अभी तक विद्वानों ने इधर का उधर का, कुछ भी, समेटते हुए भाषा की समस्याओं को, विशेषतः भाषा की उत्पत्ति को समझने का प्रयत्न किया है। महिमा विविधताओं का संचय नहीं होती, विविधता की संभावनाएँ उसके भीतर होती हैं। पैदा होने को बटवृक्ष मात्र एक क्षुद्र बीज से पैदा होता है और उसकी समस्त संभावनाएँ - यद् भूतं यच्च भव्यम् - बीज में ही निहित होती हैं।
ठीक यही हाल नाद से उत्पन्न भाषा का है। पर, यहाँ एक अंतर है. भाषा प्राकृत और कृत्रिम नाद का नैसर्गिक विकास नहीं है। मनुष्य द्वारा उन नादों काे, अपनी बोली की ध्वनि सीमा के कारण, जिस रूप में सुना गया है यह उसका वाचिक अनुकरण तो है, पर इसमें उसकी अपनी रुचि या भावना के अनुसार हस्तक्षेप का भी देखने में आता है (कृष्ण एक साथ कान्हा, कन्हाई, कन्नन, कनू कितने रूपों में पुकारे जाते हैं)। वही नाद बोली की ध्वनिमाला में भेद के कारण अनेक रूपों में सुना और बोला जा सकता था और एक बार उस रूप में अपना लिए जाने के बाद मनुष्य की अपनी भावना के अनुसार कई रूपों में बदला और समझा जा सकता है।
कल्पना करें कि आग पैदा करने के लिए अरणि मंथन से जो ध्वनि पैदा होती है उसे एक ही समय में चार ऐसी बोलियाें के लोग सुन रहे हैे जिन्हें वह क्रमशः ची ची, ती ती, दी दी, धी धी सुनाई देती है, या एक ने इसके लिए इनमें से कोई ध्वनि अपना रखी है और उसके गहन संपर्क में आने पर दूसरे समुदाय उसे अपनाते तो हैं पर उसे उन उन रूपों में सुनते और उच्चरित करते हैं जिसका आभास इनसे मिलता है। जब उन सभी का एक समुदाय में विलय हो जाता है तो एक ओर तो उस भाषा में इन सभी ध्वनियों का समावेश हो जाता है।
पहले इन ध्वनियों से आग के जलने के लिए जो आवर्ती ध्वनि और क्रिया और संज्ञा रूप चलन में आ गए थे वे सभी इस साझी भाषा में चलते रहते या ‘सही’ माने जाते हैं और फिर यह सूझता है कि इतने पर्यायों की आवश्यकता नहीं, क्यों न इनका विशेष अर्थ में प्रयोग करें । अब अनेक शब्द नए आशयों के लिए प्रयोग में आने लगते है।
जो शब्द नए अर्थ में रूढ़ हो जाते हैं उनके पहले के सभी प्रयोग बदले नहीं जा सकते थे, इसलिए इसके मूल अर्थ अनेक प्रयोगों में बचे रहते हैं जिनसे हम आश्वस्त हो पाते हैं कि पहले इस शब्द का प्रयोग आग के लिए होता था।
समस्या यहीं ठहरी नहीं रहती। किसी चरण पर वे ऐसे समाजों के संपर्क में आता है जिनकी ध्वनि माला में क्रमशः त और च की ध्वनि न थी, अपितु ट और स की ध्वनियाँ थीं। इसके मिलने के साथ ट की ध्वनि और दूसरी समीकृत बोलियों की धोष और महाप्राण के प्रभाव से कुछ नए रूप बनते हैं और इनको भी उस भाषा की संपदा में जगह मिल जाती हैं परंतु यह समुदाय पहले चरण पर संपर्क में नहीं आया था इसलिए इससे पैदा होने वाली शब्दावली अपेक्षाकूत कम होगी, और अमूर्त आशयों को ही प्रकट करेगी।
अब इस थका देने वाले सिद्धांत निरूपण को स्पष्ट और सूत्रबद्ध और उदाहृत करें तो वह निम्न प्रकार होगा:
भाषा का पहला चरण प्राकृत नाद या संगीत का वाचिक संगीत में ढालने का था, इसलिए यदि लय बनी रहे तो वाचिक ध्वनि कोई भी क्यों न हो, इससे अंतर नहीं पड़ता था।
यह संगीत आवर्ती ध्वनियों का अर्थात् क्रिया की बिशेषता को प्रकट करता था, इसलिए भाषा का आरंभ संज्ञा या क्रिया से नहीं क्रिया विशेषण से हुआ। संज्ञा अर्थात् वह वस्तु जिससे यह नाद फूटा, और क्रिया, जिससे यह नाद संभव हुआ उसका भी यह क्रिया विशेषण ही था।
आवर्ती ध्वनियों में आवर्तन को हटा कर, एकल बना कर संज्ञा और क्रिया का साझा पद बना - पानी - जल; पानी - (क)पानी बरस रहा है; (ख) पानी पिलाओ, (ग) आगे पानी है, बचो आदि। व्यंजना और आदेश कथन में आज भी इसका प्रयोग किया जाता है।
हमने अरणि मंथन (यह मेरी कल्पना है जो गलत सिद्ध हो सकती है) से उत्पन्न नाद के कारण हो या जैसे भी हम चिनगारी (चीं चीं> चिन्> +कार>कारी > चिनगारी, चिन+आर, चिनार- आग वाला, चिनचिनाहट, चिन्+ह (सं.चिह्न नहीं बोली का चीन्हल - पहचानना, चिन्हार - परिचित, चीन्हा - चिन्ह अधिक शुद्ध है)।
त. ती- आग, (माना जाता है कि तमिल में यह शब्द सं. से लिया गया है) , पर यह शब्द संस्कृत में दी था या धी यह तय करना होगा। नियम है कि सं. में जिन शब्दों मे घोष अल्पप्राण ध्वनियाँ पाई जाती हैं वे अधिकतर महाप्राणित रही हैं, धार-धार> धाधार > सं. दाधार, धाति > दाति (वे. दाति वारम्) अतः मूल *धी- आग था, जिसको बुद्धि, ध्यान, धारणा की दिशा में कई रूपों में स्थिर और रूढ़ कर दिया गया, परन्तु “धिकवल” - गर्म करना; धिक्कार - आग लगे या भाड़ में जाओ के आशय में प्रयुक्त भर्त्सना में आग का भाव बचा रहा। पूर्वी में ही इसका एक रूप दी चलता था जो दिकदिककाह - गर्म, देव आदि से प्रकट है। कौरवी प्रभाव में दी > द्य (द्याव- आकाश), द्यु -आदि बने। दी - दिवस, द्यौस़,दीप्ति, दीपक, द्युति आदि का जनक बना।
यहाँ रोचक है 'ती' जो संस्कृत से उस बोली में दी/धी के पहुँचने के बाद का रूप है वह सं. में भी वापस आता है ,अर्थात् संस्कृत के निर्माण क्षेत्र से सटे या उसके संपर्क में उस बोली का प्रयोग होता था जिसे आज केवल तमिल ने बचा रखा है। अतः दिवस का पर्याय *ति-ति > तिथि, और विकास तिलक,
तीत> तिक्त, लिलमिलाहट, प्र-तीक, तिग्म आदि रूप सामने आते है।
ट ध्वनि वाला समूह कुछ विलंब से संपर्क में आता है और इसलिए टीकुर - सूखी जमीन, टिकरी - सीधे आग पर सेंकी गई रोटी, टीस, को छोड़ कर शेष शब्दावली ज्ञानपरक - टीका, टीप, टिप्पणी, सटीक, ठीक आदि में ही दिखाई देती है।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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