स्वादिष्ट लेह्य पदार्थ का स्वाद ग्रहण करते समय जिह्वा की गति, स्पर्श और झटके से अलग हटने से चट् की आवाज आती है जिसके कारण इस क्रिया को चाटना और सुस्वाद लेह्य को चटनी, और खाद्य को चाट; किसी लाभ के लिए, अपने से अधिक प्रभावशाली व्यक्ति को प्रसन्न करने के लिए उसकी झूठी प्रशंसा या सेवा करने वाले को चाटुकार कहते हैं। अति स्वादिष्ट व्यंजनों के लिए चटपटा/चटपटी का प्रयोग होता है और लोलुप व्यक्ति को चटोर और उसकी आदत को भी चाट तो कहते ही हैं।
पर स्वादिष्ट पदार्थ की लालसा को चाव कहते हैं जो जीभ से न निकलकर जबड़ों से किसी रसीले पदार्थ का रस और स्वाद ग्रहण से उत्पन्न है ध्वनि *‘चाभ’ से संबंध रखता है, जिसके लिए भो. में चाभल और चूभल/चूसल प्रयोग में आते है, जिनमें सूक्ष्म अंतर है। चाभ का भ कौरवी क्षेत्र की बोली के प्रभाव में, जिसमें पहले घोष महाप्राण (झभघढध) का अभाव था, पहले ब में बदला, फिर उसका संस्करण व में होने पर चाव बना जिसमें सहायक होने के कारण दाढ़ के दाँतों को भो. चउभर कहते हैं। चूभना को संभवतः दाँत गड़ाने के आशय से जोड़ कर देखने के कारण कौरवी में इसका प्रयोग भो. में प्रचलित खुभने के लिए और केवल चूसने का प्रयोग चूभने के लिए होने लगा। चूसने से जूस (रस/रसा) निकला जिसका सं. यूष = रस, रसा > योषा = सुखदा के रूप में हुआ।
जो भी हो, चट का विशेष अर्थ हुआ चिपकना जो उस बोली के प्रभाव से जिसमें च का उच्चारण स के रूप में हौता था, सट में अधिक स्पष्ट है, क्योंकि इसका नामधातुक रूप सटना = चिपकना, जुड़ना और संज्ञा सटना = वह आवरण जो किसी किताब या कापी पर उसकी सुरक्षा के लिए चढ़ाया जाता है आज भी प्रयोग में आता है। सटना का मूल रूप चट ही था, यह इसके विलोम उचटना और उचाट और उच्चाटन से स्पष्ट है और साथ ही यह भी स्पष्ट है कि इसका आर्थी विकास चाट>चाव>चाट>चट के क्रम में हुआ है।
चट की ध्वनि केवल जिह्वा से पैदा नहीं होती; किसी भी पतली या चपटी चीज से तेजी से टकराने से पैदा होती है, चाहे वह आपकी हथेली का किसी के गाल से टकराना हो या चप्पल के पिछले सिरे से एँड़ी से। परन्तु इस तर्क से तो चप्पल को चट्टल कहा जाना चाहिए था, (जो संभवतः गो प्रजाति के खुर की आवाज के आधार पर चैटल/ कैटल और बाद में गुलामों को ढोर के समान मान कर उनके लिए प्रयोग में लाया जाता रहा।)।
इसका एक कारण तो यह है कि भारत के आर्द्र मौसम में जूते से गीला हो जाने पर उससे पैदा होने वाली दुर्गंध से बराव के कारण भारत में उपानह या पादत्राण का चलन बहुत पहले से होते हुए भी, दुर्गंध से बचने के लिए अधिकांश लोग नंगे पाँव रहते थे, जो भारतीय जलवायु में संभव ही नहीं पानी और बरसात को ध्यान में रखते हुए, सुविधाजनक भी था। कुछ लोग खड़ाऊँ/ पादुका या पौआ (जिसमें खड़ाऊँ की खूटी की जगह रस्सी के फंदे लगे रहते थे) का प्रयोग करते थे। कनवास और रबड़ के उपयोग के बाद और विलायती जूतों के चलन के समानांतर पौए ने चटपटी का रूप लिया और फिर इसमें सुधार करते हुए चप्पल का चलन बढ़ा। चप्पल का प्रयोग कुछ बाद में आरंभ हुआ इसलिए चट्टल विकल्प सुलभ न था। खट/खड़ के नाद के कारण खड़ाऊँ, पाँव के रक्षक के रूप मे पादुका, पादत्राण, पनही, उपानह। इसलिए पाँव के रक्षक का विकल्प भी न था।
दूसरा कारण यह कि प्रकृत नाद अनेक रूपों में सुना और वाचिक रूपों में प्रस्तुत किया जा सकता था। जिस ध्वनि को चट रूप में सुना जा सकता था उसे चप और थप रूप में भी सुना जा सकता था। संभव है आरंभ में यह बोलियों की भिन्नता के कारण रहा हो, पर उनके एकमेक हो जाने के बाद जिसे चाँटा कहा जाता था, उसी के लिए चपत और थप्पड़ का भी प्रयोग बिना किसी संकोच किया जा सकता था यद्यपि इनमें ध्वनिभेद से जुड़ा सूक्ष्म अर्थभेद भी था। आप चपत प्यार से भी लगा सकते हैं, सावधान करने के लिए चाँटा भी जड़ सकते हैं, पर थप्पड़ के पीछे एक मात्र प्रयोजन आहत और अपमानित करना ही हो सकता है।
चपत का चपाती से क्या संबंध है, यह आपको तभी पता चलेगा जब यह समझ लें कि जिसे आप चपाती कह कर खाते हैं वह चपाती नहीं रोटी है और जिसे रूमाली रोटी कहते हैं वह रूमाली चपाती है। चपाती वह है जिसे चाक और वेलन का आविष्कार होने से पहले या इनके अभाव में लोई को उँगलियाों के दबाव से फैलाते और हथेलियों से समतल बनाते हुए तैयार करते थे, जिसके लिए हथपोइया का प्रयोग होता था। यदि इसे तवे पर न सेंक सीधे आग पर सेंकना होता तो आकार छोटा ही रहता जिसे भो. टिकरी = टीके की शक्ल का, कहते थे। रोटी के साथ आप को अं. के रोट, रोड, रोटरी, रोटेशन की याद आई होगी। दोनों का जातक एक ही है पर इसका मूल रोड़ा - नदी की धारा से टूट और घिस कर गोलाकार हुए बट हैं जिन्हें लौग आज तक बाबा बटेश्वर या शिव के रूप में पूजते और जलस्रोत के निकट रखते रहे हैं। इस विकास पर उचित प्रसंग में चर्चा करेंगे।
यहाँ इतना ही कि चट का संबंध चटाई, सटने-सटाने या जोड़ कर तैयार किया विस्तर है तो चट्टान को भी सपाट और समतल शिलाखंड होना चाहिए। चट्टा लगाना जोड़ कर सजाना है।
सटने, जुटने, परस्पर गुँथे होने के भाव का विस्तार जटा, जूट, झूँटा, झोंटा आदि में हुआ है।
चट, पट्, खट से जुड़ी आकस्मिकता से आकस्मिकता सूचक अव्ययों - चट, पट, खट, झट, चटुल आदि - का जन्म हुआ है। जो शब्द या शब्द शृंखला मुझसे, स्थान सीमा के कारण, छूट रहा/रही होगा/होगी उसे आप अपनी सूझ से पूरी करेंगे।
( भगवान सिंह )
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