यूं ही हमेशा उलझती रही है,
ज़ुल्म से खल्क,
न उनकी रस्म नयी है,
न अपनी रीत नयी,
यू ही हमेशा, खिलाये हैं हमने
आग में फूल,
न उनकी हार नयी है,
न अपनी जीत नयी !!
मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब की यह कालजयी पंक्तियां, आज भी प्रासंगिक हैं और कभी भी कालबाधित नहीं होंगी।
किसानों का एक मार्च कुछ सालों पहले मुंबई में भी हुआ था। नासिक से पैदल चल कर किसानों का हुजूम अपनी बात कहने मुम्बई शहर में गया था। सरकार तब भाजपा शिवसेना की थी। मुख्यमंत्री थे देवेंद्र फडणवीस। जब यह मार्च शांतिपूर्ण तरह से अपनी बात कहने के लिये मुम्बई की सीमा में पहुंचा तो मुम्बई ने उनका स्वागत किया। उन्हें खाना पीना उपलब्ध कराए। उन्हें देशद्रोही नही कहा। उनकी बात सुनी। कुछ न कुछ उन बातों पर गौर करने के आश्वासन दिए। यह बात अलग है कि जब तक यह हुजूम रहा, सरकार आश्वासन देती रही। हम सबने पैदल चले हुए कटे फटे तलवो की फ़ोटो देखी थी। यह आंदोलन किसी कृषि कानून के खिलाफ नही था। यह आंदोलन था, किसानों की अनेक समस्याओं के बारे में, जिसमे, एमएसपी की बात थी, बिचौलियों से मुक्ति की बात थी, बिजली की बात थी, किसानों को दिए गए ऋण माफी की बात थी और बात थी, फसल बीमा में व्याप्त विसंगतियों की।
सरकार ने उन समस्याओं के बारे में बहुत कुछ नही किया, वचनं कि दरिद्रता ! कुछ कहा तो ! कुछ सुना तो ! पर आज जब तीनो कृषि कानूनों के खिलाफ देश भर के किसान लामबंद हैं तो कहा जा रहा है कि वे भटकाये हुए लोग है। भड़काया गया है उन्हें। कुछ खालिस्तानी भी उन्हें कह रहे हैं। कुछ तो देशद्रोही के खिताब से भी नवाज़ रहे हैं। सरकार एक तरफ तो कह रही है कि यह सभी कृषि कानून सरकार ने, किसानों के हित के लिये लागू किये हैं, पर इनसे किस प्रकार से किसानों का हित होगा, यह आज तक वह बता नहीं पा रही है। सरकारी खरीद कम करते जाने, मंडी में कॉरपोरेट को घुसपैठ करा देने, जमाखोरों को जमाखोरी की छूट दे देने, बिजली सेक्टर में जनविरोधी कानून बना देने से, किसानों का कौन सा हित होगा, कम से कम यही सरकार बना दे !
आज जब किसानों के जत्थे दर जत्थे, दिल्ली सरकार को अपनी बात सुनाने के लिये शांतिपूर्ण ढंग से जा रहे हैं तो, उन को बैरिकेडिंग लगा कर रोका जा रहा है, पानी की तोपें चलाई जा रही है, सड़के बंद कर दी जा रही है, और सरकार न तो उनकी बात सुन रही है और न सुना रही है। छह साल से लगातार मन की बात सुनाने वाली सरकार, कम से कम एक बार किसानों, मजदूरों, बेरोजगार युवाओं, और शोषित वंचितों की तो बात सुने। सरकार अपनी भी मुश्किलें बताएं, उनकी भी दिक्कतें समझे, और एक राह तो निकाले। पर यहां तो एक ऐसा माहौल बना दिया गया है कि, जो अपनी बात कहने के लिये खड़ा होगा, उसे देशद्रोही कहा जायेगा। अगर यही स्थिति रही तो सरकार की नज़र मे, लगभग सभी मुखर नागरिक, देशद्रोही ही समझ लिए जाएंगे।
( विजय शंकर सिंह )
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