कल मैंने सोचा भण पर चर्चा पूरी हो गई । आज आगे बढ़ना चाहा तो उसी शब्द ने रास्ता रोक लिया, “तुमने वणिक की बात की और बनिए को छोड़ दिया।”
कौरवी का वणिक पूर्वी में आया तो बनिया बन गया । मतलब तो यहां भी बांटने वाले से ही था। परदेस का माल लाकर देश में बांटने वाले कौरवी के वणिक को पूरबी में बनिक होना चाहिए था, पर पूरबी को पच्छिम का प्रत्यय ‘इक’ भी स्वीकार नहीं था। उसका अपना प्रत्यय ‘इया’ उसे इतना प्रिय था जहाँ इसके बिना काम चल सकता था, वहाँ भी लगा दिया करता था- राह>रहिया, चिरई> चिरइया - फिर वणिक को बनिया तो बनाना ही था।
कौरवी में बांटने के लिए वणन् होना चाहिए था, परंतु किसी दबाव में ‘ण’ अनुस्वार और अघोष ‘ट’ (ण्ट) में बदल गया, और वंटन बन गया। जिस तर्क से वण वर्ण = अलग करने वाला, अंतर प्रकट करने वाला बना था और वस्तुओं के रंग में अंतर को दिखाने के लिए प्रयोग में आने लगा था और फिर आगे चलकर ध्वनियों में अंतर को दिखाने के लिए प्रयोग में आया, उसी तर्क से इसका एक और रूप ‘वर्तन’ बना जिसमें तालव्य ‘न’ के सटे पास की (आसन्न) ध्वनि के प्रभाव से ‘ट’ बदल कर ‘त’ हो गया। वंटन और वर्तन के पीछे कौरवी क्षेत्र में प्रभावशाली रूप में उपस्थित पूरबियों का हाथ रहा हो सकता है। वे संपदा पर अधिकार जमाए थे, अपनी भाषा को बचाए रखने के आग्रही थे, पर संख्या में स्थानीय आबादी से कम होने के कारण उन परिवर्तनों को रोक पाने में असमर्थ थे, जिनको संस्कृतीकरण का पहला चरण कहा जा सकता है।
पूरबी प्रभाव में वंटन बाँटल बना जिसे कौरवी के -न/-इन प्रत्यय की तुलना में अपना -ल/-इल पसंद था। इसी तरह वर्तन - बरतल बना परंतु जिस साधन से तुला का आविष्कार होने से पहले शुष्क और द्रव दोनों को बाँटने का काम किया जाता था, उसका विकास कौरवी में हुआ था। यह पूरबी में कौरवी से लौटकर आया हुआ शब्द था।
भोजपुरी में बर्तन के लिए /बसना’/ ‘बासन’ का प्रयोग होता था। ‘बस’ का अर्थ था कोई चीज इसी को कौ. में वस्तु बनाया गया। कौरवी में य, र, व प्रेम इतना था कि यह उच्चारण को सुकर मनाने के लिए इनका अंतः-प्रत्यय के रूप में समावेश कर लेती थी, अतः पूरबी का ब>व हो गया और सभ्यता के उत्थान के साथ, इसके अर्थोत्कर्ष से प्रभावशाली शब्दावली का विकास हुआ।
बस का किसी चीज, किसी प्रकार के धन के लिए प्रयोग होता था, इसका अवशेष ऋग्वेद (वसां राजानं-ऋ.5.2.6, सभी संपदाओं के राजा को) में बचा रह गया है - यही ‘वस्तु’ का जनक बना। लेन-देन (exchange) मे उस चीज के बदले (मोल) में जो चीज दी जाती थी उसे भी ‘बसन‘ (ऋ. वस्न - मोल जो फा. में पहुँच कर वजन - अर्थात तौल - ‘उसकी बराबरी का’ - बन गया) ।
वह आधान जिसमें वस्तुएँ समेटी या रखी जा सके, बसना/ बासन = वर्तन>बरतन के रूप में भो. में प्रयोग में आता है, परंतु वर्तन और बसना में अर्थ उल्टा है। पूर्व से नए कछारों की तलाश में पश्चिम की ओर बढ़ते हुए कौरवी क्षेत्र में पहुँचने वाले जीवन यापन से आगे नहीं बढ़ पाए थे, इसलिए उनके लिए आधान या बासन समेटने सहेजने के लिए था, तोड़ने और विभाजित करने का भाव उसमें नहीं था, पर कुरु पांचाल से सिंध पर्यंत भूभाग में नगर सभ्यता, उद्योग, व्यापार का विकास हुआ इसलिए आधान (सोमधानी, सुराधानी, अपिधान) जैसे प्रयोग भी मिलते है , कोश (महान्तं कोशमुदचा नि षिञ्च) और क्रिवि (क्रिविर्न सेक आ गतं ) का उल्लेख है और पुरातत्व से इनके अनुरूप विशाल भंडारण पात्र भी पाए गए हैं, परंतु वर्तन पात्र से अधिक वितरण का मानक या माप का साधन बन गया था।
हड़प्पा के संदर्भ में ईंटों, बटखरों, स्नानागार और भांडागारों की माप तो की गई है परंतु मेरी सीमित जानकारी में एक तरह के पात्रों के आकार और मानक्रम का अध्ययन नहीं किया गया। इसका एक कारण यह है कि सभी पात्र टूटी-फूटी अवस्था में मिले और उनके सामने उनके सही टुकड़ों को तलाश कर पहले की शक्ल में ले आना ही प्रमुख चुनौती बनी रही न कि उनका मान और मानक्रम तय करना।
भोजपुरी में कोसा (कोश), तौला (तोला), भार (भर), भरुका जैसे प्रयोग, कुम्हार का पेशा तक, सभ्यता के प्रसार क्रम में कौरवी प्रेरित हैं, क्योंकि जिस चरण पर पूरब से पश्चिम की दिशा में प्रयाण किया उस समय तक वर्तन पकाने की कला किसी को मालूम ही न थी।
वस का प्रयोग पहनावे के लिए भी होता था जिसे ‘बसन’ में देखा जा सकता है। इसी का प्रयोग घोसले (वृक्षे न वसतिं वयः ।। ऋ.10.127.4)। आवृत करने, घेरने के आशय के प्रभाव से वस का दूसरा रूप ‘वसु’ - खनिज संपदा बन गया और खनिज पदार्थों का दैवीकरण वसुओं (वसवः) और वसुगण में हुआ। संभव है फा. ‘वसूली’ वस/वसु से ही व्युत्पन्न हो। अपनी क्षत्रछाया मे रखने या शरण (वसतिं जनानाम्, ऋ.5.2.6 - जनता के शरणदाता) और फिर बस्ती के लिए और नि-वास ‘बासा’ के लिए हुआ। बस > वस >वस्तु > वास्तविकता, वास्तु, वास्तुकार/-कला, -कृति; >वास - बसन, वासोवाय- बुनकर, >वस्त्र, बस> अलं/ बेसी= बहुत> बां. बेश = बहुत, अच्छा आदि पर ध्यान दें।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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