग्रेज़ों की पनाह में चला गया था। तात्या टोपे भी उसके पीछे-पीछे निकल गए और धौलपुर में अंग्रेजों और धौलपुर नरेश की सेना से तात्या टोपे का जबरदस्त संघर्ष हुआ। इधर रानी झाँसी और नवाब बांदा अली बहादुर ने ग्वालियर के सैनिकों को अपने साथ मिला लिया और ग्वालियर के किले पर क़ब्ज़ा कर लिया। रानी को किले पर बैठा कर नवाब साहब अपनी फ़ौज लेकर तात्या टोपे की दिशा में निकल गए, लेकिन उन्हें ख़बर नहीं थी, कि धौलपुर में तात्या को उलझा कर रखना अंग्रेजों के एक चाल थी।
इसी चाल के तहत ग्वालियर में अंग्रेज़ों की एक दूसरी और कहीं बड़ी टुकड़ी ने रानी झांसी पर आक्रमण कर दिया, जहां वे बहुत बहादुरी से लड़ीं और वीर गति को प्राप्त हुईं। उधर धौलपुर में तात्या को नाना साहब का बुलावा आ गया था जो अवध से अंग्रेजों को पीटते हुए, फिर बिठूर आ गए थे और बिठूर के किले पर क़ब्ज़ा कर लिया था। तात्या बिठूर निकल गए और नवाब साहब ग्वालियर पहुंचे, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की शहादत से उन्हें बहुत धक्का लगा था।
उस वक़्त के कुछ इतिहासकारों ने लिखा था कि रानी लक्ष्मी बाई की चिता को अग्नि उनके राखी भाई नवाब श्रीमंत अली बहादुर ने ही साधू के भेस में दी थी और उनके वंशज भी ये बातें अपनी पीढ़ियों से सुनते आ रहे हैं। इस बात का ओथेन्टिक प्रूफ खोज निकालने की कोशिशें जारी हैं। मिलते ही साझा करेंगे।
( नूह आलम )
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