Sunday, 22 November 2020

शब्दवेध (22) एक कदम आगे दो कदम पीछे

भाषाविज्ञान का विकास जिस यांत्रिक रूप में हुआ उसमें  भाषा की उत्पत्ति के विषय में  छान बीन  बहुत की गई,   परंतु मूलभूत  सिद्धांतों  का ध्यान नहीं रखा गया।  यह तब और विचित्र लगता है जब हम पाते हैं कि येस्पर्सन  (Otto Jesperson) जैसी विभूतियाँ इस दिशा में प्रयत्नशील थीं। उन्होंने स्वयं अपने द्वारा  उठाई गई आपत्तियों में भी सतहीपन से काम लिया।  

भाषा की उत्पत्ति की समस्या प्रखर होकर  19वीं शताब्दी में तब सामने आए जब यह माना जाने लगा  समस्त विश्व  आधुनिक संचार और यातायात  के साधनों के माध्यम से  एक दूसरे से इतना जुड़ चुका है कि विश्व में  एक सर्वस्वीकार्य  भाषा का प्रयोग करें तो एक न्यायपूर्ण विश्व व्यवस्था कायम की जा सकती है।   इसमें बाधक था  विविध  यूरोपीय  देशों का अपना अहंकार और स्वार्थ।  किसी दूसरे की भाषा को कोई अपने लिए स्वीकार्य नहीं  मानता था।  ऐसी स्थिति में कुछ विज्ञानियों के दिमाग में  यह ख्याल आया कि यदि  एक कृत्रिम भाषा ऐसी तैयार की जाए जिसमें वर्तमान भाषाओं की  व्याकरण और उच्चारण संबंधी  दुरूहताएं न हों, शब्द भंडार  अधिकतम यूरोपीय भाषाओं के अनुरूप हो तो उसे संपर्क भाषा के रूप में सभी स्वीकार कर लेंगे और भविष्य में स्थापित होने वाली विश्व संस्था  की भाषा  वही होगी।  

इस भाषा को गढ़ने के लिए उन्होंने इस समस्या पर बहुत गंभीरता से विचार करना आरंभ किया कि भाषा की उत्पत्ति हुई कैसे, जिससे वह उन्हीं सिद्धांतों का पालन करते हुए नई भाषा तैयार कर सकें।  भाषा का आरंभ कैसे हुआ इसके लिए शिशुओं की भाषा सीखने पर जितना ध्यान दिया गया, वह  पर्याप्त नहीं था।  यह मानते हुए कि आदिम समाज की भाषा  आरंभिक अवस्था के अधिक निकट है इसलिए  वह उत्पत्ति को समझने में  सहायक हो सकती है, परंतु  इसे  यथेष्ट  नहीं पाया गया ।   प्राकृतिक ध्वनियों  की नकल से भाषा की  उत्पत्ति को समझने का प्रयास भी  इसी क्रम में किया गया।  

यह तो सर्वविदित है कि  बहुत सारे शब्द जीव जंतुओं की आवाज की नकल हैं।  परंतु यहां समस्या यह थी कि सभी भाषाओं में  उन्हीं ध्वनियों की नकल  अलग अलग की  गई है।  दूसरे इस नियम को  हम कुछ ही शब्दों पर लागू  पाते हैं।  वह शब्दावली भी  केवल  संज्ञा  तक सीमित है।  भाषा   का जटिल  ढांचा  जिसमें  संज्ञा के साथ  क्रिया, सर्वनाम,  विशेषण,   क्रिया विशेषण,  प्रत्यय,  उपसर्ग,   रुपावली,  सभी का विकास  शामिल है,  उसकी व्याख्या प्राकृतिक ध्वनियों के  माध्यम से संभव नहीं है।   और सबसे बड़ी आपत्ति  यह थी कि यदि भाषा का  उद्भव  प्राकृतिक ध्वनियों की नकल से हुई होती तो पूरे मानव समाज एक भाषा होनी चाहिए थी।  दुनिया में इतनी भाषाएँ उस दशा में नहीं सकती थी।

इसलिए में से किसी की भूमिका को पूरी तरह नकारना संभव नहीं था, इसलिए उन्होंने सोचा भाषा की उत्पत्ति और विकास में  इन सभी की कुछ न कुछ भूमिका थी  और इसलिए है सभी यूरोपीय भाषाओं से कुछ न कुछ लेते हुए उन्होंने जिस  भाषा को  कर तैयार किया  वह मेरी जानकारी में,  यूरो-केंद्रित  होती हुई भी,  दुनिया  की   सबसे सरल,  सबसे नियमित,   सबसे समृद्ध  भाषा तैयार की  जिसका नाम है एस्पैरांतो।[1]

[1] उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में ‘यूनिवर्सल लैंग्वेज तैयार करने पर अनेक विद्वान सक्रिय थे जिन्होंने उन्हें अलग अलग नाम दे रखे थे (डॉ. निकोलस- स्पोकिल Spokil ; स्पित्जर - पार्ला; बोलैक - ला लैंगू व्लूए la langue bleue),  यामेनोव (Zamenhof) की एस्पेरांतो इन्हीं में से एक थी। इनमें से कोई दूसरे की गढ़ी भाषा को भाव देने को तैयार न था। (येस्पर्सन,   सेलेक्टेड राइटिंग्स, एलेन ऐंड अनविन, 744-45)
  
इसमें ऐसे ही शब्दों को जो यूरोप के अधिकांश भाषाओं में प्रयोग में आते थे लातिन की सहायता से कुछ बदलते हुए स्वीकार कर लिया गया।  ऐन आन्सर - रेस्पोंडो,  आर्मी - आर्मेदो, आर्ट- आर्तो,  ऐरेस्ट - ऐरेस्तो, बैक- दोर्सो, बिफोर - ऐंताऊ, बिलो - सब,  कार्ड- कार्तो, फ्लड- इनुंदो,  नेटिव - इंडिजेनो, द नेचर - ला नैचुरा इत्यादि। नए शब्द गढ़ते समय लातिन से निकटता का ध्यान रखा गया था - नेटिव कंट्री - पैत्रोलांदो। उच्चारण सभी ध्वनियों का स्पष्ट, खूल कर किया जाता था। इसमें वक्ता या लेखक अपनी जरूरत के अनुसार नई व्यंजनाओं के लिए आसानी से शब्द गढ़ सकता था। इन सभी  विशेषताओं के बाद भी  इसे  विश्व राष्ट्र संघ से एक भाषा के रूप में स्वीकार किए जाने और  कुछ देशों ,  जैसे शाहकालीन ईरान से राजकीय प्रोत्साहन मिलने के बाद और  सर्वमान्य संपर्कभाषा की आवश्यकता अनुभव करते हुए भी, यह भाषा उपेक्षित ही रह गई ।

यह भाषा चल नहीं पाई। कारण क्या है।  एक कारण तो यही कि  व्यापारिक और राजनीतिक धाक बनाए रखने के लिए  संपर्क भाषा के रूप में भी इसे कोई स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। परंतु इसके अतिरिक्त भाषा की उत्पत्ति और  बनावट संबंध में  भाषाविज्ञानियों की  समझ भी गलत थी और वे अपने असाधारण श्रम के बाद भी जल्दबाजी में काम कर रहे थे।  किसी पहलू की गहराई से छानबीन नहीं कर रहे थे इसलिए भाषा की प्रकृति को समझने में उनसे चूक हुई थी।   (आज कंप्यूटर ने  किसी भी भाषा को  किसी भी भाषा  में   कामचलाने लायक अनुवाद  प्रस्तुत करके इस समस्या का एक नया हल निकाल लिया है जिसमें  सब कुछ बचा रह गया है और इसके बाद भी सभी से संपर्क संभव है।)

मनुष्य  के काम करने के नियम अलग होते हैं।  वह  सांचों में ढाल कर   एक जैसी वस्तुएं बना सकता है,  अधिक सुथरी चीजें बना सकता है,  परंतु एक भी नई चीज उत्पन्न नहीं कर सकता।   -प्रकृति  असंख्य चीजें उत्पन्न कर सकती है और कोई दो चीज-  एक ही पेड़ की दो पत्तियां तक एक जैसी नहीं हो सकती,  फिर भी उसकी हर  रचना का  एक आंतरिक नियम होता है जिससे वह परिचालित होती है।   मनुष्य निर्मित किसी वस्तु में  आंतरिक विकास की क्षमता नहीं होती इसलिए उसे बनाया जा सकता है,  उपयोग किया जा सकता है,   परंतु वह स्वयं  किसी चीज को उत्पादित नहीं कर सकता,   अपने जैसे को भी नहीं। 
   
भाषा विज्ञानियों ने  आषा की उत्पत्ति के विषय में  एक सार्वभौमिक नियम को समझा होता और उसी पर काम करते रहते तो और कुछ करते या नहीं भाषा की उत्पत्ति और भाषाओं के अंतर्संबंध की बहुत मार्मिक व्याख्या कर सकते थे और उस व्याख्या से उन सभी विसंगतियों का निराकरण हो गया होता  जो सतही समझ के कारण दिखाई दे रही थी।

भाषा का यह सिद्धांत है  कि हम जैसा सुनते हैं वैसा ही बोलते हैं।   जो सुन नहीं सकते,  वह बोल नहीं सकते।   गूंगा बच्चा बहरा होता है।   बहरा होने के कारण  वह  उस नाद जगत से भी  अप्रभावित रह जाता है जिसे सुनकर एक शिशु अपनी ओर से वैसा ही  बोलने के प्रयत्न मे अपने एकांत में  तरह-तरह की ध्वनियाँ निकालता है जिसे हम शिशु संगीत कह सकते हैं।  इसी क्रम में उसके सुनने की क्षमता में भी विकास होता है और बोलने की क्षमता भी पैदा होती है।   जिसे जेनरेटिव ग्रामर ने  एक रहस्यवाद में  बदल दिया,  मनुष्य में निसर्ग जात  भाषिक क्षमता की कल्पना कर ली, वह  एकांत में परिवेश ही संगीत का यही अनुकरण है जिसके सध जाने पर कुछ ही सालों के भीतर एक शिशु का अपनी भाषा पर बहुत अच्छा अधिकार हो जाता है।

यदि उन्होंने  आदिम  भाषाओं में  अनुकारी शब्दों  और व्यंजनाओं के बारे में गहराई से सोचा होता  तो पता चल जाता  कि विकसित भाषाओं की तुलना में  आदिम भाषाएं अधिक समृद्ध क्यों है,  और इसी गति से यदि हम पीछे चलें  तो  उनकी पूरी भाषा की बनावट समझ में आ जाती,  अनुकारी शब्दों की संख्या क्रमशः बढ़ते हुए  समग्र भाषा अनुकारी ध्वनियों का संजाल बन जाती।
 गूँगों की सीमाओं को  जानते हुए भी  उन्होंने उससे सही शिक्षा ग्रहण नहीं की।

भाषाओं की  प्राथमिक निजी संपदा  बहुत सीमित थी,  और सबकी  प्राकृतिक परिवेश के कारण, अथवा प्रयत्न की भिन्नता के कारण अथवा जावट के  अतर के कारण,  सभी में   भिन्नताएँ थीं  और जहां ऐसी भिन्नता न हो वहां भी एक ही प्राकृतिक नाद का  कई रूपों में उच्चारण  किया जाता है और किया जाता रहा।   भाषा के विकास में सबसे प्रधान भूमिका वायु  और जल की है  ताप और शीत का है। ऐसे ही दूसरे अनेक कारण हैं जिनमें से सभी का न तो हम ध्यान रख सकते हैं नहीं हमें ज्ञान है,  परंतु  सभी की व्याख्या इसी एक नियम से हो जाती है।   भाषा के सभी घटकों की  उत्पत्ति  प्राकृतिक नाद के अनुनादन से संभव है  और  भारोपीय भाषा के संदर्भ में इसका विवेचन हम अपने आगे की चर्चा में करते रहेंगे।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

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