Sunday, 15 November 2020

शब्दवेध (12) भाषा की उत्पत्ति

एक बार हमने  प्राचीन भारतीय वैयाकरणों ( आचार्यों ) से भर्तृहरि  के भाषा  की  उत्पत्ति विषयक  अंतर  की बात कर ही  दी   तो इसे  स्पष्ट करना उचित  लगता है। यह अंतर  निम्न रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है:

प्राचीन आचार्य  सृष्टि से पहले  न केवल  छंदबद्ध भाषा की उपस्थिति मानते थे, अपितु लिखित वेदों  का भी अस्तित्व मानते थे।  उनकी यह मान्यता  अपना  निषेध  स्वयं करती थी,  क्योंकि सृष्टि से पहले किसी चीज का अस्तित्व नहीं हो सकता था, फिर भाषा और वेद का कैसे हो सकता था। पूर्वाग्रह और स्वार्थ महान से महान पंडितों को  कितनी  नासमझी की बातें  करने को प्रेरित कर सकता है इसका यह ज्वलंत उदाहरण है।  पूरी परंपरा में  किसी ब्राह्मण को  इसमें कोई गलती दिखाई नहीं दी। 

भर्तृहरि  इसके विपरीत  मानते हैं  के सृष्टि  नाद के साथ  आरंभ हुई।  यह  सिद्धांत अकाट्य है। कारण यदि क्रिया है तो गति  होगी  और नाद  भी होगा।  इनमें से एक के अभाव में दूसरा संभव नहीं है। परंतु  यह नाद या स्फोट है  जिसके हमारे  वाक्तंत्र   द्वारा  पुनरुत्पादन  या  अनुकरण से  व्यावहारिक शब्द उत्पन्न होता है।

ऋग्वेद में,  जिस रूप में  मैं इसे समझ पाया हूं, भाषा के विषय में  यह कहा गया है यह परिवेश में प्राकृत  या  निसर्गजात अस्पष्ट ध्वनियों  के रूप में  भाषा के घटक विद्यमान हैं।  मनुष्य की भाषा  उन्हीं में से सार्थक  और उच्चारण में  आसान  नियत पदों का चयन है। ऋग्वेद में  बार-बार  सूनृता  वाणी का  हवाला आता है। 

सरस्वती ‘सूनृता को प्रेरित करती और सद्बुद्धि को जगाती है, (चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम्, ऋ. 1.3.11)।  कशा  या सटाकी के,  हल्के  आघात से पैदा होने वाली  आवाज सूनृता है, (या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती । 1.22.3)। उषा द्वेष से रहित, ऋत की पालक, ऋत से ही उत्पन्न, सुमनस्यता से भरा कलरव सूनृता है, (यावयत् द्वेषा ऋतपा ऋतेजाः सुम्नावरी सूनृता ईरयन्ती । 1.113.12)। स्तुति की वाणी, सूनृता है, (स्तोत्रं राधानां पते गिर्वाहो वीर यस्य ते । विभूतिरस्तु सूनृता ।। 1.30.5)।  ब्रह्मणस्पति से सूनृता देवी को यज्ञ में आने के लिए प्रेरित करने की याचना की गई है, ( प्रैतु ब्रह्मणस्पतिः प्र देव्येतु सूनृता । 1.40.3) उषा सूनृतावती है, ( रेवदस्मे व्युच्छ सूनृतावति ।। 1.92.14)।  वायु की ध्वनि से सूनृता वाक की तुलना की गई है, (वायोरिव सूनृतानामुदर्के ता अश्वदा अश्नवत् सोमसुत्वा ।। 1.113.18)। जल के प्रवाह की क्रीड़ा करती ध्वनि सूनृता है, ( क्रीळन्त्यस्य सूनृता आपो न प्रवता यतीः ।  8.13.8)। गाय के रँभाने की ध्वनि सूनृता है, (धेनुष्ट इन्द्र सूनृता यजमानाय सुन्वते । 8.14.3)।सतुतियाँ सूनृता हैं, ( ऊर्ध्वा हि ते दिवेदिवे सहस्रा सूनृता शता । जरित्रिभ्यो विमंहते ।। 8.45.12; मंहिष्ठामूतिं वितिरे दधाना स्तोतार इन्द्र तव सूनृताभिः ।। 10.104.5)।    शायणाचार्य ने सूनृता वाक  की परिभाषा करते हुए  इसे  ‘पशुपक्षिमृगादीणां भाषा कहा है।  आदि में आप मनुष्यों की  नैसर्गिक भाषा को भी  शामिल कर सकते हैं, यद्यपि   इसका प्रयोग स्तुतियों के लिए भी किया गया है।  इसका प्रधान  गुण है निष्कलुषता, माधुर्य  और  सत्यात्मकता जिसके कारण इसे  ऋतंभरा वाक् भी कहा जा सकता है। 

ऋग्वेद में परिमित पदों वाली चार  प्रकार की  वाणी  का उल्लेख है - चत्वारि वाक् पारमिता  पदानि।  परंतु इन सभी को केवल मनष्वी लोग ही जान पाते हैं (तानि विदुः ब्राह्मणा ये मनीषिणः),  क्योंकि इनमें से तीन अव्यक्त हैं इसलिए इनके संकेत सभी की समझ मे नहीं आते (गुहा त्रीणि निहिता न ईंगयन्ति),  और चौथी  मनुष्य के व्यवहार में आती हैं (तुरीया वाचं मनुष्या वदन्ति)।   वाणी के ये चारों रूप  क्या है इसे लेकर विद्वानों ने बहुत दूर की कल्पनाएं की है और सभी को  केवल मनुष्य तक सीमित रखा है। यह विचार से शब्द में परिवर्तित होकर वाणी से प्रकट होने की व्याख्या है।  जिन विद्वानों ने ये यात्राएं की हैं उनके सामने नतमस्तक होकर भी असहमति जताने का प्रलोभन होता है।  क्योंकि यह सभी परिमित पद वाली वाणी के रूप हैं और वाणी से व्यक्त होने से पहले की अवस्थाएं  (जैसे परा, पश्यन्ती आदि) इसमें शामिल नहीं की जा सकतीं।

ऋग्वेद में भाषा की उत्पत्ति  के विषय में कहा गया है कि मनस्वी लोगों ने प्राकृतिक परिवेश की इन गूढ़ या अस्पष्ट ध्वनियों में से जो श्रेष्ठ या सबसे उपयुक्त था अरिप्र अर्थात्  स्पष्ट था उसको प्रेम या सावधानी पूर्वक (प्रेणा) चयन किया। गुहाविः का अर्थ है गूढ़ता से बाहर निकाला, जिसके लिए हमने चयन किया का प्रयोग कामचलाऊ रूप में किया जो बहुत उपयुक्त नहीं लगता,  क्योंकि  पूरी भाषा एक साथ गढ़ी नहीं गई,  अनुकारी शब्द क्रमशः भाषा का अंग बनते चले गए( बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत्प्रैरत नामधेयं दधानाः । यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत्प्रेणा तदेषां निहितं गुहाविः ।। 10.71.1)।

एक अन्य संदर्भ में भाषा की उत्पत्ति का सबसे प्रमुख स्रोत  जल को बताया गया है।  असाधारण शक्ति वाली वाणी (वागंभृणी) अपना परियय देते कहती है,   यह ब्रह्मांड मेरा पैदा किया हुआ है और मेरा जन्म स्थान जल है, मैंने समस्त जगत को अपने में समाहित कर रखा है (अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।  ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणा उप स्पृशामि ।। 10.125.7), । 

इस रहस्य को समझ लेने के बाद,  यह समझना आसान हो जाएगा  सरस्वती को ही विद्या और ज्ञान की देवी क्यों माना गया।  नदी शब्द  अर्थ है  जो नाद करती है। नाद के तो अनेक स्रोत हैं,  परंतु प्रमुखता के कारण,  भाषा की शब्दावली का प्रधान स्रोत होने के कारण जल और नदी को यह संज्ञा मिली।

हम इस बात को रेखांकित करना चाहते हैं   कि पाश्चात्य जगत  200 साल  भाषा की उत्पत्ति पर लगाने के बाद थक कर,  इस समस्या को असाध्य मानकर, बैठ गया।  हमारे प्राचीन आचार्यों ने भी  इस मामले में सावधानी नहीं बरती, इसका उल्लेख हम लेकर आए हैं।   परंतु  वैदिक समाज ने  उन से डेढ़ हजार साल पहले और आज से लगभग साढ़े पाँच हजार साल पहले इस समस्या का हल निकाल लिया था।  हम  आगे चलकर  इसकी विस्तृत चर्चा करेंगे,  यहाँ इतना ही कि भर्तृहरि मेरी सीमित जानकारी में पहले भाषावैज्ञानिक हैं जिन्होंने भाषा विमर्श को वेदिक चिंतन से जोड़ा, और हमें स्वयं इसका इतने विलंब से पता चला कि लंबे समय तक इस अथाह महासागर में थपेड़े खाते हुए किसी सहारे के लिए भटकते रहे और जिसे अपने जीवन का सबसे महत्पूर्ण कार्य मानता रहा वह लगातार टलता रहा।

( भगवान सिंह )

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