Tuesday, 10 November 2020

अर्नब गोस्वामी का मामला और अभिव्यक्ति की आज़ादी / विजय शंकर सिंह

अर्नब गोस्वामी के मामले में ताजी खबर यह है कि 9 नवंबर को बॉम्बे हाईकोर्ट ने अंतरिम जमानत की उनकी अर्जी खारिज कर दी है, और उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील की जिसकी आज 11 नवम्बर को सुनवाई हुयी। सुप्रीम कोर्ट ने अर्नब गोस्वामी और एक अन्य सह अभियुक्त को अंतरिम जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया है। अदालत ने कहा है कि निजी आज़ादी का सम्मान किया जाना चाहिए। नियमित जमानत की सुनवायी कल सेशन कोर्ट में होगी। यह अंतरिम राहत है। सेशन से भी जमानत हो ही जाएगी, क्योंकि 306 आइपीसी में जमानत हो ही जाती है। 

अर्णब गोस्वामी की अर्जी पर, सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निजी स्वतंत्रता के सिद्धांत को प्राथमिकता दी। यह एक अच्छा दृष्टिकोण है और इसे सभी के लिये समान रूप से लागू किया जाना चाहिए। राज्य को किसी भी नागरिक को प्रताड़ित करने का अधिकार नही है। पर यह चिंता सेलेक्टिव नही होनी चाहिए। 

अंतरिम जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 
" अगर राज्य सरकारें व्यक्तियों को टारगेट करती हैं, तो उन्हें पता होना चाहिए कि नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए शीर्ष अदालत है। हमारा लोकतंत्र असाधारण रूप से लचीला है, महाराष्ट्र सरकार को इस सब (अर्नब के टीवी पर ताने) को नजरअंदाज करना चाहिए।" 
सुनवाई के दौरान जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह भी कहा, 
" यदि हम एक संवैधानिक न्यायालय के रूप में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा नहीं करेंगे, तो कौन करेगा?... अगर कोई राज्य किसी व्यक्ति को जानबूझकर टारगेट करता है, तो एक मजबूत संदेश देने की आवश्यकता है।" 

भले ही अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी उनके निजी व्यायसायिक लेनदेन के कारण महाराष्ट्र की रायगढ़ पुलिस द्वारा की गयी हो, पर इस गिरफ्तारी का सबसे प्रबल विरोध भाजपा द्वारा किया गया और चूंकि अर्नब गोस्वामी एक बड़े और महत्वपूर्ण पत्रकार हैं औऱ उनकी पत्रकारिता की लाइन सत्ता समर्थक है तो, इस गिरफ्तारी को अभिव्यक्ति की आज़ादी या प्रेस की आज़ादी पर महाराष्ट्र सरकार का हमला कह कर प्रचारित किया जा रहा है । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहे वह किसी व्यक्ति की हो या समाज की या प्रेस की, यह किसी भी लोकतंत्र का बुनियादी उसूल है और इसके बिना न तो लोकतंत्र की कल्पना की जा सकती है और न ही लोककल्याणकारी राज्य की तो, राज्य का उद्देश्य और दायित्व है कि वह इसे बनाये रखे औऱ जनता का कर्तव्य है कि वह अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहे। सच तो यह है कि, जन अभिव्यक्ति के आज़ादी की राह,  प्रेस की अभिव्यक्ति की आज़ादी के ही भरोसे सुरक्षित रह सकती है। पर इसके लिये आवश्यक है कि प्रेस जनपक्षधर पत्रकारिता की ओर हो। अर्नब के इस मुकदमे के ज़रिए अगर अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बहस छिड़ती है तो उसका समर्थन किया जाना चाहिए, पर यह बहस सेलेक्टिव न हो और दलगत स्वार्थ से परे हो, इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिये। 

अब यह सवाल उठता है कि आज जो लोग अभिव्यक्ति और प्रेस की आज़ादी की बात उठा रहे हैं, वह केवल अर्नब गोस्वामी के पक्ष में उठा रहे हैं या भारत के विभिन्न राज्यो में प्रेस और पत्रकारो के जो उत्पीड़न पिछले सालों में हुए हैं या अब भी हो रहे हैं, के प्रति भी उनका आक्रोश है ? कम से कम 20 घटनाएं तो सरकार विरोधी खबर छापने पर यूपी में पत्रकारों के खिलाफ ही हुयी है। छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात आदि अन्य राज्यों से भी ऐसी खबरें आ रही है। सरकार कोई भी हो अपनी आलोचना से तिलमिलाती ज़रूर है। बस सरकार इन सब पर रिएक्ट कितना, कैसे और कब करती है यह तो सरकार की सहनशक्ति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति उसके कमिटमेंट पर निर्भर करता है। 

अर्नब गोस्वामी का यह मामला, प्रथम दृष्टया, न तो पत्रकारिता के मूल्यों से जुड़ा है और न ही अभिव्यक्ति की आज़ादी का है। यह मामला, काम कराकर, किसी का पैसा दबा लेने से जुड़ा है। यह दबंगई और अपनी हैसियत के दुरुपयोग का मामला है। जब आदमी सत्ता से जुड़ जाता है तो वह अक्सर बेअन्दाज़ भी हो जाता है, और यह बेअंदाज़ी, एक प्रकार की कमजरफियत भी होती है। अर्नब भी सत्ता के इसी हनक के शिकार हैं। ऐसे बेअंदाज़ लोग, यह सोच भी नहीं पाते कि धरती घूमती रहती है और सूरज डूबता भी है। वे अपने और अपने सरपरस्तों के आभा मंडल में इतने इतराये रहते हैं कि उनकी आंखे चुंधिया सी जाती है और रोशनी के पार जो अंधकार है, उसे देख भी नहीं पाती हैं। 

आज अर्नब एक महत्वपूर्ण पत्रकार है। पर वे अपनी पत्रकारिता की एक विचित्र शैली के कारण खबरों में हैं, न कि पत्रकारिता के मूल उद्देश्य और चरित्र के कारण। उनकी शैली व्यक्तिगत हमले और वह भी तथ्यो पर कम, निजी बातों पर अधिक करने की है। रिपब्लिक टीवी हिंदी, जिसके वे चीफ एडिटर हैं, का पहला ही एपिसोड शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर की संदिग्ध मृत्यु के बारे में था। इसी प्रकार जब वे पालघर भीड़ हिंसा मामले में, सोनिया गांधी पर निजी टिप्पणी कर के, सत्तारूढ़ दल से शाबाशी बटोर रहे थे, तब उसी क्रम में उनके खिलाफ विभिन्न स्थानों पर मुक़दमे दर्ज हुए। तब भी प्रेस की आज़ादी पर बहस उठी थी। इस मामले में उन्हें राहत भी सुप्रीम कोर्ट से मिली। अर्नब के इस संकटकाल में जिस तरह से भारत सरकार उनके पक्ष में खड़ी है, यही इस बात का प्रमाण है कि, वे सत्ता के बेहद नज़दीक हैं। 

पालघर भीड़हिंसा रिपोर्टिंग के बाद ही उनके सम्बंध महाराष्ट्र राज्य सरकार से असहज हो गए। तभी अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या की घटना हो गयी। यह एक संदिग्ध मृत्यु की घटना थी, जिसकी जांच मुम्बई पुलिस कर रही थी, तभी पटना में सुशांत के पिता ने उनकी हत्या की आशंका को लेकर एक मुकदमा दर्ज करा दिया जो विवेचना के लिये सीबीआई को बाद में भेज दिया गया । सीबीआई ने जांच की, और अब यह निष्कर्ष निकल कर सामने आ रहा है कि घटना आत्महत्या की ही थी। इसी में सुशांत की मित्र रिया चक्रवर्ती जो एक अभिनेत्री है, पर अर्नब गोस्वामी ने अपनी रिपोर्टिंग का पूरा फोकस कर दिया और लगभग रोज ही वे यह साबित करते रहे कि सुशांत ने आत्महत्या नहीं की है बल्कि उनकी हत्या हुयी है और इसमे रिया का हांथ है। रिया इस मामले में महीने  भर जेल में भी रहीं।

यह खबर सीरीज यदि आपने देखी होगी तो आप को स्वतः लगा होगा कि, यह खबर सुशांत की आत्महत्या के बारे में कम, बल्कि हर तरह से रिया को उनकी हत्या का दोषी ठहराने के लिये जानबूझकर कर किसी अन्य उद्देश्य की आड़ में चलायी जा रही है। इसी बीच इस मामले में उद्धव ठाकरे के पुत्र आदित्य ठाकरे का भी नाम आया। जब यह नाम आया तो अर्नब की खटास महाराष्ट्र सरकार से और बढ़ गयी और यह मामला अब प्रेस और सरकार के आपसी संबंधों तक ही सीमित नही रहा। उधर  केंद्र सरकार  और उद्धव सरकार के रिश्ते अच्छे नहीं है। राजनीतिक रस्साकशी तो है ही पर अर्नब इस रस्साकशी में एक मोहरा बन कर सामने आ गए। अब यह भूमिका उन्होंने, सायास चुनी या अनायास ही परिस्थितियां ऐसी बनती गयी कि वे औऱ महाराष्ट्र सरकार बिल्कुल आमने सामने हो गए, यह तो अर्नब ही बता पाएंगे। 

भाजपा, अर्नब गोस्वामी के साथ आज खुल कर है। अर्नब और भाजपा में जो वैचारिक साझापन है, उसे देखते हुए भाजपा के इस रवैये पर किसी को आश्चर्य नही होना चाहिए। अर्नब की पत्रकारिता सरकार और सत्तारूढ़ दल की पक्षधर है। यह कोई आपत्तिजनक बात नही है। पक्ष चुनने का अधिकार अर्नब को भी उतना ही है जितना मुझे या किसी अन्य को। अर्नब ने उनके लिये इतनी चीख पुकार मचाई और एजेंडे तय किये हैं तो, उनका भी यह फ़र्ज़ बनता है कि वे अर्नब के पक्ष में खड़े हों। और वे खड़े हैं भी ।

लेकिन आश्चर्य यह है कि नैतिकता और चारित्रिक शुचिता को अपने एजेंडे में सबसे ऊपर रखने वाले भाजपा के मित्र आखिर किस मजबूरी में, कठुआ रेप कांड से लेकर, शंभु रैगर, आसाराम, हाथरस गैंगरेप, बलिया के हालिया हत्याकांड सहित अन्य बहुत से ऐसे मामले हैं जिनमे वे अभियुक्तों के साथ, पूरी गर्मजोशी से खुल कर उनके समर्थन में आ जाते हैं ? राष्ट्रवादी होने और हिंदुत्व की ध्वजा फहराने के लिये यह ज़रूरी तो नहीं कि जघन्य अपराधों के अभियुक्तों के साथ उनके समर्थन में बेशर्मी से एकजुटता दिखाई जाय ? आज अगर वे, पत्रकारिता की आड़ में, अन्वय नायक का  पैसा दबाने वाले अर्नब के पक्ष में खड़े हैं तो आश्चर्य किस बात का है ? यह उनका चाल, चरित्र और चेहरा है या पार्टी विद अ डिफरेंस की परिभाषा ? जो लोग अर्नब के पक्ष में खड़े हैं, वे अर्नब गोस्वामी से कहें कि टीवी पर बैठ कर, कहां हो उद्धव, सामने आओ, दो दो हांथ करूँगा, कहाँ हो परमवीर। महाराष्ट्र पुलिस के लोग अपने कमिश्नर से नाराज़ है, जैसे प्रलाप औऱ कुछ भले हो, पर यह पत्रकारिता तो कहीं से भी नही है। 

अर्नब ने यह खबर चलाई कि मुंबई पुलिस कमिश्नर के खिलाफ मुम्बई पुलिस में असंतोष है। पुलिस बल में असंतोष पैदा करने के सम्बंध में 1922 से एक कानून है, कि जो कोई भी जानबूझकर पुलिस बल में असंतोष फैलाने की कोशिश करेगा वह दंडित किया जाएगा। यह कानून, द पुलिस ( इंसाइटमेंट टू दिसफ़ेक्शन ) एक्ट 1922 कहलाता है। इस कानून में महाराष्ट्र सरकार ने 1983 में संशोधन कर इसे और प्रभावी बनाया है। दोषी पाए जाने पर तीन साल की अधिकतम और 6 माह के कारावास की न्यूनतम सज़ा तथा अर्थदंड का प्राविधान है। अर्नब पर इसी कानून की धारा 3 के अंतर्गत एक मुकदमा दर्ज है। अभी इस मुकदमे की तफ्तीश चल रही है। पुलिस या किसी भी सुरक्षा बल, सेना सहित सभी बलो में असंतोष को कोई भी सरकार बेहद गम्भीरता से लेती है क्योंकि इसके दूरगामी परिणाम होते हैं।

लेकिन अर्नब गोस्वामी के इस मामले में, पत्रकारिता के तमाम नैतिक मूल्यों और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बहस तो हो रही है पर इस पर कोई बात नहीं कर रहा है कि अन्वय नाइक के बिल का भुगतान हुआ था या नहीं ? 2018 में पुलिस ने इस केस में फाइनल रिपोर्ट लगा दी थी। हो सकता है तब सुबूत न मिले हों या सुबूतों को ढूंढा ही नहीं गया हो, या सुबूतों की अनदेखी कर दी गयी हो, या हर हालत में अर्नब गोस्वामी के पक्ष में ही इस मुकदमे को खत्म करने का कोई दबाव रहा हो। महत्वपूर्ण लोगो से जुडे मामलो मे, समय, परिस्थितियों और उनके संपर्को के अनुसार, मामले को निपटाने का दबाव पुलिस पर पड़ता रहता है और यह असामान्य भी नही है। अर्नब एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं ही, इसमे तो कोई सन्देह नही है। तो क्या कल जब  महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार थी तो, सरकार का दबाव, पुलिस पर, अर्नब के पक्ष में, मुकदमा निपटाने और फाइनल रिपोर्ट लगाने के लिये नहीं पड़ा होगा ? अब इस मामले की भी जांच चल रही है कि केस बंद कैसे किया गया। 

अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी पर गृहमंत्री अमित शाह सहित कुछ और मंत्री तथा भाजपा के नेता अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त रहे हैं। सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावेडकर ने इस गिरफ्तारी को इमरजेंसी कहा है। गृहमंत्री जी को चाहिए कि, वे देशभर की सभी राज्य और केंद्र शासित राज्यों से यह सूचना मँगाये कि उनके राज्यों में कितने पत्रकारो के खिलाफ राज्य सरकार ने मुकदमे दर्ज किए हैं और किन मामलो में  कितने पत्रकार जेलों में हैं। यह सूचना सार्वजनिक की जानी चाहिए। 

अगर हम अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात करें तो हमे यह भी जान लेना चाहिए कि, भीमा कोरेगांव मामले में, नागरिक अधिकारों के प्रति सचेत रहने वाली सुधा भारद्वाज, कवि वरवर राव सहित कई प्रतिष्ठित नागरिक सामान्य कैदियों की तरह उसी जेल में बंद हैं जिंसमे 8 नवंबर को अर्नब को भेजा गया है। भीमा कोरेगांव मामले में गिरफ्तार 83 साल के स्टेन स्वामी पार्किंसन रोग से ग्रस्त हैं, और अपनी बीमारी के कारण खुले बर्तन से तरल पदार्थ नहीं पी सकते हैं। इसके लिए उन्हें स्ट्रॉ या सिपर की जरूरत होती है और अपने साथ ले गए बैग में उनका यह जरूरी सामान भी था। एक तरफ तो उन्हें उनका बैग नहीं दिया गया और इतने दिनों बाद उन्हें इसके लिए अदालत की शरण लेनी पड़ी और एनआईए ने इसके लिए कई दिन का समय मांग लिया। 

ऐसा ही एक मामला है गुजरात कैडर के आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट का। संजीव, 30 अक्टूबर 1990 में हुयी, हिरासत में मृत्यु के एक मामले में उम्र कैद की सज़ा भुगत रहे है। इस समय वे नशा रखने के एक अलग मामले में भी जेल में हैं जो 1996 का है। दोनों मामले तब खुले जब संजीव भट्ट ने 2011 में गुजरात के उस समय के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की भूमिका के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में शपथपत्र दाखिल किया। इसके बाद अगस्त 2015 में उन्हें आईपीएस से निकाल दिया गया था। कार्रवाई 2011 में ही शुरू हुई थी। 

केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन को तीन अन्य के साथ दिल्ली से हाथरस गैंगरेप मामला कवर करने जाते हुए गिरफ्तार किया गया था। उसे अभी तक जमानत नहीं मिली है। बाद में उन पर यूएपीए लगा दिया गया। फिर उन्हें हाथरस साजिश मामले में भी अभियुक्त बना दिया गया। वकीलों को उनसे मिलने नहीं दिया गया। इन पत्रकारों के परिवार को इनकी गिरफ्तारी की सूचना नहीं थी। केरल के पत्रकारों की यूनियन ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर मांग की है कि उनकी जमानत याचिका पर जल्दी सुनवाई की जाए। इसपर शुक्रवार छह नवंबर को सुनवाई होनी थी। अब 16 नवंबर की तारीख पड़ी है। 

यह सब उदाहरण यह साबित करते हैं कि सरकारें अपने विरोध और आलोचना पर असहज होती हैं और जब वे प्रतिशोध लेने पर आ जाती हैं तो लेती भी है। लेकिन अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात पर, केंद सरकार के मंत्री विरोध करेंगे तो वे सारे ट्वीट अर्नब के पक्ष में करेंगे न कि इन महानुभावों के लिये। जम्मू कश्मीर में लंबे समय से ही पत्रकारों का उत्पीड़न हो रहा है। वहां के नागरिकों की कई बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकायें जेके हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। पर इनके बारे में अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिये सचेत रहने वाला मीडिया और पत्रकारों के संगठन न तो बोलेंगे और नही इनकी व्यथा पर कोई चर्चा अपने कार्यक्रमों में करेंगे।  अभिव्यक्ति की आज़ादी राजनीतिक दलों के लिये एक सेलेक्टिव दृष्टिकोण हो सकता है क्योंकि वे पक्ष और विपक्ष, अपने एजेंडे के अनुसार तय करते हैं, पर यह दृष्टिकोण मीडिया का तो नहीं ही होना चाहिए। 

अब एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है, अभिव्यक्ति की आज़ादी, प्रेस और पुलिस के आपसी तालमेल का। एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया या पत्रकारों के संगठनो को अभिव्यक्ति की आज़ादी बनाये रखने का पूरा अधिकार है और यह उनका दायित्व भी है। इन संगठनों को चाहिए कि केवल खबर छापने पर कितने पत्रकार सरकारों द्वारा प्रताड़ित किये गए है, का आंकड़ा भी जारी करे।आज अर्नब की गिरफ्तारी की वे भी निंदा कर रहे हैं जिनकी सरकार ने खबर छापने पर छोटे छोटे पत्रकारों को उत्पीड़ित किया है और उन्हें मुकदमे दर्ज कर जेल भेजा है। 

अभिव्यक्ति की आजादी भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकारों में से एक है। दुनिया भर के कई देश अपने नागरिकों को उनके विचारों और सोच को साझा करने तथा उन्हें सशक्त बनाने के लिए अभिव्यक्ति की आजादी की अनुमति देते हैं। भारत सरकार और अन्य कई देश अपने नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी प्रदान करते हैं। ऐसा विशेष रूप से जहाँ-जहाँ लोकतांत्रिक सरकार है उन देशों में है।दुनिया भर के अधिकांश देशों के नागरिकों को दिए गए मूल अधिकारों में अभिव्यक्ति की आजादी शामिल है। यह अधिकार उन देशों में रहने वाले लोगों को कानून द्वारा दंडित होने के डर के बिना अपने मन की बात करने के लिए सक्षम बनाता है।

अभिव्यक्ति की आजादी की अवधारणा बहुत पहले ही उत्पन्न हुई थी। इंग्लैंड ने 1689 में संवैधानिक अधिकार के रूप में अभिव्यक्ति की आजादी को अपनाया था और हमारे संविधान में आयी यह अवधारणा वहीं से आयी है। 1789 की फ्रेंच क्रांति ने मनुष्य और नागरिकों के अधिकारों की घोषणा को एक मजबूत वैधानिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया। अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति की घोषणा के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण कथन  यह है, 
"सोच और विचारों का नि:शुल्क संचार मनुष्य के अधिकारों में सबसे अधिक मूल्यवान है। हर नागरिक तदनुसार स्वतंत्रता के साथ बोल सकता है, लिख सकता है तथा अपने शब्द छाप सकता है लेकिन इस स्वतंत्रता के दुरुपयोग के लिए भी वह उसी तरह जिम्मेदार होगा जैसा कि कानून द्वारा परिभाषित किया गया है"।

मानवाधिकार, नागरिक अधिकार और अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसे शब्द जितने मोहक और आशा बंधाते हैं उतनी ही दुनियाभर की सरकारों को असहज भी करते हैं। लेकिन इन सारी असहजता के बीच जनहित के मुद्दे क्यों औऱ किस तरह उठाये जांय, इसे भी देखना पत्रकार जमात का ही दायित्व है। 2014 के बाद भारतीय मीडिया के लिये एक शब्द प्रयोग किया जा रहा है गोदी मीडिया। यानी ऐसा मीडिया जो सत्ता या सरकार की गोद मे बैठा हो और 'जो तुमको हो पसंद, वही बात करेंगे: की तर्ज पर पत्रकारिता करता हो। जब सरकार अनुकूल संगीत सुनने के नशे में आ जाती है तो वह आपनी सारी आलोचना और निंदा के प्रति, ऐसा ही दृष्टिकोण अपना लेती है जैसा कि एक प्रसिद्ध फ़िल्मी गीत में कहा गया है, तुम किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी। यह मुश्किल भी ऐसा नही है कि केवल केंद्र की मोदी सरकार को हो रही है, बल्कि यह, रवैया देश की हर सरकारोँ में कमोबेश मिलेगा। 

क्राइम रिपोर्टिंग को लेकर पुलिस का प्रेस से टकराव अक्सर होता रहता है। पर जिस तरह से सुशांत केस में, हमे चाहिए 302,   बोलो भंडारी 302 और रिया के ड्रग मामले में ड्रग दो ड्रग दो, और मुम्बई पुलिस कमिश्नर की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद , कहाँ हो परमवीर, और मुख्यमंत्री को ललकारते हुए, कहाँ हो उद्धव आदि आदि बातें कही गई, यह किस तरह की क्राइम रिपोर्टिंग है यह मैं बिल्कुल भी नही समझ पा रहा हूँ। अर्नब गोस्वामी की प्रलाप भरी पत्रकारिता और एंकरिंग पर मुम्बई हाईकोर्ट को यह तक कहना पड़ा कि आप ही, पुलिस, जज सब बन जाएंगे तो हम यहां किस लिए बैठे है। यह एक गंभीर टिप्पणी हैं न केवल अर्नब गोस्वामी के लिये बल्कि उन सब के लिये भी जो ऐसी प्रलाप भरी पत्रकारिता और चीख पुकार भरी एंकरिंग आदी हो रहे है। एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया को पत्रकारिता के इस बदले स्वरूप पर भी ध्यान देना चाहिए। 

मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा 10 दिसम्बर, 1948 को की गयी थी। इस घोषणा के अंतर्गत यह बताया गया है कि हर किसी को अपने विचारों और राय को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति की आजादी एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के आधार के रूप में जानी जाती है। अगर निर्वाचित सरकार शुरू में स्थापित मानकों के अनुसार अपना दायित्व नहीं निभा रही है और नागरिकों को इससे सम्बंधित मुद्दों पर अपनी राय देने का अधिकार नहीं है तो, ऐसी सरकार और कुछ भले ही हो, वह लोकतांत्रिक सरकार तो नहीं ही है। इसी लिये, लोकतांत्रिक राष्ट्रों में अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार एक अनिवार्य  अधिकार है जो लोकतंत्र का मूल आधार है। अभिव्यक्ति की आजादी लोगों को अपने विचारों को साझा करने और समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने की शक्ति प्रदान करती है। लेकिन पत्रकार हो या कोई भी नागरिक, वह देश के कानून के ऊपर नही है। उसके किसी कृत्य से कोई अपराध हुआ है तो उससे निपटने के क़ानून के जो कायदे कानून हैं, वह सब पर लागू है। 

( विजय शंकर सिंह )

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