लिखते हुए डरते हैं गलत कुछ न लिखा जाए।
फिर लिख कर सोचते हैं सही कुछ भी नहीं है।
एक खेल है और खेल पहेली से कम नहीं
जो खेल में शामिल है बहुत खुश भी नहीं है।।
कुछ लिखने से छूट जाता है और कुछ लिखने के बाद संदेह के दायरे में रहता है। यदि पाठक मुझे अधिकारी मानकर नहीं, खोजी मान कर पढ़ें तो पाएँगे, खोजी जानता नहीं है, जानने की कोशिश में लगा रहता है, और कई बार आगे का रास्ता उन लोगों से पूछता है जो रास्ता तो जानते हैं उस मुकाम तक कभी गए नहीं हैं।
मुंह से विविध क्रियाओं के दौरान कई तरह की ध्वनियाँ निकलती हैं। इनमें से एक ध्वनि का अनुकरण बोलियों की आदिम अवस्था की सीमाओं के कारण पक, फक, बक, भक या पग, फग, बग, भग के रूप में किया गया लगता है। एक ही प्राकृतिक नाद को कई रूपों में सुना जा सकता है, इसे हम सभी जानते हैं। बचपन में रेल की पटरियों से आने वाली आवाज को सुनने वाले "लाल लाल पइसा, चल कलकत्ता" के रूप में सुन लेते थे। सुन कर देखिए, आप को भी सुनाई दे सकता है।
प्राचीन वैयाकरण इस तरह की भिन्नता को ध्वनि नियमों से होने वाले परिवर्तन मानते रहे हैं। परंतु उनमें से कुछ ऐसे भी थे जो इन ध्वनियों को एक ही अर्थ में प्रयुक्त होने वाली स्वतंत्र धातुएं मानते थे। जैसे,
क
20. उर्द मानेमानं परिणामं क्रीडायां च
21. कुर्द -
22. खुर्द -
23. गुर्द -
24. गुद क्रीडायां
ख
81. सेकृ-
82. स्रेकृ-
83. स्रकि-
84. श्रकि-
85. ष्लकि गतौ
ग
94. ककि -
95. वकि -
96. ष्वकि -
97. त्रकि -
98. डौकृ -
99. त्रौकृ -
100. ष्वष्क -
101. वस्क -
102. मस्क -
103. टिकृ -
104. टीकृ -
105. तिकृ -
106. तीकृ -
107. रघि -
108. लघि गत्यर्थे भोजननिवृत्तौ च
धातु का निर्धारण करने वालों ने यह नहीं बताया की एक सी लगने वाली इन धातु के साथ उस विशेष आशय का संबंध कैसे जुड़ा, या उस अर्थ के लिए इन ध्वनियों का निर्धारण उन्होंने कैसे किया? वे भाषा में प्रयुक्त शब्दों के बहुनिष्ठ लघुतम घटक का चयन कर रहे थे, और ऐसा लगता है इनमें से उसकी दृष्टि बोलचाल की भाषा में मिलने वाले विभिन्न प्रयोगों की ओर भी गई थी।
उनसे हमारी भिन्नता यह है कि हम नाद के स्रोत या स्रोतों को उतना ही महत्व देते हैं, जितना ध्वनि को और इससे शब्द और अर्थ की वह एकान्विति सामने आ जाती है जिसका बोध बहुत पहले से भारतीय चिंता धारा में विद्यमान था और जिसे कालिदास ने वाणी और अर्थ की संपृक्ति कहा था (वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये । जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥) और तुलसीदास ने वायु के स्पर्श से जल और तरंग का अभेद ( गिरा अनिल जल- बीचि सम कहियत भिन्न, न भिन्न) कहा है ।
मुंह से उत्पन्न होने वाली जिन ध्वनियों की हमने ऊपर चर्चा की है वे केवल मुंह से उत्पन्न नहीं होती, किसी भी ऐसी क्रिया से जिससे वायु का झटके उन्मोचन (स्फोट्), या निर्वात जन्य संघात (इंप्लॉजन) हो उससे उत्पन्न नाद है यह। यह मुंह से तेजी से ही वायु के निकलने, या किसी चीज के फटने, या आग से जलने से ऑक्सीजन की पूर्ति करने की तेजी से उत्पन्न होने वाली ध्वनि, या आग के एकाएक बुझने से उत्पन्न होने वाली ध्वनि है। इसलिए एक ओर इसे बोलने, खाने, खाने के योग्य बनाने, भूख, आदि के लिए प्रयोग में लाया जाता है तो दूसरी ओर तोड़ने, बांटने, आदि के लिए, और तीसरी और प्रकाश, प्रकाश के स्रोत, प्रकाशित होने की क्रिया, बुझने की क्रिया आदि के लिए।
हमारी जातीय चिंता में एक अतिसूक्ष्म अंडाणु में समस्त सृष्टि के लीन (प्रलय) होने और अनंत काल तक उसी अवस्था में पड़े रहने के बाद उसी के फटने से उत्पन्न अत्यंत सूक्ष्म भण् की ध्वनि के साथ सृष्टि के आविर्भाव की कल्पना की गई थी। इसीलिए नाद ब्रह्म या शब्द ब्रह्म की अवधारणा हमारी चिंता धारा में अति प्राचीन काल से विद्यमान रही है।
समय और दिक् का प्रसार विज्ञान की महिमा से कल्पनातीत हुआ है जिसके लिए प्राचीन मनीषियों ने अपनी समझ से आइंस्टाइन से पहले के पाश्चात्य जगत के लिए अकल्पनीय, बहुत लंबी कालावधि का निर्धारण किया था। अन्यथा भी आधुनिक विज्ञान सृष्टि के विषय में लगभग उन्हीं निष्कर्षों पर पहुँचा है जिस पर प्राचीन भारतीय चिंतक पहुंचे थे। गॉड पार्टिकल जिसमें गॉड व्यंग्य है, स्रष्टा के रूप में ईश्वर को कल्पित करने वालों को बताया गया है, कि सृष्टि किसी ईश्वर द्वारा नहीं हुई थी, अपितु इसका उद्भव एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म (अणोः अणीयान्) से हुई थी । भारतीय चिंता धारा में विविध विचारों के बीच, होते-हुए-भी-न होने जैसी एक भावसत्ता (न सत् आसीत् न असत् आसात् तदानीं) जिसे हिरण्यगर्भ अर्थात् बाद में उसे निकलने वाली समस्त सृष्टि के गर्भ के रूप में कल्पित किया जाना, एक ईश्वरेतर पार्थिव सत्ता की कल्पना और आधुनिक विज्ञान की अंतिम तलाश से उसकी आश्चर्यजनक निकटता प्राचीन ऋषियों के प्रति समर्पण की नहीं, तो भी श्रद्धा और विनय की भावना पैदा करती है।
भटकने की आदत है परंतु नई सचाइयों से हमारा सामना राह पकड़ कर चलने की जगह भटकने से ही होता है। इस दृष्टि से ‘अच्छी नहीं है, फिर भी यह आदत बुरी नहीं।’
हम आज इसी आदत के कारण हम मुंह से उत्पन्न होने वाली ध्वनियों पर भी यथेष्ट विचार नहीं कर पाएंगे, और यदि संक्षेप में अपनी बात कहना चाहें, तो यह उम्मीद करना कि पाठक स्वयं अपने प्रयत्न से उन रूपों को आंक और भाँप लेंगे अब तक के अनुभवों से, सही नहीं लगता। फिर भी कोई दूसरा चारा नहीं है:
पक् - पक पक करना =अनावश्यक और निरर्थक बातें करना.
पक् - मनसा ग्रहण करना, ( कंप्रिहेंड> ग्रहण करना) पकड़ना,
पक् - पकाना (तु. श्रपयति), भो. पकावल; पाक = पकायी हुई वस्तु; पकवान, पकौड़ी; पक्व - पका हुआ; पाक = ज्ञानी (पाकः पृच्छामि); पाक= पवित्र,
फक् - *फाँकना = खाना, चूर्णीकृत खाद्य या ओषधि काे खाना; फाँका (उपवास); फक्कड़ - जिसे धन-दौलत की चिंता न हो, बे परवाह; फूँक - मुँह से तेजी से हवा निकालना; फकीर - जो अपने पास कुछ न रखता हो, अपनी जीविका के लिए दूसरों के दान पर निर्भर करता हो।
बक् - बकना, बकवास, बक के संस्कृतीकरण से वक, वाक्य, वच्, वचन, वाचन।
भक् - भो. में तिरस्कार सूचक अव्यय; भकोसना, भक्षण, भाखना - कहना, पूर्वकथन करना; भकुआना- समझ न पाना, बोल न पाना, सं. करण > भाषा, भाषण, भाष्य आदि; >भूख, भुक्खड़, >बुभुक्षू -भूखा, भीख >भिक्षा- अन्नदान, भिखारी, भिक्खु> भिक्षु ।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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