चट में यदि जिह्वा की सक्रियता दिखाई देती है तो कट में दांतों की। और यदि इनकी चक्रवर्ती आवर्ती हो जाए तो यह किट (किटकिटाना) बन जाता है। क्रोध का भाव आ जाए तो ट च में बदल कर किचकिचाना हो जाता और तनिक ध्यान दें तो खीझ का इससे नाता (भौतिक क्रिया का मनोभाव में परिवर्तन भी दीख जाएगा। यहाँ एक मामूली परिवर्तन हुआ है और वह है श्वसन क्रिया का बढ़ जाना - अर्थात् अल्पप्राण ध्वनियों का महाप्राणन। लेकिन यह तो मानना ही होगा कि घोष-महाप्राण शब्द में कहीं आए, वह मूलतः कौरवी या बाँगड़ू का नहीं हो सकता और उसकी तलाश हमें पूरबी में करनी होगी। भो. में लौटने पर हमें खीझ की जगह ‘खुझ्झि’ और खीझने वाले के लिए ‘खुझ्झी’ का प्रयोग चलता है। यद्यपि ‘झ्झ’ सुनने में ‘ज्झ’ प्रतीत होता है पहले ‘झ्’ का महाप्राणन आरंभ हो इससे पहले ही दूसरे झ का उच्चारण आरंभ हो जाता है परंतु इसका कारण यह हो सकता है कि हमारा उच्चारण खड़ी बोली से, जिसमें हजारों साल के अभ्यास के बाद भी स्वरयुक्त दो महाप्राण ध्वनियां साथ साथ आएँ तो पहले या दोनों के महाप्रणन का लोप हो जाता है (भूव+भूव=भभूव> बभूव; धधकल> दहकना), बहुत प्रभावित है।
दाँत (दंत) का काम है काटना, दाढ़ (दंष्ट्र) या चौभर का चबाना (भो. चाभल >चबाना जिसका सं. ब को व बना कर और र-कार का अंतःक्षेप करके किया जिसका वकारयुक्त रूप हम देख आए हैं चाव/चाह बन कर एक नए अर्थ में प्रयोग में आने लगा और चर्वण/चर्वणा - चबाने और रसास्वादन (रस चर्वणा) दोनों अर्थों में प्रचलित रहा। बोली के स्तर पर र-कार युक्त रूप नहीं चलता था इसे अंग्रेजी के chew से समझा जा सकता है जो पुनः चव/ चाव की याद दिलाता है जो सं. > च्यव बनता है और च्यवन-प्राश में बचा रह गया है।
आप दाँत कटी रोटी के संबंध की या हम-नेवाला की बात करते समय इसके अर्थ पर तो ध्यान देते हैं, बिंब पर शायद ही ध्यान देते हो। इसका बिंब उसी रोटी (फल, नेवाले) काे काट कर खाना और बाकी दूसरे को खाने को दे देना। स्टीव जॉब्स ने इसका अर्थ समझाने के लिए ऐपल का प्रतीक चिन्ह तैयार किया था।
हमने दाँत से उत्पन्न कट् ध्वनि और इसके शब्द-विकास और अर्थ-विकास पर चर्चा करनी थी और दाँत की क्रिया की और मुड़ने लगे। कट की ध्वनि दाँत से तो पैदा होती है और इसका काम काटना और छेदना भी है, और इस नाते इसका विस्तार किसी ऐसी वस्तु तक हो सकता था जो काम के मामले में सगा है पर जिससे कोई आवाज स्वतः पैदा नहीं होती। कट >कंट>काँटा/सं. कंटक और क्रिया काटना, कटीला, काट= 1. विफल करने वाला उपाय या प्रतिवाद; 2. बनावट । विचित्र बात यह कि काँटे की अपनी क्रिया के लिए चुभने का प्रयोग होता है पर इसके नाम करण में उससे सहायता नहीं ली गई और इससे भी विचित्र यह कि यह चूभने से इतना मिलता है। कट में हीनार्थक इ-कार लगाकर > कीट/ कीड़ा/कीड़ी > सं. कृमि ।
काटने की अप्रियता- कटु/ कड़वा, वह वचन/उक्ति हो या स्वाद, जिसका विस्तार सरसों के तेल तक होता है क्योंकि सभी खाद्य तेलों में तीखापन इसी में होता है।
कठिन, कठोर का प्रथम दृष्टि में संबंध काठ से है, परन्तु कठेस - अधपका फल जो मुलायम न हो, सीधे दाँत से काटने से संबंध रखता है।
किसी टहनी या ऐसी ही किसी चीज के टूटने, उसे तेजी से काटने से कट की ध्वनि पैदा होती है, इसलिए यदि काटा जाय और ठीक यही ध्वनि पैदा न हो तो भी उसके लिए इसका प्रयोग हो सकता है - कटार/ कटारी - काटने के अनेक औजारों में से एक के आकार भेद; काट/ कटाव, किसी धारा का , कट्टा - बंदूक की नली को काट कर तैयार रिवाल्वर, कट्टा- आधी बोरी या छोटी बोरी; अधकट्टी सब समझ में आते हैं पर कटरा को समझने में इस कारण कुछ उलझन होगी कि हम इसे बाजार समझ लेते हैं जब कि यह बाजार का एक हिस्सा है जो किसी एक सेठ के कारोबार या अधिकार को प्रकट करता है- कटरा गिरधारी लाल। हट्टा-कट्टा में हट्ठा हठीला के सं. हृष्ट का अपभ्रंश लगता है और कट्टा - कड़ा- दृढ़ का रूपभेद। कट्टर - दृढ़, अडिग. जिसे काटा न जा सके, विचलित न किया जा सके। कटि - कमर; *कट्टा> गट्टा (कल्ला, कलाई) कटने का नहीं इसके विलोम जुड़ने का भाव प्रकट करता है क्योंकि काटना, तराशना कुछ गढ़ने-बनाने के लिए ही किया जाता है, इसलिए कला किसी पूर्ण का खंड, सोलहवां हिस्सा और कला कलित या निर्मित कृति।
भगवान सिंह
(Bhagwan Singh )
No comments:
Post a Comment