Thursday, 26 November 2020

शब्दवेध (29) नासिका ध्वनि

मनुष्य का दूसरा अंग जिससे ध्वनि उत्पन्न होती है, नासिका है।  इससे सोते जागते और श्वास नली की अवस्था के अनुसार कई तरह की ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं।  सस, सन, नस, नक सामान्य श्वसन के पुराने वाचिक अनुकार प्रतीत होते हैं जिनसे नासा, नासिका, नाक O.E.nosu, E. nose, Swedish nos,  L.nāsus, Lith. nosis, और दूसरी यूरोपीय भाषाओं के इनसे मिलते-जुलते   naso, nes, nase, आदि शब्द निकले हैं। साँस लेने की सामान्य क्रिया के लिए शब्द कुछ बाद में गढ़े गए साँस <>श्वास, साँस लेने की क्रिया ससन> श्वसन।  स्वन - ध्वनि, आवाज. E. sono-, sone- unit of sound, sound, sonic, sonorous आदि की व्युत्पत्ति इसी से हुई है।  सं. श्वान - आवाज करने वाला जानवर । अंग्रेजी में श्वन का प्रतिरूप  sound हुआ तो कुत्ते का, विशेषतः शिकारी कुत्ते का इसी के अनुरूप हाउंड hound हो गया।  इसका हाउंड <>हुंड  भोजपुरी में भेड़िये के लिए प्रयुक्त हुँड़ार की याद दिलाता है। क्या आवाज या ऊँची आवाज के लिए कभी हुंड का प्रयोग होता था जिससे हुंडकार> ‘हुंकार’, हूयते>हवन, (आ-)ह्वान आदि निकले हैं ?

हुंकार वन्य अवस्था में किसी व्यक्ति के भटक जाने पर उसे दिशा और स्थिति का अनुमान कराने के लिए पुकार का अवशेष है जिसमें ऊँचाई के कारण गर्जना का भाव था इसलिए इसने आक्रमण से पहले समवेत रणनाद का रूप ले लिया, पर प्राथमिक आशय अदृश्य और अनुपस्थित को बुलाने का था और यही आशय हुंड > हवन, ह्वान, और इसके प्रतिरूप *पुंड-कार - पुकार का भी रहा हो सकता है जिससे सबसे ऊँची आवाज करने वाले शंख को पौंड्र (पौंड्रं दध्मौ प्रतापवान) संज्ञा हुई। 

हुंडकार> हुंकार के दो पक्ष थे। एक आह्वान करने वाले का  और दूसरा यदि भटके हुआ व्यक्ति श्रव्य दायरे में हुआ और उसने उसे सुन लिया तो उसे भी प्रतिनाद से उसकी पुष्टि करनी होती थी।  

मैं नहीं जानता कितने देशों में  साहित्यानुराग के वे रूप पाए जाते हैं,  मेरी जानकारी के नृतत्वविदों ने इस पर प्रकाश नहीं डाला है, जिनमें कालयापन के लिए पुरातन घटनाओं के जैसे भी विवरण उन तक पहुँचे होते थे उनके कथन, गायन, और सोने से पहले कहानी सुनने-सुनाने का चलन रहा हो, पर भारत में यह था। कहानी सुनाने वाले के प्रत्युत्तर में सुनने वाले को हुँकारी भरनी होती थी। यह इस बात को सुनिश्चित करता था कि कहानी सुनने वाला ध्यान से सुन रहा है। अभी जगा हुआ है। यह हुँकारी ही हाँ की जननी है। इस हाँ के विरोधी अर्थ थे। एक से हम परिचित हैं, दूसरा किसी संभावित दुर्घटना को रोकने के लिए वर्जनापरक आशय था।  बोलियों में आज भी इसका  प्रयोग होता है, ‘हाँ हाँ, ऐसा मत करो।’  पक्ष और विपक्ष दोनों का भाव उसी शब्द में आने का यही कारण लगता है। जो भी हो हुंड, हुंकार, हुँकारी और हाँ सजात शब्द हैं यह मानना निरापद है।      

हुंड में वही दोहरा भाव है, सुदूर स्थित अदृश्य स्वजन का आह्वान और उसे सुनने का सत्यापन।  प्राचीन भारतीय बैंक प्रणाली में प्रचलित हुंडी का हमें दूसरा कोई स्रोत दिखाई नहीं देता।  इतना ही नहीं, यदि स्वर-व्यंजन-विन्यास पर ध्यान दें तो हुंड, गुंड, घुंड, रुंड, सुंड, भुंड  और इनके अवर आशय के हुंडी, गुंडी, घुंडी, *रुंडी, सुंडी, भुंडी,  तथा हंड गंड, घंड, रंड, संड, भंड  -एक ही भाषाई स्तर से आए हुए शब्द हैं जिनमें से कुछ को ही संस्कृत में स्थान मिल पाया था।  कारण संस्कृत को एक स्वल्पजनसाध्य या कूट भाषा में बदल कर उस खुलेपन का निषेध कर दिया गया जो सामान्य व्यवहार की भाषा में होता है।  इन दो कारणों से - एक तो जैसा हम पीछे (25) में स्पष्ट कर आए हैं भाषा की समग्र संपदा बहुत विशद होती है और उसके समूचे साहित्य में उसका एक क्षुद्र अंश ही आ पाता है, और दूसरे पाणिनीय संस्कृत के बाद ब्राह्मणों तक सीमित, क्लिष्ट और संहित पदों से अधिकाधिक कठिन बनते जाने के कारण संकुचित संचार की भाषा बन कर अपनी उस बोली से भी अधिक विपन्न भाषा बन कर रह गई जिससे इसका विकास हुआ था और इस विपन्नता को वह पुरानी पूंजी के बीच जोड़-तोड़ करके यांत्रिक रीति से पूरी करती रही। 

हम अर्थ विकास के साथ सांस्कृतिक विकास को भी लेना चाहें तो विवेचन संगत होते हुए भी सँभाल से बाहर चला जाएगा, इसलिए उससे बच कर चलना एक बाध्यता है। परंतु कभीकदा इसका प्रलोभन भारी पड़ता है। भटक कर दूर चले गए जत्थे के सदस्य को बुलाने के लिए किए जाने वाले हुंडकार/ हुंकार या पुकार को वह सुन लेता था तो प्रतिनाद करता था, परन्तु यदि वह भटक कर श्रव्य सीमा से दूर चला गया हो और उसका जवाब न मिले तब संकेत के लिए आग जला कर धुँआ पैदा किया जाता था जिसे देख कर वह सही दिशा और दूरी का अनुमान कर सकता था।  बाद में कृषिकर्म से विरत होने पर भी भू संपदा पर अधिकार जताने वाले उसके कर्मकांडीय आयोजन यज्ञ में देवों को बुलाने के लिए हवन या आह्वान के लिए उच्चस्वर से पाठ के साथ अग्नि से अधिकाधिक धूम पैदा करके उन्हें बुलाने के विधान में इसी की प्रतीकात्मक पुनरावृत्ति थी - 
आदिन्वसि वनिनो धूमकेतुनाऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ।। 1.94.10 
घृतेन त्वा अवर्धयन् अग्न आहुत धूमस्ते केतुः अभवद् दिवि श्रितः ।। 5.11.3

विकास की दृष्टि से इन दोनों चरणों में हजारों साल का अंतर है परंतु ज्ञान परंपरा में ये दूरियाँ मिट जाती हैं। इतना ही नहीं इनका विस्तार भी होता है।  समुद्र में स्थल से दूर और दिशाबोध खो बैठने की दशा में भारतीय नाविकों ने निकटतम स्थल का पता लगाने के लिए कौवे को छोड़ने और उसके किसी दिशा में उड़ जाने को नौवहन में मार्गदर्शक के रूप में प्रयोग किया। कौवा पालतू होने के कारण अपने स्वामी के घर पर आ बैठता और उछल कूद करता था जिससे  दूर गए प्रियजनों की वापसी का सूचक सगुन विचार का संबंध है। इसका बहुत जीवंत चित्रण ऋग्वेद के दो सूक्तों में है
कनिक्रदज्जनुषं प्रब्रुवाण इयर्ति वाचमरितेव नावम् ।
सुमंगलश्च शकुने भवासि मा त्वा का चिदभिभा विश्व्या विदत्  ।। 2.42.1
अव क्रन्द दक्षिणतो गृहाणां सुमंगलो भद्रवादी शकुन्ते । …
आवदन्स्त्वं शकुने भद्रमा वद तूष्णीमासीनः सुमतिं चिकिद्धि नः ।
यदुत्पतन् वदसि कर्करिर्यथा बृहद्वदेम विदथे सुवीरा ।। 2.43.3

परंतु यदि कौए को चक्कर लगाने के बाद किसी दिशा में किनारा दिखाई नहीं देता था, वह जहाज पर वापस लौट आता था, तो स्वजनों को अपने संकट की सूचना देने के लिए वे कबूतर को छोड़ते, क्योंकि इसकी उड़ान बहुत लंबी होती है। कबूतर के पहुँचने और आवाज करने को इसीलिए आपदा का सूचक माना जाता था। इसका भी ऐसा ही हवाला ऋग्वेद में आया है:

देवाः कपोत इषितो यदिच्छन्दूतो निऋर्त्या इदमाजगाम ।
तस्मा अर्चाम कृणवाम निष्कृतिं शं नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे ।। 10.165.1

संभवतः इसके पीछे यह भावना भी रही हो कि कुछ प्रतीक्षा के बाद यदि वे न लौटें तो उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाय।  

जिस ध्वनि शब्द का हम लगातार प्रयोग करते आ रहे हैं उसका संबंध भी श्वन से ही है साथ ही स्वर का भी जनक यही है।

एक विचित्र बात यह कि तमिऴ में मूक्कु का अर्थ नाक है और नाक्कु का अर्थ जिह्ना, कुत्ते के लिए नाय् का प्रयोग होता है।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

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