Monday, 2 November 2020

शब्दवेध (9) भाषा परिदृश्य - 1.

हम ‘शब्द’ पर विचार करते हुए इस नतीजे पर पहुँचे थे कि “यह होठों से उत्पन्न ‘सप’ ध्वनि की नकल है, और इसका प्रयोग उन क्रियाओं - कथन, आर्द्र पदार्थ के ग्रहण- और  संज्ञाओ -साप/शाप, सूप, त. साप्पाडु, सापिडुगरेन, अं, सूप, सपर, आदि में देखने में आता है। 

इसका एक अन्य पक्ष रोचक है। यह है बोली से संस्कृत में बदलने और फिर बोली में बदलने का और संस्कृत में कुछ समय तक इसके एक नए अर्थ में प्रयोग में आने के बाद इसके लोप और बोली में बने रहने का लुका छिपी का खेल। 

पर इससे पहले हम भारत की शेष बोलियों से सारस्वत क्षेत्र की उस भाषा की भिन्न प्रकृति को समझ लें जिसके कारण न केवल पूरबी बोली का संस्कृतीकरण हुआ, बल्कि भारतीय भाषा परिदृश्य की वह समस्या पैदा हुई जिसकी व्याख्या के लिए आर्यों के दो आक्रमणों की अर्थात पहले आक्रमण से उत्तर भारत पर अधिकार जमा चुके आर्यों पर आर्यों के दूसरे आक्रमण की, मध्यदेश की आर्यभाषा और परिमंडल की भाषा (हार्नले और ग्रियर्सन) की अटकलबाजी की गई, परन्तु जिसका आधार ही गलत सिद्ध हुआ (चटर्जी ) क्योंकि जिस दिशा से इस दूसरे जत्थे के  प्रवेश करने की कल्पना की गई थी,  उसकी  बोलियाँ (दरद आदि) अधिक दूषित थीं। 

भारतीय भाषा परिदृश्य में बाँगड़ू  अकेली ऐसी बोली है जो व्यंजन प्रधान है,  जबकि दूसरी सभी बोलियां  स्वर-प्रधान है।  व्यंजन प्रधान भाषाओं की विशेषता वेग या त्वरा है और इसीलिए इनमें स्वरलोप की प्रवृत्ति तो पाई ही जाती है, अन्तस्थ (य,र, ल, व, स, त, द )का आगम (शब्द के अंत या मध्य में जोड़ कर नादसौंदर्य  पैदा करने का प्रयत्न देखने में आता है जिससे नई व्यंजनाएँ भी पैदा होती हैं (सत, सत्, सत्व, सत्य, श्रत्, श्रद्धा)। 

यद्यपि आज इसमें ऊष्म ध्वनियों के सभी रूप - श, ष, स - पाए जाते हैं, जिनमें ‘स’ इसकी ध्वनिसंपदा से मेल न खाता था और इसलिए इसके उच्चारण में काफी परेशानी होती थी जिसे स्, र्, श्,  विसर्ग (:), ओ आदि में परिवर्तित होना पड़ता था। राजवाडे ने किसी प्राचीन चरण पर उच्चारण की इस समस्या के पैदा होने की बात की है और यह पूरबी बोली के इस क्षेत्र में प्रवेश के समय की समस्या प्रतीत होती है। 

जिस संस्कृत (भारतीय) वर्णमाला से हम आज परिचित हैं उसमें किसी न किसी चरण पर सारस्वत क्षेत्र में पहुँचने वाली सभी बोलियों की ध्वनियों का समावेश है, परन्तु आरंभ में बाँगड़ू की ध्वनिमाला क्या थी या भोजपुरी, अवधी, बांग्ला आदि की वर्णमाला क्या थी इसका सही ज्ञान हमें नहीं है। किसी बोली में इन सभी ध्वनियों का उच्चारण नहीं होता।

 स्वयं वैदिक में तवर्गीय ध्वनियों की जगह टवर्गीय ध्वनियाँ थीे। अतः ऊष्म ध्वनियों में ‘ष’ की ध्वनि प्रधान रही लगती है जिसका प्रयोग विशेष स्थितियों में स-कार के लिए देखने में आता है (सोम/ अग्नीषोमा)। ऐसा तभी हो सकता है जब, नकार इसमें न रहा हो, जैसा आज भी बाँगड़ू मे है। पूरबी मे आग ‘अगन’ था, बाँगड़ू में ‘अग्णि’ बना, कुछ समय बाद स्थिरीकरण से अग्नि के स्थिर हुआ।  यदि इस नियम का विस्तार करें तो आरंभिक संक्रमणकालीन समस्या बहुत विचित्र दिखाई देगी। शकार और लकार का इसमें प्रवेश मागधी प्रभाव के कारण हुआ लगता है परंतु इसकी जितनी गहन छानबीन जरूरी है वह मुझसे न केवल हो न सका अपितु उसकी योग्यता भी न थी।

स्वरप्रधान भाषाओं में गेयता और लालित्य की प्रधानता होती है और इसका आग्रह बढ़ने से स्वर और विलंबित होता जाता है और कौरवी का अर्ध अकार भो. में अs  > अss जो ‘आ’ के निकट प्रतीत होता है बांग्ला तक ऑ में बदल जाता है। दक्षिण भारतीय भाषाओं में संस्कृत और हिंदी का यथालिखित उच्चारण होने के कारण उत्तर  भारत के लोगों को वह हास्यकर प्रतीत होता है।  आदि भारोपीय स्वर प्रधान थी।  उसमें जहाँ सभी शब्द (अजन्त) स्वरांत थे  कौरवी क्षेत्र में हलन्त या व्यजनांत हो गए,   मध्यस्वर का भी लोप हो गया।  लिखने को भले अजंत लिखें उच्चारण हलंत होगा। रामनाथ का हिंदी  उच्चारण में राम्नाथ् है पर दक्षिण भारतीय उच्चारण में रामानाथा का श्रुतिभ्रम पैदा करता है।  हिंदी में गुप्ता, चन्द्रा, सिन्हा, श्रीवास्तवा, आदि उच्चारण उसी प्रभाव की देन हैं।  अंग्रेजी शिक्षा को आगे बढ़ कर अपनाने,  अंग्रेजों के प्रति  अधिक भक्तिभाव रखने के फलस्वरूप,  लंबे समय तक  दक्षिण भारतीयों और बंगालियों  के  सर्वाधिक  पदों पर विराजमान रहने के कारण,  उत्तर भारतीयों में  यह ग्रंथि पैदा हो गई थी  बंगाली और मद्रासी   निसर्गजात रूप में अधिक प्रतिभाशाली होते हैं,  और उपनामों को अकारांत बनाने की प्रवृत्ति उसकी क्षतिपूर्ति है। 

जैसे द्रविड़ भाषाओं में वर्गीय ध्वनियाें में केवल प्रथम और अनुनासिक ध्वनियाँ ही पाई जाती हैं और यह इस कारण है कि मौर्य और गुप्तकाल में भी दक्षिण उत्तरी साम्राज्य का हिस्सा नहीं बना, इसलिए वे भाषाएँ, उनमें भी तमिल, अपने मूल रूप को सुरक्षित रख सकी, अतः इस सीमा को हम समझ पाते हैं उसी तरह इस बात की संभावना कि दूसरी बोलियों में भी  बहुत कम ध्वनियों से काम चलता रहा  हो। यदि देववाणी घोषमहाप्राण से प्रेम करती थी तो दूसरी बोलियों की अलग सीमाएँ थीं जो अध्ययन का अलग विषय है।

हम लुकाछिपी की जिस  क्रीड़ा की बात कर रहे थे, उसका एक कारण मूल ध्वनियों की ये सीमाएँ भा हैं।  दूसरी ओर इसके ही चलते  सप कौरवी क्षेत्र में  पहुँच कर शब् हो जाता है और इसमें द प्रत्यय के रूप में जुड़ता है तब शब्द- ध्वनि, सार्थक पद, कथन, वाचन (निगदेनेव शब्दते- रटा हुआ  वाक्य  दुहराता है), आदि आशयों का द्योतक होता है।

अन्तस्थ ध्वनि ‘र’ के आगम से शप/शाप के विकल्प के रूप में  संस्कृत में श्रप/श्राप भी प्रचलित हुआ ।  इसका तद्भव ‘सराप’ ‘सरापल’ - शाप, शाप देना भोजपुरी में आज तक प्रचलित है।  परन्तु संस्कृत में इसका प्रयोग  पकाने, उबालने के आशय में होने लगा - नैऋृत्र्यं चरुं श्रपयति, इसलिए शाप के लिए इसका वैकल्पिक प्रयोग बंद हो गया और आगे चल कर पकाने, उबालने के लिए भी प्रयोगबाह्य हो गया, परंतु शाप देने के अर्थ में श्राप का तदभव रूप भोजपुरी में आज तक व्यवहार में आता है।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

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