Tuesday, 24 November 2020

शब्दवेध (25) वण, वणिक और बनिया.

किसी भाषा की समग्र संपदा का अनुमान करना लगभग असंभव है यदि उसमें लिखित समस्त साहित्य, उसके समस्त कोष ग्रंथों को एकत्र कर लें  तो भी  उसका इतना बड़ा अंश  बाकी रह जाएगा जो संभव है हमारी संचित सामग्री से भी अधिक पड़े।  कारण,  भाषा  पूरे समाज की होती है और उसका समग्र किसी एक व्यक्ति, एक वर्ग या व्यक्तियों  और वर्गों के समूह के  पास नहीं हो सकता।[1]   एक ही व्यक्ति को  भाषा का जो ज्ञान है  उसका बहुत बड़ा अंश  उसकी  स्मृति में नहीं आ सकता।   इसलिए हम कितने भी प्रयत्न कर ले हमारे विवेचन से बहुत कुछ ऐसा छूट जाएगा जिसका भाषा की दृष्टि से बहुत अधिक महत्व है।

It is at once a social product of the faculty, of speech, and a collection of necessary conventions adopted by the social body to allow the exercise of this faculty by individuals. It is a whole in itself and a principle of classification. As soon as we give it the first place among the facts of speech we introduce a natural order in a whole which does not lend itself to any other classification." La langue is further "the sum of the verbal images stored up in all the individuals, a treasure deposited by the practice of speaking in the members of a given community; a grammatical system, virtually existing in each brain, or more exactly in the brains of a body of individuals; for la langue is not complete in any one of them, it exists in perfection only in the mass."  F. de Saussure, Cours de Linguisiique GénIrale, pp 23 31

जब हम वण/वणिक/बनिया  पर बात कर रहे थे  तो  उसके तोड़ने,  वितरित करने  वाले पक्ष पर हमारा ध्यान  इतना केंद्रित हो गया  कि  उसका जोड़ने, गढ़ने और जुटाने वाला पक्ष हमारी दृष्टि से  ओझल गया।  भाषा में  तोड़ने के लिए जो शब्द हैं  वे ही जोड़ने,  गढ़ने और बनाने के लिए  भी प्रयोग में आते हैं,  क्योंकि हम बिना किसी प्रयोजन के किसी चीज को  तोड़ते, काटते, तराशते  और घिसते नहीं हैं,  बल्कि  कुछ बनाने  और जोड़ने के लिए  यह कष्ट करते हैं।  बनना,  बनाना, बनावट - 1. निर्मिति; 2. कृत्रिमता;  बुनना, बुनावट,     बँधना,  बाँधना, बंधु,  वधू,  बंधन,  बंदा =   बंधा हुआ, लाचार,  समर्पित; वंदना (समर्पित भाव से निवेदन या याचना> वंदनीय, वन्द्य  आदि का भी  जनक  वही वण<>बन है। यदि इसे समझने में कठिनाई हो रही हो तो  आरती  अर्थात्   आर्त भाव से निवेदन पर ध्यान दे सकते हैं।   निवेदन के साथ  कामना की पूर्ति करने वाले  को प्रसन्न करने के लिए  पेश किए जाने वाले चढ़ावे  से ही  नैवेद्य का संबंध है और  निवेदन भी  वेदना का सम्यक प्रकाशन ही है। 
 
हमारे शिष्ट व्यवहार में  ऐसा बहुत कुछ है जिसे समादृत बना दिया गया है परन्तु वह आदिम अवस्था से आया हुआ है इसलिए जिसकी प्रकृति भिन्न थी; कुछ मामलों में अटपटा होते हुए भी आज की तुलना में अधिक तर्कसंगत भी थी।  भगवान भक्तों (भागीदारों) को उनके कर्म के अनुसार फल देता है।  पहले यह श्रम के अनुपात में था, व्यापारिक चरण पर लागत, जोखिम और श्रम  के अनुरूप और भाववादी चरण पर श्रद्धाभाव या निष्ठा के अनुसार। यह परिवर्तन किसी एक  क्षेत्र में नहीं हुआ था, ऐसा परिवर्तन सभी क्षेत्रों में हुआ। उनकी गिनती कराने चलें तो विषय विस्तार होगा।  फिर भी संक्षेप में यह उल्लेख जरूरी लगता है कि भगवान या,  धन का वितरण करने वाले (सनिता धनानां) के पास वह धन कहाँ से आता था, जिसका वह वितरण करता था।  समूह के लोग जो भी शिकार करते, फल-कंद एकत्र करते उसे   दल  के सरदार के पास जमा करते थे और उसी का वितरण वह करता था।  यह तरीका उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी तक अनेक पिछड़े समुदायों में तो प्रचलित था ही, इस्लाम में मध्यकाल तक चलन में था। सिपाहियों को विजय पाने के बाद विजित समाज को खुल कर लूटने का अधिकार था, जिसे वे राजा या उसके सुल्तान/ बादशाह को सौंपते थे और वह उसका कुछ (पाँचवाँ) भाग अपने पास रख कर बाकी उन्हें लौटा देता था।  

वैदिक काल में व्यापार वाणिज्य के दौर में विदेशों में जाने वाला माल बीच के पड़ावों और परिवहन की समस्या के कारण रास्ते में माल मिल जाता था और सभी का माल आपस में मिल गड्डमड्ड हो जाता था इसलिए भाग के देवता भग (अग्नि) के साक्ष्य में सभी को उनका हिस्सा मिलता था।  सभी को अपने उचित हिस्से (देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते, 10.191.2)  से संतोष करना होता था।  वितरण करने वाले नेता का भी अपना देवभाग होता रहा होगा।  आज भी मंदिर आदि के जो कुछ चढ़ाया जाता है उससे देवता का थोड़ा सा हिस्सा अपने पास रख कर शेष लौटा देता है।  

इसी तरह हमारे आचार में जो प्रशंसित चेष्टाएँ हैं वे युद्ध में समर्पण के प्रतीक हैं।  आज भी पराजित सेना अपने हथियार डाल कर, दोनों हाथ ऊपर उठा कर, श्वेत ध्वज फहरा कर संकेत भाषा में यह संदेश देती है कि हम पूरी तरह आप की शरण में हैं, आप हमारे साथ जैसा चाहें व्यवहार कर सकते हैं, हम प्रतिरोध नहीं करेंगे।

ठीक वही भाव करबद्ध (इस शब्द का प्रयोग आज भी होता है) प्रणाम ( नमन या झुकना कि अगला चाहे तो उसकी गर्दन भी काट सकता है।) यह भाव वीरासन में भी है, पर जानुपात और दंडवत में यह अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है।  हमारी तुलना में पश्चिम के अभिवादन में गरिमा अधिक है।  मुष्टिपीडन (महाभा.) समानता के साथ सुख-दुख में सहभागी होने की हार्दिकता का द्योतक है, यद्यपि भारोपीय संपर्क क्षेत्र में भारतीय अभिवादन का भी प्रसार हुआ था, इसका कुछ संकेत लातिन में भाषा में बचा रह गया लगता है:

Caput-...head, cacipit..- of the head, .. in compound the root appears as cipit...A precipitate person is head-long, precipitation of a chemical solution means certain part of it falls headlong to the bottom….Margaret Schlaugh, The Gift of Tongues, London, 1949 p. 85.

चरवाही पर निर्भर दबंग समुदायों में यह  चल नहीं पाया, जैसे वर्ण-व्यवस्था नहीं चल पाई जिसकी छाया प्राचीन ईरान, रोम, गॉथ सभी में लक्ष्य की गई है।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

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