Monday, 16 November 2020

शब्दवेध (15) कड़वी घूँट

मुख से निकलने वाली दूसरी ध्वनियों और उनसे बने शब्दभंडार की चर्चा से पहले  कुछ आधारभूत बातों को समझ लेना जरूरी है जिसके बिना हमारी कुछ बातों को समझने में कठिनाई होगी।

हमारे मुख से अनेक प्रकार की ध्वनियाँ निकलती है जिनमें से कुछ का अनुश्रवण और  वाचिक अनुकरण ही  शब्द का रूप ले पाता है।  दूसरी  ध्वनियाँ  हमारे परिवेश की असंख्य ध्वनियों की तरह बेकार चली जाती हैं - उनका हमें संज्ञान तक नहीं होता । 

हम प्राकृत  नाद को अपनी  ध्वनिमाला  की सीमा में ही सुन पाते हैं, इसलिए दूसरी भाषाओं में उन्हीं  नैसर्गिक ध्वनियों को  जिस रूप में सुना और  वाचिक उच्चारण किया गया है, वह  उसी ध्वनि के  हमारे  अनुश्रवण और उच्चारण से  भिन्न तो होता ही है। हमारे लिए उ़नका वाचिक शब्द भी  एक सीमा तक  नाद में बदल जाता है, जिसे  हम अपनी  अपनी सीमा में  सुनते और नए सिरे से अनुनादित करते हैं। 

एक अंग्रेज या अमेरिकी  ही नहीं  भारत के विभिन्न प्रांतों के अंग्रेजी जानने वाले व्यक्ति  एक ही  लिखित शब्द का  अलग अलग उच्चारण करते हैं।  दूसरी भाषाओं के शब्दों को  सुनने और बोलने में अपनी बोली के प्रति गहन अनुराग के कारण,  कम से कम अपने वैभव काल में,  जितना भ्रष्ट उच्चारण ग्रीक लोग करते थे,  उतना किसी दूसरी भाषा का व्यक्ति नहीं कर सकता।   

भाषा सीखने के लिए अपनी भाषा की आसक्ति को भी त्यागना होता है,  और नए सिरे  उस भाषा को सुनना बोलना सीखना होता है।  यह एक  साधना है  जिसमें लंबा समय लगता है,  यद्यपि सुनने  और बार-बार विफल होने के बाद भी सही उच्चारण तक पहुंचने को आधुनिक श्रव्य दृश्य साधनों ने,   पहले की तुलना में,  अधिक आसान बना दिया है। 

यहां हम  स्पष्ट करना चाहते हैं कि:
 (1) भाषा  यदि  प्राकृतिक  नाद के  वाचिक अनुकरण  से पैदा हुई है तो यांत्रिक  सोच के अनुसार  भाषाएं एक जैसी होनी चाहिए,  परंतु  एक जैसी नहीं है,  इसका कारण  यह  भिन्नता ही है।

(2)  आदिम समुदायों के पास  स्पष्ट वाचिक उच्चार  या  उनकी  ध्वनिमाला  उससे बहुत अधिक  सीमित थी  जो हमें देखने को मिलती है। कारण  उनकी अपनी ध्वनियाँ (क)  निष्प्राण और  अघोषित -कचटतप- हो सकती थी; (ख) सप्राण और  अघोषित -खछठथफ- हो सकती थी: (ग) निष्प्राण और  घोषित -गजडदब- हो सकती थी या; (घ) सप्राण और  घोषित -घझढधभ- हो सकती थी और (ङ)  अनुनासिकों में से किसी एक का   ही प्रयोग  प्रत्येक  बोली में होता रहा हो सकता था। 

(3) हमने  देखा  कि  चवर्ग का प्रवेश  भारोपीय में बाद में हुआ।  ठीक यही बात टवर्ग के विषय में  कही जा सकती है।

(4) निष्कर्ष यह कि न केवल किसी वर्ग की अघोषता. सघोषता और महाप्राणन की दृष्टि से आज उपलब्ध सभी ध्वनियां किसी  बोली में नहीं थीं, बल्कि स्थान की दृष्टि से सभी  वर्गों  (कंठ्य. तालव्य, मूर्धन्य, दन्त्य, और ओष्ठ्य)  ध्वनियाँ भी नहीं थीं।  

(5) जिस ध्वनिमाला को हम अपनी मानते हैं उसका विकास  दसियों  हजार  वर्ष के दौरान विविध  मानव यूथों के परस्पर  मिलने से कई तरह के प्रयोग और पछाड़ के बाद हुआ है।  एक दूसरे की ध्वनि को अपनाते हुए  उन्हें सही उच्चारण के लिए बार-बार कठिन प्रयास करना पड़ता था।  इस क्रम में  प्रयत्न भी बदले  और उच्चारण स्थान भी।  इसलिए  हम यह नहीं कह सकते कि जिस समुदाय की बोली में  कोई  प्रमुख ध्वनि थी,  वह उसका उच्चारण  किस रूप में  या किन किन रूपों में  करता था कि जिन  गिनी चुनी  वस्तुओं  और क्रियाओं का  उसके लिए महत्व था  उनके लिए अलग-अलग ध्वनि-संकेत पैदा कर लेता था। 

(6) भिन्न  बोली वाले  यूथ  के साथ  लंबे समय तक रहते हुए  दोनों एक दूसरे की ध्वनि को अपनी  श्रुति और वाचिक सीमा में सुनते और उच्चारण करते थे।  सही उच्चारण सीखने में लंबा समय लग जाता था,  इस बीच  उच्चारण स्थान  और प्रयत्न में भी, सही बने रहने की  जी तोड़ कोशिश के बाद भी,  मामूली विचलन आ जाती थी।  

इसे  एक  काल्पनिक उदाहरण से  समझने का प्रयत्न करें।  एक बोली  जिसकी प्रधान ध्वनि ‘भ’ थी, एक दूसरी  बोली के संपर्क में आती है  जिसकी  प्रधान ध्वनि ‘च’ है।  आरंभ में  ‘भ’ प्रेमी समुदाय ‘च’ को ‘झ’ के रूप में सुनता और बोलता है, और दूसरा समुदाय ‘भ’ को ‘प’ के रूप में सुनता  और बोलता है।  ‘भ’ समुदाय को दूसरे का उच्चारण समझ में नहीं आता और उसकी  उलझन  या  उपहास से  दूसरे की समझ में आता है कि उससे कुछ चूक हो रही है। यही  समस्या  ‘भ’ समुदाय के साथ भी  उपस्थित होती है।  अपनी भूल सुधारते हुए वे जिस मुकाम से  गुजरते हैं उसमें ‘च’ समूह ‘भ’ को लंबे समय तक ‘ब’ रूप में सुनता और बोलता है,  परंतु  ‘भ’ समुदाय  पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो पाता और वह स्वयं  ‘च’ को ‘ज’ में बोलने की  आदत डाल लेता है, जिसके बाद भी दूसरे को वही शिकायत रहती है।   संपर्क  लंबा है  इसलिए असंतोष के कारण  या एक ही  समुदाय में   एक ध्वनि के दो तरह के उच्चारण प्रचलित होने के कारण,  लंबी अवधि में ‘भ’  समुदाय  च  बोल लेता है,  और च  समुदाय भ  उच्चारण कर पाता है।  इसके साथ ही  दोनों, जिनके पास  केवल   एक  एक  उपयोगी  ध्वनि थी,  अब  छह ध्वनियाँ ही नहीं हो जातीं, बल्कि  उच्चारण के आधार पर   भीतर से दो भागों में बँटा हुआ  समुदाय हैं  सामाजिकता का  पहला चरण  पार करते हुए  एक बड़े समुदाय में बदल जाता है जिसके भीतर  कोई भेद नहीं रह जाता।

(7) इस मर्म को मैंने  बिना किसी गुरु के दक्षिण भारत की भाषाओं को राष्ट्रभाषा  प्रचार समिति, वर्धा से   नागरी लिपि में प्रकाशित बाल पोथियों और शब्दकोशों से सीखने के प्रयत्न में जाना। वर्णमाला, विशेषतः संयुक्ताक्षर,के लिए संबंधित भाषाओं के समाचार पत्रों प्रकाशित विज्ञापनों का और उच्चारण समझने के लिए आकाशवाणी से उन भाषाओं के समाचार सुनता, उनकाे टेप करके बार बार सुनता, स्वयं उच्चारण करके मिलाता फिर भी उच्चारण सही न हो पाता। अंत तक नहीं हुआ।  तमिल की एक ध्वनि जिसके लिए अज्ञेय जी ने ‘ष़’ का चिन्ह अपनाया था, कुछ ऴ का प्रयोग करते हैं, मेरे लिए इतनी बड़ी समस्या बनी रही कि उसका उच्चारण तमिल भाषियों से सुन कर दुहराता तो लगता न उसे सुन पाया, न बोल सकता हूँ। तमिल (तमिऴ) शब्द की अन्तिम ध्वनि इसी की है।

यदि मैं एक बड़े और परस्पर जुड़े समुदाय के रूप में उस समाज में शामिल होता तो मेरे उच्चारण उसकी धविनमाला को प्रभावित करते।  इसी प्रक्रिया से तमिल में मदुरै वैभव और संघम् संस्कृति के दर्प में उच्चारण की शुद्धता बनाए रखने की जिद के  बाद भी अघोष अल्पप्राण ध्वनियों का शब्द के मध्य में आने पर सघोष उच्चारण आरंभ हुए। इसी क्रम में ध्वनिमाला गत दूसरे अनेक परिवर्तन आरंभ हुए लगत है और दूसरी बोलियाँ जिन्होंने लेखन में बहुत पहले से संस्कृत वर्णमाला अपना रखी है उनकी ध्वनिमाला संस्कृत से अलग पड़ती है।

( भगवान सिंह )

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