Tuesday, 24 November 2020

शब्दवेध (26) वाक्

भाषा के लिए प्रयोग में आने वाले दूसरे अनेक शब्द हैं- वाक् (>*वचन, बाँचल, वाशी (voce, voice, >vocal/ vocabulary, vocation> cf. calling- पेशा) - भाषा,  कथ, कत्थ, कथनी/ कहनी (> कथन/कहन; कथा, कहानी) और आर्तभाव के कुछ कहना - भो. कहँरल,(*कद/खद/गद>  (कदराना, कातर क्रदन/ क्रंदन, भो. *कलप/ सं. कल्प - आवाज>कलाप, कलापी, कलपल आदि।   

इनमें से प्रत्येक पद ऐसा है जिसके एकाधिक उच्चारभेद थे और उनमें कौन सा सबसे पुराना है और किस बोली ने किससे इसे ग्रहण किया और अपनी ध्वनि-व्यवस्था में ढाल लिया और फिर सबके एक बृहद समाज का अंग बन जाने और सभी रूपों के साथ प्रचलित होने के बाद इनमें से कुछ नई व्यंजनाओं के लिए प्रयोग होने लगे, यह ध्यान देने योग्य है।  जिन कालों में ये विकास हुए उनसे बहुत दूर होने के कारण पूरी सावधानी के बाद भी हमारे कुछ समीकरण गलत हो सकते हैं, यह मानने के लिए भी हमें तैयार रहना चाहिए। 

भारतीय भाषाओं के विषय में दो विरोधाभासी विचार मिलते हैं।  पहला यह कि इसमें अन्विता ऐबी द्वारा उद्धृत यूनेस्को के आकलन के अनुसार1600 बौलियाँ बोली जाती हैं, जब कि भारत सरकार के अनुसार यह 200 से कुछ ऊपर और सिल (समर स्कूल ऑफ लिंग्विस्टिक्स) के अनुसार 300 से कुछ अधिक बैठती है। हमारे लिए इनमें से कोई भी संख्या आश्चर्यजनक है। परन्तु इसका दूसरा पक्ष यह कि इनका विभेद पूर्वोत्तर  के कबीलाई क्षेत्र में सर्वाधिक है जिसमें कबीलाई अभिमान और सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन तथा प्रशासनिक एकाधिकार के अभाव के कारण बृहद सामाजिक संरचना और उसके कारण स्वाभाविक रूप में बोलियों के क्रमिक विलय से उन्नत भाषाओं का विकास नहीं हो सका, जब कि शेष भारत में उसके विपरीत कारणों से विविधताओं का क्रमिक लोप होने के कारण इनकी संख्या कम होती गई, इसके बाद भी इनकी संख्या काफी अधिक है।

 परन्तु यहाँ भी यह नियम काम करता दिखाई देता है कि पिछड़ेपन के अनुपात में भिन्नता अधिक है और सामाजिक आर्थिक प्रगति के अनुपात में पारस्परिक संपर्क के लिए एकरूपता के समानान्तर स्थानीय  रागात्मकता के कारण “ कोस कोस पर पानी बदले चार/आठ कोस पर बानी”  मुहावरे का चलन है।   संभवतः इसी के आधार पर युनेस्को के 2012 से पहले के किसी सर्वेक्षण में इनकी संख्या 1600 से अधिक पहुँचा दी गई थी - ज्ञान, विज्ञान और कूटनीति का विकास पश्चिम में साथ साथ हुआ है। 

 हमारे लिए महत्वपूर्ण यह है कि प्राचीनतर अवस्थाओं में बोलियों की संख्या अधिक रही है और सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक (जिसमें कला, साहित्य और मतवाद को भी लिया जा सकता है)  के कारण वह निकटता आई है जिसके कारण बोलियों और भाषाओं के बीच पारिवारिकता का भ्रम पैदा होता है।  इसकी त्वरा (डाइनैमिक्स) को न समझ पाने के कारण ‘प्रचंड’ भाषा विज्ञानियों ने सत्ता और प्रचार-साधनों पर एकाधिकार के बल पर  वास्तविकता को उलट कर एक आद्य भाषा के विभेदन या ह्रास से पारस्परिक समानता रखने वाली बोलियों और मानक भाषाओं का जन्म लगातार दिखाया और भाषा शास्त्र के शिक्षित और प्रशिक्षित विद्वान और संस्थान (सिल और यूनेस्को भी) आज तक जिसे  दुहराते आ रहे हैं । 

वे आदम की बोली या नोआ  और उसकी संतानों की बोली को वास्तविकता मान कर अटकलबाजियाँ करते रहे। जिस संस्कृत के वर्चस्व को कम करने के लिए भाषाविज्ञान और भाषा-परिवार की उद्भावना की गई थी उसमें भी संस्कृत से सभी भाषाओं की उत्पत्ति का सिद्धांत प्रचलित था  सो एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा। 

तथ्य और अटकलबाजी के इस द्वन्द्व में आज तक अटकलबाजी की जीत होती आई है और वह भी विज्ञान के नाम पर। हमने 1973 में ही, (आज से लगभग पाँच दशक पहले) इसका खंडन किया था, पर हिंदी में ही नहीं, किसी गैर-यूरोपीय भाषा में प्रतिपादित किसी नई स्थापना को उस भाषा के लोग तक नहीं मानते, पूरी दुनिया यूरोप की किसी भाषा में प्रस्तुत नए लचर विचारों को, उनके प्रचार-कौशल और जमी हुई धाक के कारण, युगान्तरकारी मान कर स्वयं, अपने को अद्यतन जानकारी से लैस सिद्ध करने के लिए, उनका वितरक बन जाती है।  आज भी हिंदी में लिखते समय यह अंदेशा तो बना ही रहता है कि इसे समझेंगे कितने और मानेगा कौन।

दूसरा तथ्य यह कि अपनी निजता की रक्षा के लिए प्रयत्नशील बोलियों के साथ ही, आहार की तलाश में, भिन्न बोलियों के परिवेश या पड़ोस में होने और उनके बृहत्तर घटकों मे समायोजित होने के कारण और अलग बनी रह गई भाषाएँ बोलने वालों के प्रत्यक्ष या परोक्ष संपर्क के कारण सभी के तत्व सभी में तलाशे जा सकते हैं जिसे आर्य-अनार्य आदि नकली पहचानों  के आर-पार देखा जा सकता है और जिसकी नितांत सतही समझ के बल पर इमेनों ने तब के भारत को एक भाषाई क्षेत्र के रूप में पहचाना था और जिसके भुलावे में आकर माधव देशपांडे सिंधु-सरस्वती सभ्यता के समय एक प्रोटो इंडियन भाषा की कल्पना कर बैठे जिसका हवाला हम पहले दे आए हैं। 

इस पृष्ठभूमि के बाद हम यह भी स्वीकार करें कि शब्दों का विवेचन करते समय इस उत्साह में कि फिर बात शब्द से ही क्यों न आरंभ की जाए, हमने भाषा की उत्पत्ति और विकास पर बात करने की दृष्टि से गलत आरंभ किया।  मनुष्य विविध वस्तुओं, क्रियाओं, विशेषताओं, आदि लिए शब्दों का प्रयोग करते हुए भी चिंतन की उस ऊँचाई पर दसियों हजार साल बाद पहुँचा जब वह यह सोच सका कि जिस माध्यम से वह वह काम करता है उसका भी कोई नाम होना चाहिए और उसके विषय में भी जानकारी रखी जानी चाहिए और उसके भी बहुत बाद यह सोच सका कि इस जानकारी का भी अपना नाम होना चाहिए।  भाषा का नाम आज भी प्रायः अंचलों के और अंचलों का नाम उनमें  अधिक संख्या में बसने वाले जनों और भौगोलिक लक्षणों के आधार पर रखा जाता है और जनों को उनकी संज्ञा या तो उनके अभिमान को प्रकट करने वाले शब्दों से (होर- मनुष्य, बिरहोर - जंगल का मनुष्य, मुंडा- सर्वोपरि और आर्य- श्रेष्ठ) या उनके पड़ोसियों और शत्रुओं से मिला है।   

जो भी हो भाषा के जिन पर्यायों को हम ऊपर गिना आए हैं उनके विषय में यह सोचना सरलीकरण होगा कि इन सभी का नामकरण मुख से निकलने वाली ध्वनियों में से किसी एक से हुआ होगा।  उनमें से बहुत कम शब्द हैं जिनकी उत्पत्ति मुख की निसर्गजात ध्वनियों से हुआ है और कुछ का नादस्रोत एक ही नहीं दो कदम पीछे मिलेगा।  उसके विवेचन को कल के लिए स्थगित रख सकते हैं।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

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